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16.6.10

कटघरे में न्याय-ब्रज की दुनिया

अपराधियों को कटघरे में खड़ा करने वाली न्याय-प्रणाली इन दिनों हमारे देश में खुद ही कटघरे में है.पहले विश्व इतिहास की सबसे भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस दुर्घटना मामले में और उसके बाद बहुचर्चित कुडको हत्याकांड में आये फैसलों ने हमारी न्याय-प्रणाली पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है.भोपाल दुर्घटना ने पूरे एक शहर को तबाह कर दिया था.फ़िर भी न्यायालय ने निर्णय देने में २४ साल लगा दिए.इन चौबीस सालों में पहले तो हमारे राजनेताओं ने मुख्य अभियुक्त एंडरसन को अमेरिका भगा दिया और बाद में भी हम उसे न्याय के कटघरे में खड़ा नहीं कर पाए.जो अभियुक्त उपस्थित थे उन्हें भी मात्र दो साल की सजा मिल पाई.आगे वे जब उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में जायेंगे तो अगर सजा कम या निरस्त नहीं हुई तब जाकर उन्हें दो साल के लिए जेल भेजा जा सकेगा.इस प्रक्रिया में भी शायद एक और दशक लग जाए.इतना ही नहीं इस मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट ने मुक़दमे की धारा बदलने का आदेश दिया जिससे सजा १० साल के बदले २ साल ही मिल पाई.जब भी किसी बड़े आदमी से जुड़े मामले उच्च या उच्चतम न्यायालय में लाये जाते हैं तो हमेशा उन्हें राहत मिल जाती है.आखिर क्या रहस्य है इसका?क्या वहां भी पैसों का लेन-देन करके फैसले नहीं लिए जाते?दिनाकरन जैसे जजों को भ्रष्टाचार सिद्ध हो जाने पर भी हटाया नहीं जा सकता क्योंकि हमारे संविधान में उन्हें हटाने का सिर्फ एक ही रास्ता बताया गया है और वह महाअभियोग का मार्ग जो इतना कठिन है कि आज तक किसी को इस तरीके से हटाया ही नहीं जा सका है.क्या संविधान में संशोधन नहीं किया जाना चाहिए और ऐसा प्रावधान नहीं किया जाना चाहिए जिससे भ्रष्ट जजों को हटाना असंभव न रह जाए?हमारी न्याय प्रक्रिया बहुत ही उलझाऊ है.औसतन एक मुकदमें के निपटारे में १५ साल लग जा रहा है.लम्बा समय लगने के कारण न्याय पाना काफी खर्चीला भी है जिसका बोझ कोई गरीब या निम्न मध्यवर्गीय परिवार नहीं उठा सकता.ऐसे में न्यायपालिका की विश्वसनीयता ही खतरे में है.झारखण्ड के बहुचर्चित कुडको हत्याकांड में कल ३६ साल बाद शिबू शोरेन को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया.जब इतने लम्बे समय तक मुकदमा चलेगा तो न तो गवाह ही जीवित रहेंगे न ही पीड़ित.कभी-कभी तो निर्णय आने तक सभी अभियुक्त भी परलोक सिधार चुके होते हैं.इस तरह तो शायद कसाब जैसा अपराधी भी बरी हो जाए.क्या अर्थ है ऐसे न्याय का?क्या औचित्य है न्यायालय और कानून का और क्या मतलब है लोकतंत्र का?कभी-कभी तो देखने में आता है कि किसी कर्मचारी को ७५० रूपये के लिए न्याय पाने में २०-२५ साल लग गए.इतने सालों बाद वह ७५० रूपये लेकर भी क्या करेगा?क्या मिलेगा अब इतने पैसे में?इतना ही नहीं भारत दुनिया का ऐसा एकमात्र देश है जहाँ न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं?यानी उम्मीदवार ही उम्मीदवार को चुनता है.सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की गलत व्याख्या करके यह अधिकार जबरन अधिकृत कर लिया है.कुल मिलाकर न्यायपालिका में और न्यायप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है और इस काम विलम्ब की अब कोई गुंजाईश नहीं रह गई है.साथ ही आवश्यकता है इस तरह की व्यवस्था करने की जिससे उद्योगों पर समुचित निगरानी रखी जा सके और ऐसी व्यवस्था करने की जिससे पुलिस जैसी जाँच एजेसियाँ सही तरीके से अपना काम करें.हमारा पूरा तंत्र सड़-गल गया है और पूरे देश को भ्रष्टाचार की दीमक चट करती जा रही है.भ्रष्टाचार को पूरी तरह से रोकने के लिए भ्रष्टाचार से सम्बंधित कानून को सख्त बनाना होगा और यह सुनिश्चित भी करना होगा कि उन्हें समय पर समुचित दंड मिल सके.जब कानून का पालन ही संभव नहीं तो ऐसे कानून के होने या न होने का क्या मतलब?देश में निरंतर आक्रामक रूप से बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में निदा फाजली ने क्या खूब कहा है-हाथ में नक्शा लेकर था बच्चा हैरान,चट कर गई दीमक कैसे उसका हिंदुस्तान.

