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28.8.10

ब्यूटी का बाज़ार या बाज़ार की ब्यूटी....?

इसे माया की विडम्बना कहें या विडम्बना की माया, चकाचौंध से भरी फैशन और खूबसूरती की दुनिया के पीछे भी जो माया रची जाती है उसमें बाज़ार का एक बना बनाया फ़ॉर्मूला काम करता है। हमारे लिए इस माया कि विडम्बना यह है कि इसने पिछले कुछ सालों में हमारे देश की महिलाओं की पूरी सोच और समझ को ही बदल के रख दिया है ।

आज इस विषय पर बात इसलिए कर रही हूँ क्योंकि हाल ही में मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में भारतीय सुन्दरी फिर से अपना कोई स्थान नहीं बना पाईं। सवाल यह है की अब भारतीय सुन्दरियों की खूबसूरती कम हो गयी या फिर इस देश का बाज़ार मिल गया तो यहाँ की खूबसूरती को कोई स्थान देने की ज़रुरत नहीं रही.......?


ज़रा याद कीजिये नब्बे के दशक का वो नज़ारा जब भारतीय सुंदरियों ने इन प्रतियोगिताओं में वर्चस्व कायम किया था। एक साल में तीन ख़िताब भारत के झोली में आये और अगले कुछ बरसों तक भारतीय प्रतिभागी अपनी जगह शीर्ष विजेताओं में पातीं रहीं।

लेकिन २००० के बाद से भारत से गयी कोई भी प्रतिभागी इन प्रतियोगिताओं में शीर्ष स्थान तक नहीं पहुंची। तो क्या अंतर्राष्ट्रीय कॉस्मेटिक कंपनियों की सोची समझी रणनीति के तहत किसी देश की प्रतिनिधि इन प्रतियोगिताओं में अपना स्थान बनाती है ? विकसित देश तकरीबन हर बात में हमारे जैसे देशों को इस्तेमाल कर अपना हितपोषण करते आये है तो फिर ब्यूटी प्रोडक्ट्स के इतने बड़े बाज़ार को हाथ से कैसे जाने देते। शायद इसीलिए कुछ सालों पहले खूबसूरती के कई ख़िताब हमारी झोली में डालकर एक बड़ा बाज़ार अपने हिस्से में ले लिया।


मुझे सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात यह लगती है की ब्यूटी की उस सोची समझी बयार ने हमारे देश में और खासकर महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए। यकायक सुन्दरता के मायने बदल गए। आँखें कैसी हों...... कमर का माप इतने से ज्यादा न हो....... पेट सपाट ही हो...... वगैरह वगैरह............सुन्दरता में इजाफा करने और चिरयुवा बने रहने की ऐसी चाहत हर महिला के मन घर कर गयी जो पहले शायद इतनी नहीं थी। गली-गली में सौंदर्य प्रतियोगिताएं होने लगीं। अचानक सुन्दरता की कुछ ऐसी हवा चली जिसने मानो सीरत की खूबसूरती के मायने ही ख़त्म कर दिए। वैवाहिक विज्ञापनों में स्लिम और स्मार्ट जैसे शब्द प्रमुखता से जगह पाने लगे। बाजारी ताकतों ने भी बदलाव के इस दौर में खूबसूरती के इस हथियार का महिलाओं के खिलाफ जमकर प्रयोग किया और आज तक कर रहीं है।

इस दौरान ऐसा माहौल कुछ ऐसा भी बना की कॉस्मेटिक कंपनियों ने विज्ञापनों में आम महिलाओं को यह सन्देश देना शुरू कर दिया की अगर वे सुन्दरता के इन मापदंडों पर खरी न उतरीं कहीं पीछे छूट जाएँगी। उन्हें बताया जाने लगा की उनका व्यक्तित्व जो भी है.................जैसा भी है....... काफी नहीं है........! यानि की सीधा सा सन्देश दिया गया कि कुछ खास ब्यूटी प्रोडक्ट्स इस्तेमाल कर खुद को सबसे अलग और खूबसूरत दिखाया जा सकता है।
मैं मानती हूँ की हर इन्सान की अपनी एक शख्सियत होती है। ऐसे में एक खास बॉडी इमेज को पाने की चाह इन्सान को शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से बीमार बना देती है। हमारे समाज में भी महिलाएं सौंदर्य इस जल में फंसकर कई तरह की हीन भावना और असंतोष का शिकार हो रही हैं। यह बात और है अब देश में ब्यूटी के ख़िताब भले ही नहीं आते पर बाज़ार और उसकी पैदा कि हुई सोच बरकरार है। सवाल सिर्फ यह कि अपना बाज़ार बनाने के लिए इन कंपनियों द्वारा अपनाई गयी ग्लोबल रणनीतियों का खामियाजा इस देश की महिलाएं दिमागी और शारीरिक सेहत ख़राब करके क्यों चुका रहीं है ? इस बारे में आप सब क्या कहते हैं.............? ज़रूर बताएं।

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