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25.6.10

लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस

आपातकाल के दौरान संविधान के साथ हुए खिलवाड़ का स्मरण कर रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश
25 जून आपातकाल की वर्षगांठ है। आपातकाल जिसे दूसरे शब्दों में तानाशाही भी कह सकते हैं, 19 महीने तक जारी रहा। कांग्रेस के विरोधी राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया था, मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था, मीडिया पर सेंसरशिप थोप दी गई थी और लोकतंत्र पर पर्दा डाल दिया गया था। कांग्रेस द्वारा फैलाए गए आतंक ने संसद को रबर स्टांप बना दिया था और यहां तक कि न्यायपालिका भी इस अत्याचार के खिलाफ खड़ी नहीं हुई थी। आपातकाल की कहानी बहुत लंबी है, जिसे एक अध्याय में नहीं समेटा जा सकता। इसकी व्याख्या राष्ट्र के प्रत्येक अंग से संबंधित अध्यायों में अलग की जा सकती है। फिलहाल हम मात्र एक घटक-संविधान पर आघात की चर्चा कर रहे हैं। आपातकाल की कहानी न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा के एक फैसले से शुरू होती है, जिन्होंने 1971 में रायबरेली लोकसभा चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया और उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। न्यायाधीश ने पाया कि उन्होंने निर्वाचन कानूनों के बहुत से प्रावधानों का उल्लंघन किया है। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जहां से उन्हें सशर्त स्टे मिल गया। न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने उन्हें संसद में जाने की तो अनुमति दे दी, किंतु बहस और मतदान में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया। उन्होंने यह मामला बड़ी पीठ के पास भेज दिया। अब इंदिरा गांधी के पास यही चारा रह गया था कि पीठ का फैसला आने तक वह इस्तीफा दे दें, किंतु अपने परिजनों और खुशामद करने वालों के कहने पर उन्होंने न्यायपालिका को चुनौती देने की ठान ली। संविधान के एक कभी इस्तेमाल न किए जाने वाले प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने आंतरिक उपद्रव से निपटने के नाम पर आपातकाल थोप दिया। उन्होंने राष्ट्रपति से संवैधानिक अधिकार स्थगित करने और संघीय सरकार को असीमित अधिकार देने की घोषणा करवा ली। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के साथ देर रात वार्ता के बाद अधिघोषणा जारी की। इस संबंध में मंत्रिमंडल में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया, बल्कि अगली सुबह मंत्रिमंडल को मात्र सूचना दी गई। 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने आदेश जारी किया, जिसमें नागरिकों को मूल अधिकारों के उल्लंघन पर अदालत में जाने से वंचित कर दिया गया। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समता और संरक्षण), अनुच्छेद 21 (कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित न करना) और अनुच्छेद 22 (आधार की सूचना दिए बिना गिरफ्तारी) के तहत आम आदमी को दिए गए हैं। इस आदेश के प्रभाव से नागरिकों से जीवन और स्वतंत्रता का मूलाधिकार छीन लिया गया। बाद में उन्होंने अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता की बहाली के लिए अदालत में जाने के अधिकार को भी स्थगित कर दिया। इस तरह तानाशाही की बुनियाद रख दी गई। इसके तुरंत बाद 38वें संशोधन द्वारा संविधान पर आघात जारी रखा गया, जिसने राष्ट्रपति की घोषणाओं और मूलाधार का उल्लंघन करने वाले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों पर अदालती हस्तक्षेप खत्म कर दिया। तब 39वां संशोधन आया, जिसने सुप्रीम कोर्ट को प्रधानमंत्री के निर्वाचन पर सुनवाई से रोक दिया। इसे पारित करने में बेहद जल्दबाजी की गई। यह संशोधन भारत के इतिहास में सबसे तेजी के साथ किए गए संशोधन के रूप में कुख्यात है। इसे 7 अगस्त, 1975 को लोकसभा में पेश किया गया और उसी दिन मात्र दो घंटे की बहस के बाद यह पारित हो गया। 