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23.6.10

देवदूत नहींथे राजीव गांधी

राजीव गांधी की आलोचना को अपराध बताने के कांग्रेस के रवैये पर हैरत जता रहे हैं राजीव सचान
भोपाल गैस त्रासदी को लेकर गठित मंत्रियों के समूह ने प्रधानमंत्री को अपनी रपट सौंप दी। इस रपट की सिफारिशों पर चाहे जितनी तत्परता और दृढ़ता से अमल किया जाए उस क्षति की भरपाई होने वाली नहीं है जो गैस पीडि़तों की 25 वर्ष तक अनदेखी के कारण हुई? इस अनदेखी के लिए भारतीय लोकतंत्र के तीनों प्रमुख स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि इन तीनों में से किसी ने गैस पीडि़तों के प्रति अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी का निर्वाह किया होता तो शायद 7 जून 2010 को भारत को शर्मिदगी नहीं झेलनी पड़ती। इस दिन भोपाल की अदालत ने गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले लोगों को जो सजा दी उससे भारत न केवल अपने, बल्कि दुनिया के लोगों की नजरों में भी शर्मसार हुआ। वस्तुत: इस दिन भारत कलंकित हुआ। यह कलंक आसानी से धुलने वाला नहीं-भले ही वारेन एंडरसन को भारत लाकर सलाखों के पीछे क्यों न भेज दिया जाए। एक तो ऐसा करना सहज संभव नहीं और यदि लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद एंडरसन को भारत लाने में सफलता मिल भी जाती है और तब तक वह जीवित बना रहता है तो उसे कोई कठोर सजा शायद ही दी जा सके। यदि ऐसा हो भी जाए तो लाखों गैस पीडि़तों को राहत नहीं मिलने वाली। दरअसल संतोष तो तब होता जब गैस पीडि़तों को मामूली राहत देकर उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता और एंडरसन एवं अन्य लोगों को घटना के चार-छह वर्ष के अंदर पर्याप्त सजा सुना दी जाती। दुर्भाग्य से ये दोनों काम नहीं हुए। गैस पीडि़तों की अनदेखी उतनी ही पीड़ादायक है जितना यह देखना-सुनना कि गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों को 25 साल बाद दो-दो साल की सजा जमानत के साथ मिली और ऐसे लोगों में एंडरसन का नाम शामिल न होना। संभवत: देश में गुस्से की लहर इसलिए उमड़ी, क्योंकि अदालत के फैसले के साथ ही उसे यह पता चला कि एंडरसन को गुपचुप रूप से रिहा करने के बाद ससम्मान दिल्ली भेजा गया ताकि वह आसानी से अमेरिका जा सके। जब देश में गुस्से की लहर थी तब केंद्रीय सत्ता गैर जिम्मेदारी और राजनीतिक अपरिपक्वता का अभूतपूर्व प्रदर्शन कर रही थी। यह शर्मनाक प्रदर्शन अभी भी जारी है और सिर्फ इसलिए कि एडंरसन के बाहर जाने में राजीव गंाधी का नाम सामने आ रहा है। कांग्रेस के नेताओं ने इसके लिए पूरी ताकत लगा रखी है कि किसी तरह राजीव गांधी का नाम न उछलने पाए। पार्टी के प्रवक्ता से लेकर केंद्रीय मंत्री तक ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे राजीव गांधी ईश्वरीय अवतार हों और उनकी आलोचना करना ईशनिंदा करने के समान हो। जिन लोगों ने यह कहा अथवा संकेत भी किया कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की सहमति रही होगी उन्हें स्वार्थी और झूठा ही नहीं, बल्कि राष्ट्रविरोधी तक कहा गया। कांग्रेस का नजला अभी भी उन सब पर गिर रहा है जो एंडरसन की फरारी में तत्कालीन केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह यह अच्छी तरह बता सकते हैं कि एंडरसन को किसके इशारे पर छोड़ा गया, लेकिन वह सार्वजनिक रूप से कुछ कहने से बच रहे हैं। किसी स्वाभिमानी और जनता के प्रति जवाबदेह शासन वाले देश में अर्जुन सिंह या तो अब तक गिरफ्तार कर लिए गए होते अथवा उन्हें सच बयान करने के लिए विवश किया जा चुका होता। यह मजाक नहीं तो और क्या है कि अर्जुन सिंह यह कह रहे हैं कि वह सारी सच्चाई अपनी आत्मकथा में बयान करेंगे? वह कुछ भी कहें, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि एंडरसन गिरफ्तार होने के बाद रिहा होकर देश से बाहर चला जाए और प्रधानमंत्री को इसकी भनक तक न लगे। जो यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी और न हो सकती थी वह या तो देश को बेवकूफ समझ रहे हैं या बेवकूफ बना रहे हैं। सच तो यह है कि इसे एक तथ्य के रूप में प्रचारित करना राजीव गांधी के लिए कहीं अधिक अहितकर है कि उनकी जानकारी के बगैर एंडरसन देश से निकल गया। यदि एंडरसन की फरारी के पीछे केंद्र सरकार की कहीं कोई भूमिका नहीं थी, जैसा कि कांग्रेस साबित करना चाहती है तो इसका मतलब है कि अमेरिका ने तत्कालीन केंद्रीय सत्ता को दरकिनार कर मध्य प्रदेश शासन को अपने दबाव में ले लिया। यदि ऐसा कुछ हुआ था तो यह तत्कालीन केंद्रीय सत्ता के लिए और अधिक शर्मनाक है। आखिर कांग्रेस को अपनी गलती मानने में इतना कष्ट क्यों हो रहा है? क्या राजीव गांधी कोई गलती नहीं कर सकते थे? जब गांधी जी और नेहरू जी की उनकी गलतियों के लिए आलोचना की जा सकती है तो फिर राजीव गांधी की क्यों नहीं? क्या यह कहना सही होगा कि बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो कोई गलती की ही नहीं? क्या श्रीलंका में भारतीय सेनाओं को भेजने का उनका निर्णय विवादास्पद नहीं था? क्या वह प्रेस को दबाव में लाने के लिए मीडिया पर केंद्रित एक मानहानि विधेयक लाने नहीं जा रहे थे? सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने वाले लोगों को अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि भारतीय परंपरा में यह एक तरह से निषेध है कि गुजरे हुए लोगों की आलोचना करने से बचा जाता है, लेकिन यह कोई नियम नहीं है और इसका प्रमाण गांधी और नेहरू पर लिखी गईं वे तमाम पुस्तकें हैं जिनमें उनकी नीतियों और निर्णयों को लेकर तीखी आलोचना की गई है। चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बाद जो कुछ हुआ वह किसी त्रासदी से कम नहीं इसलिए तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों को खेद प्रकट करने में संकोच नहीं करना चाहिए। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण