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27.2.10

शीतयुद्ध में मुसलमानों के खिलाफ आरएसएस - अमेरिका भाई भाई

          
     
        साम्प्रदायिकता का आक्रामक उभार और विकास हमारे देश में शीतयुध्द के साथ तेजी से हुआ है। यह विश्व में उभर रही आतंकी-साम्प्रदायिक विश्व व्यवस्था का हिस्सा है। यह दिखने में लोकल है किंतु चरित्रगत तौर ग्लोबल है। इसकी ग्लोबल स्तर पर सक्रिय घृणा और नस्ल की विचारधारा के साथ दोस्ती है। याराना है। भारत में राममंदिर आंदोलन का आरंभ ऐसे समय होता है जब शीतयुद्ध चरमोत्कर्ष पर था।
शीतयुध्द के पराभव के बाद अमरीका ने खासतौर पर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार कर लिया है। इसके नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मुहिम भी चल रही है, ग्लोबल मीडिया इस मुहिम में सबसे बड़े उपकरण बना हुआ है। मुसलमानों और इस्लामिक देशों पर तरह-तरह के हमले हो रहे हैं। इस विश्वव्यापी इस्लाम -मुसलमान विरोधी मुहिम का संघ परिवार वैचारिक-राजनीतिक सहयोगी है। फलत: ग्लोबल मीडिया का गहरा दोस्त है।
संघ परिवार ने इस्लाम धर्म और मुसलमानों को हमेशा विदेशी ,अनैतिक ,शैतान और हिंसक माना । इसी अर्थ में वे इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ अपने संघर्ष को देवता अथवा भगवान के लिए किए गए संघर्ष के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे हैं। अपनी जंग को राक्षस और भगवान की जंग के रूप में वर्गीकृत करके पेश करते रहे हैं। शैतान के खिलाफ जंग करते हुए वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन तमाम राष्ट्रों के साथ हैं जो शैतानों के खिलाफ जंग चला रहे हैं। इस अर्थमें संघ परिवार ग्लोबल पावरगेम का हिस्सा है। चूंकि इस्लाम-मुसलमान हिंसक होते हैं अत: उनके खिलाफ हिंसा जायज है,वैध है। हिंसा के जरिए ही उन्हें ठीक किया जा सकता है। वे मुसलमानों पर हमले इसलिए करते हैं जिससे हिन्दू शांति से रह सकें। हिन्दुओं के शांति से रहने के लिए मुसलमानों की तबाही करना जरूरी है और यही वह तर्क है जो जनप्रियता अर्जित करता जा रहा है। दंगों को वैध बना रहा है। दंगों को गुजरात में बैध बनाने में इस तर्क की बड़ी भूमिका है। 'शांति के लिए मुसलमान की मौत' यही वह साम्प्रदायिक स्प्रिट है जिसमें गुजरात से लेकर सारे देश में दंगों और दंगाईयों को वैधता प्रदान की गई है। यही वह बोध है जिसके आधार साम्प्रदायिक हिंसा को वैधता प्रदान की जा रही है।
     संघ परिवार पहले प्रतीकात्मक हमले करता है और बाद में कायिक हमले करता है। प्रतीकों के जरिए संघ परिवार जब हमले करता है तो प्रतीकों के दबाव में सत्ताा को भी ले आता है। वे कहते हैं यदि एक हिन्दू मारा गया तो बदले में दस मुसलमान मारे जाएंगे। वे मौत का बदला और भी बड़ी भयानक मौत से लेने पर जोर देते हैं। वे मुसलमानों की मौत के जरिए व्यवस्था को चुनौती देते हैं। हिन्दुओं में प्रेरणा भरते हैं। व्यवस्था को पंगु बनाते हैं। अपने हिंसाचार को व्यवस्था के हिंसाचार में तब्दील कर देते हैं। साम्प्रदायिकता आज पिछड़ी हुई नहीं है। बल्कि आधुनिकता और ग्लोबलाईजेशन के मुखौटे में जी रही है। मोदी का विकास का मॉडल उसका आदर्श उदाहरण है। इस्लाम,मुसलमान के प्रति हिंसाचार,आधुनिकतावाद और भूमंडलीकरण ये चारों चीजें एक-दूसरे अन्तर्गृथित हैं। इस अर्थ में साम्प्रदायिकता के पास अपने कई मुखौटे हैं जिनका वह एक ही साथ इस्तेमाल कर रही है और दोहरा-तिहरा खेल खेल रही है।
      आज प्रत्येक मुसलमान संदेह की नजर से देखा जा रहा है। प्रत्येक मुसलमान को राष्ट्रद्रोही की कोटि में डाल दिया गया है। मुसलमान का नाम आते ही अपराधी की शक्ल, आतंकवादी की इमेज आंखों के सामने घूमने लगती है। कल तक हम मुसलमान को नोटिस ही नहीं लेते थे अब उस पर नजर रखने लगे हैं। इसे ही कहते हैं संभावित अपराधीकरण। इस काम को संघ परिवार और ग्लोबल मीडिया ने बड़ी चालाकी के साथ किया है। इसे मनोवैज्ञानिक साम्प्रदायिकता भी कह सकते हैं।
      साम्प्रदायिक दंगों को संघ परिवार साम्प्रदायिक दंगा नहीं कहता,बल्कि जबावी कार्रवाई कहता है। यही स्थिति भाजपा नेताओं की है वे भी साम्प्रदायिक दंगा पदबंध का प्रयोग नहीं करते। बल्कि प्रतिक्रिया कहते हैं। उनका तर्क है हिंसा हमेशा 'वे' आरंभ करते हैं। 'हम' नहीं। साम्प्रदायिक हिंसाचार अथवा दंगा कब शुरू हो जाएगा इसके बारे में पहले से अनुमान लगाना संभव नहीं है।  इसी अर्थ में दंगा भूत की तरह आता है। भूतघटना की तरह घटित होता है। दंगा हमेशा वर्चुअल रूप में होता है सच क्या है यह अंत तक नहीं जान पाते और दंगा हो जाता है। हमारे पास घटना के कुछ सूत्र होते हैं,संकेत होते हैं। जिनके जरिए हम अनुमान कर सकते हैं कि दंगा क्यों हुआ और कैसे हुआ। दंगे के जरिए आप हिंसा अथवा अपराध को नहीं रोक सकते। (संघ परिवार का यही तर्क है कि दंगा इसलिए हुआ क्योंकि मुसलमानों ने अपराध किया,वे हिंसक हैं) ,दंगे के जरिए आप भगवान की स्थापना अथवा लोगों की नजर में भगवान का दर्जा भी ऊँचा नहीं उठा सकते।
      दंगे के जरिए आप अविवेकपूर्ण जगत को विवेकवादी नहीं बना सकते।  मुसलमानों का कत्लेआम करके जनसंख्या समस्या का समाधान नहीं कर सकते। मुसलमानों को भारत में पैदा होने से रोक नहीं सकते। मुसलमानों को मारकर आप सुरक्षा का वातावरण नहीं बना सकते। मुसलमानों को पीट-पीटकर तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। मुसलमानों की उपेक्षा करके ,उनके लिए विकास के सभी अवसर छीनकर भी सामाजिक जीवन से गायब नहीं कर सकते। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि मुसलमान और इस्लाम धर्म हमारी वैविध्यपूर्ण संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। आप इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ चौतरफा आतंक और घृणा पैदा करके इस देश में सुरक्षा का वातावरण और स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित नहीं कर सकते।   
       मुसलमान और इस्लाम लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है। लोकतंत्र को कभी अल्पसंख्यकों से खतरा नहीं हुआ बल्कि बहुसंख्यकों ने ही लोकतंत्र पर बार-बार हमले किए हैं। जिन दलों का बहुसंख्यकों में दबदबा है वे ही लोकतंत्र को क्षतिग्रस्त करते रहे हैं। आपात्काल, सिख जनसंहार,गुजरात के दंगे,नंदीग्राम का हिंसाचार आदि ये सभी बहुसंख्यकों के वोट पाने वाले दलों के द्वारा की गई कार्रवाईयां हैं। मुसलमानों के खिलाफ हिंसाचार में अब तक साम्प्रदायिक ताकतें कई बार जीत हासिल कर चुकी हैं। साम्प्रदायिक जंग में अल्पसंख्यक कभी भी जीत नहीं सकते बल्कि वे हमेशा पिटेंगे।
                 


















