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22.4.10

गौरव गाथा महतारी की

यह धरती नागों की धरती जिनसे नग भी थहराते थे,
जहां फणीं और छिन्दक राजाओं के ध्वज ही लहराते थे।
पाण्डव के पार्थ पौत्र परीक्षित को जिसने ललकारा था,
मेरठ के निकट हुए रण में तक्षक ने उनको मारा था।।
उनके साहस से सहमें साधू उन्हें सर्प बतलाते हैं,
भागवत में क्षेपक जोड़ हमें यह कल्पित कथा सुनाते हैं।
तोपों तीरों का साथ और तेगों से जिनकी यारी है,
ऐसे ही वीरों की माता यह छत्तिसगढ़ महतारी है।।
जिसमें रत्नों की भरी खान, कुछ सरल सुघर सुन्दर सुजान,
आगन्तुक को भगवान मान, करते उनकी सेवा सम्मान।
ऐसे मनखों की माटी में बारूद बो रहे मक्कारों,
नाकों के बल बजने वाले नक्सल के नकली नक्कारों।।
यह वीरनारायण की धरती दाऊ दयाल की माटी है,
इसकी रक्षा हित मिट जाना इन वीरों की परिपाटी है।
मांदर की थापें सुन जिनकी शेरों की टांग कांपती है,
जिन आदिवासियों की तीरें बाघों की देह नापती हैं।।
तुम उन भोले-भाले लोगों के मन में जहर घोलते हो,
कुछ लोहे के सिक्कों के बल पर उनका ईमान तोलते हो।
मुझको मेरे ही लालों से कितने दिन तुम कटवाओगे,
जिस दिन ये सम्भल गए उस दिन तुम टुकड़ों में बंट जाओगे।।
उस दिन इस माटी का बेटा धरती का कर्ज उतारेगा,
उस बियाबान में खोज-खोज इन मक्कारों को मारेगा।
उस नक्सल का नासूर हमी फिर संगीनों से फाड़ेंगे,
माओवादी गंदा मवाद बाहर ले जाकर गाड़ेंगे।।
फिर जंगल में कूके कोयल मैना पंखे फैलाएगी,
धरती धानों से धानी हो वर्षा के बूंद नहाएगी।
ताला के रुद्र छोड़ ताण्डव तब मंद-मंद मुस्काएंगे,
छत्तिसगढ़ के वासी कपूत जनगणमन उस दिन गाएंगे।।
कपूतप्रतापगढ़ी

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