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10.7.10

कलम से संवाद

क्यों लिख दूं कुछ ?
क्यों करूं पन्नों को स्याह
क्या मिलेगा आखिर ?
शब्दों से मिल सकेगी मेरी आह को राह
जरूरत दर जरूरत इंसान बदल रहा है
पर वो बदलाव जो आना चाहिए, कहां है ?
तुझे नहीं दिखता, मुझे नहीं दिखता
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां, कहां है ?

लिखने भर से क्या बदल जाएगा बोल
क्या घाटी में कभी शांति के गुल खिलेगें
मजहब की खातिर कत्लोआम करते
मजहब के लुटेरे कब सच्चे मसीहा से मिलेगें
कहां है तेरा अल्लाह, कहां छिपा है भगवान
क्यों देखता नहीं, प्यार की छाती है लहूलुहान
जाति, धर्म, समाज, रूढ़ियां आगे बढ़ गई
हाय, कितना पीछे रह गया ये इंसान

क्यों लिख दूं बोल, आखिर क्या बदलने वाला है
सरेआम नारी के तन से खींचा तूने दुशाला है
महंगाई महंगी, भूख सस्ती, आदमी की कीमत नहीं
बोल कैसे भाग निकला भोपाल कांड का हैवान
आम आदमी बन गया रे बेहद आम
निज स्वार्थ की सूली पर झूल रहा सम्मान
हां, स्वाधीनता हाथों में, बस चल बसा स्वाभिमान

कलम बोली, तू चुपकर, लिख, लिख लिखती जा
घिस मुझको, घिसघिस कर ही कुंदन बन पाएगा
हथियार बना मुझे, देख समय पलटकर आएगा
संघर्ष की बेदी पर ही आजादी का हार मिला
माटी पर कुर्बान जवानों को अनमोल प्यार मिला
निराशा, हिंसा, घात, प्रतिघात से
कुछ नहीं बन पाएगा
तीखे शब्दों के उजास से
इक दिन नया सवेरा खिलखिलाएगा




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