2 comments:

Muslims Views said...

आपने बहुत ही विचारोत्तेजक लेख लिखा है और कई खास बातों की तरफ इशारा किया है। आप साधुवाद के पात्र हैं कि सच को बयान किया है। लेकिन आप शायद बार-बार यह भी कहना चाहते हैं कि पिटना मुसलमानों की नियति बन चुकी है और वे हिंदुओं या अमेरिका जैसे देशों से इसी तरह पिटते रहेंगे। लेकिन ऐसा होगा नहीं। आप बहुत जल्द देखेंगे कि यह सारी ताकतें हार का सामना करेंगी या फिर अपनी गलती स्वीकार करेंगी। वह समय बहुत करीब है। फिर कोई कृष्ण आएंगे, फिर कोई पैगंबर या ईसा आएंगे और इन ताकतों को दुम दबाकर भागना पड़ेगा। मेरा तो यही विश्वास है। माफ कीजिएगा...कृष्ण ने गीता का ज्ञान सिर्फ हिंदुओं के लिए ही नहीं दिया था।

अंकित कुमार पाण्डेय said...

सही कहा संघ तो बहुत बुरा है .अछे तो मुस्लमान है ...वही मुस्लमान जिन्होंने खिलाफत आन्दोलन में हिन्दुओं के सह्यूग का बदला ४७ में लकून हिन्दुओं की लाशें गिराकर दिया ....हिन्दुओं ने सद्भावना के लिए एक विशुद्ध इस्लामिक आन्दोलन का समर्थन किया और मुस्लिमून में अपनी शैली में कृतज्ञता निभाई और आज आप ९० वर्ष बाद पुनः चाहते ह की हिन्दू पुनः वही गलती करें वैसे आप पिछले १००० वर्षों में मुस्लिमों के द्वारा हिन्दुओं की हत्याओं को कैसे उचित ठहराएंगे? कोई ना कोई तो कुतर्क जरूर होगा आपके पास

हा सही कहा अगर दंगों की प्रतिक्रया से समस्यां नहीं जाएँगी वो तो इस्लामिक आतंक से जाएँगी .जैसे मुस्लिम कश्मीर से लेकर फिलिस्तीन तक हर समस्या का समाधान कर रहे हैं

आप कुछ नसीहतें मुस्लिमों को क्यों नहीं देते हैं? .शायद आप प्रगतशील और धर्मनिरपेक्ष अहिं और आपकी निगाहें कुछ पुरस्कारों पर है.क्यों है ना ???ं