2 comments:

Anonymous said...

बहुत सच है आपके लेख में, ढेर सारे प्रश्‍न हैं लेकिन जवाब सबका एक ही है, मुख्‍य तौर पर भ्रष्‍टाचार। मैं स्‍वयं न्‍यायपालिका/न्‍यायालय द्वारा विगत कई वर्षों से पीडि़त हूँ, एक सड़े से केस 138बी के लिये जज महोदय द्वारा नियमानुसार अपराधी को भेजा जाने वाला नोटिस अपराधी द्वारा पुलिस को कुछ बीस-पचास रूपये देकर के वापस भिजवा दिया जाता है वह भी एक दो बार नहीं साढ़े तीन साल तक यही नाटक चलता रहा है लेकिन फिर भी जजों को यह नहीं लगता है कि उनकी, उनके ही पुलिस द्वारा बदतमीजी करते हुए उनके जारी किये गये नोटिस को वापस उनके ही मुँह पर फेंक कर मारा जा रहा है। सिलसिला बदस्‍तुर जारी है लेकिन न्‍याय के लिये दरख्‍़वास्‍त करने वाला पछता रहा है कि किस घड़ी विचार किया था न्‍यायालय से न्‍याय पाने का? जहॉं जजों को अपनी खुद की बेइज्‍जती की परवाह नहीं है कि उनके ही पुलिस वाले ... ।
मेरी तो तमन्‍ना है कि इन कानून के पुलंदों में से कोई एक बुजुर्ग जज, अपने जवान बेटे की अर्थी सजाता हुआ किसी शमशान में रो रहा हो उससे पूछूं कि हे जज! क्‍या तुझे मालूम है कि अभी शव जलाने के लिये तूने अपने मरे बेटे को जिन लकड़ी के गट्रठर पर रखा है उस लकड़ी के उपर सरकारी और गैर सरकारी कितने टैक्‍स का कुल भुगतान हुआ होगा ? तू तो कानून की किताबों का पुलंदा है ज़रा बता तो टैक्‍स का कुल जमा नामें।
शायद वह सिर्फ कानूनी टैक्‍स रेट ही बतायेगा, उसे वह अनगिनत टैक्‍सेज़ नहीं मालूम होंगी जो हाईड की हुई होती है।
मसलन जिस जंगल से वह लकड़ी काटी गई हैं वहॉं किया गया अवैधानिक भुगतान जिसे रिश्‍वत कहा जा सकता है।
जिस ठेकेदार द्वारा ठेका लेते समय उपरी तौर पर किया गया भुगतान जिसे भी रिश्‍वत कहा जा सकता है।
क्‍लू दे दिया हूँ और ऐसे सभी ढेर सारे अवैधानिक भुगतानों के अलावा कानूनन टैक्‍सेज़ में भी समस्‍त भुगतान मसलन इंकमटैक्‍स, ट्रांसपोर्टेशन पर सर्विस टैक्‍स आदि इत्‍यादि सभी जोड़कर कुल कितनी जायज नाजायज टैक्‍सेज़ इस लकड़ी के गट्रठर पर लगी है शायद नहीं बता पायेगा।
फिर काहे का कानून का ज्ञाता ?

ब्रजकिशोर सिंह said...

श्रीमान मुझे आपसे सहानुभूति है.मैं और मेरा परिवार खुद न्याय में देरी का भोक्ता है.मैंने जमीन का मुकदमा लड़ने के दौरान न्यायालय में व्याप्त भ्रष्टाचार को गहराई से महसूस किया है और इसके चलते काफी नुकसान भी उठाया है.लेकिन जब राष्ट्र का प्रत्येक क्षेत्र इस रोग से बुरी तरह से ग्रस्त हो चुका है तो न्यायपालिका भला कैसे अपवाद हो सकता है?इसलिए भ्रष्टाचार पर मरणान्तक प्रहार करने की जरूरत है.साथ ही न्याय में देरी रोकने के लिए कानूनों में और न्यायिक प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन करने की सख्त आवश्यकता है.न्यायालय जनता के लिए आखिरी चौखट होते हैं.यहाँ से निराशा हाथ नहीं लगनी चाहिए.ऐसा होना लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होगा.