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27.6.10

भाजपा में ‘रावण’ से फिर बने ‘हनुमानों’ के आगे संघ बौना

पिछले साल अगस्त में शिमला की वादियों में लोकसभा चुनाव में मिली पराजय पर ‘मंथन’ के लिए आयोजित ‘चिंतन बैठक’ के ठीक पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था।
उस वक्त जसवंत ने पत्रकारों को चर्चा के दौरान इंडिया टुडे में छपी एक कार्टून दिखाया था, जिसमें उन्हें ‘हनुमान’ के रूप में दिखाया गया था। उन्होंने कहा था, ‘भाजपा के ‘हनुमान’ से आज मैं ‘रावण’ बन गया।’
बहरहाल, भाजपा का यह ‘रावण’ एक बार फिर उसका ‘हनुमान’ बन गया है। उसका निष्कासन रद्द हो गया है और गुरुवार को 10 माह के वनवास के बाद उसकी घर वापसी हो गई।
दरअसल, भाजपा या यूं कहिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के ‘रावण’ तो पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना हैं। जसवंत ने जिसकी तारीफ बतौर लेखक अपनी पुस्तक ‘जिन्ना : भारत विभाजन के आइने में’ में की थी। यही उनके भाजपा से निष्कासन का कारण बनी। भाजपा ने उनसे ऐसी रुसवाई दिखाई कि उन्हें चिंतन बैठक में शामिल होने से इंकार ही नहीं किया गया बल्कि फोन के जरिए पार्टी से निष्कासन की जानकारी दी गई।
पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी जिन्ना को सेक्यूलर बताया था और 2005 में वह भी पार्टी के ‘रावण’ बन गए थे। इसके लिए उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था।
आडवाणी के अध्यक्ष पद छोड़ने और जसवंत को निष्कासित करने के पीछे सासे ाड़ा हाथ था संघ का। संघ ने ही ‘जिन्ना विवाद’ के कारण दोनों नेताओं को अर्श से फर्श पर पटकने में अहम भूमिका निभाई थी क्योंकि संघ जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नहीं मानता। वह जिन्ना को विभाजन का जिम्मेदार मानता है।
आश्चर्य की बात है कि न तो आडवाणी ने और न
ही जसवंत ने अपनी कही बात के लिए कभी खेद जताया। इसके बावजूद दोनों ने वापसी की। आडवाणी बाद में गत लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने में सफल रहे थे और जसवंत को पार्टी में वापसी के साथ-साथ विदेश नीति, अर्थ नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर पार्टी का मार्गदर्शक करार दिया गया।
इतना ही नहीं संघ ने भले ही डी-4 (अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और वेंकैया नायडू) के लिए अध्यक्ष का रास्ता बंद कर नितिन गडकरी को आगे बढ़ाया हो लेकिन गडकरी भी आडवाणी व डी-4 की छाया से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। जहां एक ओर उनके सारथी अनंत कुमार बने हैं वहीं दूसरी ओर उनके हर फैसले पर आडवाणी और डी-4 की छाप साफ दिख रही। चाहे राम जेठमलानी को राज्यसभा में भेजने का मामला हो या जसवंत की ही वापसी का मामला हो या फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली छुट देने का।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि दोनों नेताओं पर जो कार्रवाई हुई थी वह उचित थी या वे अनुचित थे जिन्होंने कार्रवाई की थी। या भाजपा और संघ की जिन्ना पर सोच बदल गई है। या फिर आडवाणी के कद के समक्ष संघ बौना हो गया है। भविष्य में भाजपा व संघ को इन सवालों का जवाब देना ही होगा नहीं तो जिन्ना का भूत उसका यूं ही पीछा नहीं छोड़ेगा।

ब्रजेन्द्र नाथ सिंह

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