8 अगस्त, 1975 को राज्यसभा में पेश किया गया और फिर से उसी दिन पारित कर दिया गया। 9 अगस्त, शनिवार को तमाम प्रदेश विधानसभाओं का सत्र बुलाया गया और इस पर मुहर लगवा ली गई। 10 अगस्त, 1975 को रविवार के दिन इसे राष्ट्रपति की सहमति मिल गई। इस तेज रफ्तार का राज यह था कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट को 11 अगस्त, 1975 को इंदिरा गांधी के मामले में सुनवाई से रोकना चाहती थी। अफसोस की बात यह है कि इस रफ्तार पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक नियंत्रण मौजूद नहीं था। अपने नेता को कानून से ऊपर स्थापित करने के लिए कांग्रेस इतनी बेकरार थी कि इसने लापरवाही और निरंकुशता की सभी हदें पार कर दीं। राज्यसभा में 39वां संशोधन पारित होने के अगले ही दिन 9 अगस्त को सरकार ने 41वें संशोधन को पेश कर दिया। इस दौरान संसद एक बंधक विधायी मशीन बनकर रह गई, जो एक व्यक्ति-प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पक्ष में संविधान संशोधन पर मुहर लगाती चली गई। इस संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री को हास्यास्पद रूप से कानून से ऊपर स्थापित करने की अवधारणा ने जन्म लिया। इसमें कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति के कृत्यों के खिलाफ अदालती कार्यवाही नहीं की जा सकती जो प्रधानमंत्री है या रह चुका है। ये कृत्य कार्यकाल के दौरान या इससे पहले के हो सकते हैं। इस संशोधन ने हमारे संविधान की बुनियाद ही हिला डाली, क्योंकि कानून के समक्ष समता और सभी कानूनों को समान रूप से लागू करना लोकतांत्रिक संविधान का मूल ढांचा है। राज्यसभा द्वारा अनावश्यक जल्दबाजी दिखाते हुए इस संशोधन को पारित करने के बावजूद सौभाग्य से इस पर पुनर्विचार हुआ और निचले सदन में इसे पेश नहीं किया जा सका। इसी दौरान 40वां संशोधन भी पारित हुआ, जिसने मीडिया विरोधी कानून बनाया। 42वें संशोधन ने लोकतांत्रिक संविधान के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। इसका प्राथमिक उद्देश्य न्यायपालिका के पर कतरना था। इसमें कहा गया कि संविधान में संशोधन का संसद को असीमित अधिकार है और किसी भी अदालत में किसी भी आधार पर इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका मतलब यह हुआ कि संसद को संविधान को कायम रखने या नष्ट करने का निरंकुश अधिकार हासिल है। 42वें संशोधन के दो और आपत्तिजनक पहलू थे। एक तो इसने संविधान संशोधन के लिए निर्धारित न्यूनतम समर्थन का प्रावधान खत्म कर दिया। इस प्रकार मुट्ठीभर कांग्रेस सांसदों के लिए यह संभव हो गया कि वे देर रात को संसद में बैठकर अपनी मर्जी से देश के लिए कानून बनाते रहें। दूसरे, इसने राष्ट्रपति को कार्यकारी आदेश द्वारा संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की शक्ति दे दी। इतिहास गवाह है कि हिटलर और मुसोलिनी उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने संविधान की इस प्रकार की शक्तियों को हासिल किया था। इन संशोधनों के द्वारा संविधान की आत्मा कुचल दी गई और भारत में तानाशाही का सूत्रपात हुआ। सौभाग्य से, मार्च 1977 में लोगों ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका। सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने इन असंवैधानिक संशोधनों को वापस लेकर संविधान में लोकतांत्रिक मूल्य फिर से स्थापित किए। विडंबना यह है कि लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस को अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है। इसके विपरीत बहुत से नेता यह दलील रखते हैं कि कांग्रेस के पास आपातकाल थोपने के अलावा कोई चारा नहीं था। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक jagran

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