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17.9.10

हमारा व्यवहार कैसा हो सिखाती है हिंदी

ऐसा क्यों होता है कि एक घर में जन्मी बेटियों में कोई एक तो संस्कारों के शिखर पर होती है, लेकिन बाकी छोटी बहनें उसके इन संस्कारों को अपना नहीं पाती। हम सबकी भाषा हिंदी मुझे ऐसी ही बड़ी बहन लगती है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को गोद में उठाए, दुलारते हुए आगे बढ़ती जा रही है। मान-सम्मान की अपेक्षा से दूर रहकर अपने काम से काम रखना ङ्क्षहदी से सीखा जा सकता है। हम यह भी सीख सकते हैं कि अपना ध्यान काम करने में लगाएंगे तो सम्मान खुद हमें तलाशता पीछे-पीछे चला आएगा।

एक परिचित की तीन बेटियां हैं। तीनों ही संस्कारित, लेकिन उनमें बड़ी बेटी सभी की प्रिय। इसका कारण यह सामने आया कि वह बेहद संतोषी है। सभी को साथ लेकर चलती है। झिड़कियों और अपमान की स्थिति के बाद भी सदा मुस्कुराते रहना, त्याग की स्थिति बने तो अन्य बहनों की अपेक्षा उदारता और त्याग में आगे रहना जैसी खासियत के साथ ही उसका सबसे बड़ा गुण यह कि उसके इन संस्कारों की कोई तारीफ करे न करे अपने काम से काम रखना और जितना बन पड़े लोगों के लिए अच्छा ही करते रहना। अन्य बहनों में न तो ये सारे गुण हैं न ही उन्होंने अपनी बड़ी बहन की अच्छाइयों से कुछ सीखने का उत्साह दिखाया।
एक ही परिवार की इन बहनों में बड़ी बहन में ये सारे संस्कार कैसे आए यह परिजन भी नहीं समझ पाए हैं। बड़ी बहन की इन अच्छाइयों ने मुझे हम सबकी भाषा हिंदी की याद दिला दी। अभी बड़े जोर-शोर से हिंदी दिवस मनाया गया। वक्ताओं ने अपने अंदाज में हिंदी की महानता के जिक्र के साथ ही उसे पर्याप्त मान सम्मान नहीं मिल पाने पर भी अपनी पीड़ा जाहिर की। यह दृश्य लगभग हर साल देखने को मिलते हैं।
छह दशक बाद भी हिंदी की अच्छाइयों की सराहना करने का हमारे पास वक्त भले ही न हो, लेकिन परिवार की उस बड़ी बेटी की तरह हिंदी भी अपने संस्कारों का पालन करती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी के शब्दों के साथ ही उर्दू, पंजाबी, संस्कृत सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनी गोद में उठाए, प्यार-- दुलार के साथ वह आगे बढ़ती जा रही है। जो उससे एक बार मिल लेता है मोहित होकर साथ ही चल पड़ता है। अपने रंग में बाकी भाषाओं के शब्दों को भी रंगती-ढालती चली जा रही हिंदी को कभी इस बात का अफसोस करते नहीं देखा कि उसके प्रति अन्य भाषाएं रंगभेद का नजरिया क्यों रखती हैं।
अन्य भाषा भाषी हिंदी भले ही नहीं सीखना चाहें, लेकिन हिंदी से यह तो सीख ही सकते हैं कि समाज व्यवस्था में बाकी लोगों के प्रति हमारा नजरिया कैसा होना चाहिए। हिंदी के लिए न कोई भाषा छोटी है न उसकी जाति, रंग रूप के प्रति मन में, नजर में हिकारत का भाव रहता है। जो मिला, गले से लगाया, अपना बनाया और चलते रहे। जो सब को साथ लेकर चलते हैं उन्हें कोई सम्मान भले ही नहीं मिले, लेकिन समाज की स्वीकृति जरूर मिलती है। आज की स्थिति ऐसी है कि हर आदमी अपने में मस्त और व्यस्त है। समाज की चिंता उसे भले ही न हो, लेकिन समाज अच्छे लोगों की चिंता भी करता है और बुरा करने वालों की नकेल भी कसता है। बड़ी बहन की अच्छाइयों को अन्य बहनें करती रहें नजरअंदाज, लेकिन समाज उसकी अच्छाइयों को जान- पहचान रहा है और गुणगान भी कर रहा है। ङ्क्षहदी को अन्य भाषाओं में भी आज जो दर्जा और सम्मान मिला है तो उसका मुख्य कारण है खुद उसकी सहजता और सबके प्रति प्रेम भाव। अकड़ और अहं के रथ पर सवारी करने वालों को तो फकीर भी नहीं देखते। दक्षिण के राज्यों में आज से तीन चार दशक पहले तक हिंदी के प्रति जितना तीव्र विरोध था अब वैसी स्थिति नहीं है तो इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी रोजी और रोजगार की भाषा भी बन चुकी है। दुकानदार हिंदी न बोलना चाहे, लेकिन ग्राहक हिंदी के अलावा अन्य कोई भाषा न जानता हो तो दुकान मालिक की बाध्यता होगी कि वह अपनी बात ग्राहक को उसकी भाषा में समझाने का प्रयास करे। अन्य देशों के टूरिस्ट जब हमारे शहरों में आते हैं तो वो हमारी भाषा बोल नहीं पाते लेकिन हम उनकी भाषा टूटी फूटी बोल कर, या किसी अन्य की मदद से अपनी बात समझा कर ग्राहक को जाने नहीं देते।
क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनाने में हिंदी जैसा बड़पन क्या हमारे रोजमर्रा के कार्य व्यवहार में नजर आता है? हम अपने में मस्त रहते हैं। हम यह भी समीक्षा नहीं करते कि लोगों के साथ हमारा व्यवहार कैसा था। हम तो इसी मीमांसा में लगे रहते हैं कि लोगों ने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया। नतीजा यह होता है कि हमारा भाव हमेशा 'जैसे को तैसाÓ वाला ही होता है। इससे नुकसान भी हमारा ही होता है। यदि हिंदी ने भी जैसे को तैसा वाली नीति अपनाई होती तो, नुकसान भी उसी का होता। अंग्रेजी के शब्दकोष में हिंदी के शब्दों को सम्मान नहीं मिल पाता। दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए पहली शर्त तो यही है कि दूसरों के प्रति हमें अपने नजरिए में बदलाव लाना होगा। वो बड़ी बहन सभी को प्रिय इसलिए बन गई कि उसने सभी के प्रति अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखा, उपेक्षा की अनदेखी करने के साथ ही कभी सम्मान की अपेक्षा नहीं की। हिंदी का यह निरपेक्ष भाव हमें कम से कम यह तो सीखाता ही है कि हम सम्मान की चाह के बिना काम करेंगे तो सम्मान खुद राह तलाशता हमारे पीछे पीछे चला आएगा।

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