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9.10.10

कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला... तितली - मतवाला और मैं


कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............

कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............


मैं बालकोनी से झांक कर उसे देखता हूँ – साइकिल पर वज़न लादे – वो खड़ा है – मलीन कपड़ों में. एक लोहे के डंडे को आलम्ब देकर उसने साइकिल को खड़ा किया है. और सुरती बनाते बनाते – चिल्ला रहा है कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............
           सच, अगर ये कबाडी वाले न हो तो – पत्ता नहीं हमारा घर कितने कबाड से अट्टा-पट्टा रहे. कित्ते ही.... आप सोच कर देखिये........ क्या क्या नहीं ले जाता ये. बस हमारी दुःख तकलीफों को छोड़ कर. और शायद ये हमारे दुःख और दुस्वपन भी ले जाता है. आपकी बुरी यादें - वो कोर्स की विज्ञान और गणित कि किताबे जो नहीं पढ़ पाए. जिन किताबों को देखते ही दृष्टि तुरंत अपनी हथेलियों पर चली जाती है – कित्ते ही डंडे मारे थे – गणित के सरजी ने, वो सभी किताबे ले जाने को उद्दत है ये. नव यौवन के उस जज्बाती कालखंड में माशूक ने जो कविताओं की किताब आपको दी थी – प्रथम पृष्ठ पर अपने जज्बात लिख कर. जो घर के एक सुरक्षित स्थान पर रखी रखी आपको घूरती रहती है – चैन नहीं देती – सोने नहीं देती. तुलवा कर इस कबाडी को दे दो – एक दो सिगरेट या फिर चाय के पैसे मिलेंगे सो अलग और चैन कि नींद का आनंद अलग.


उसके झोले जो साइकिल के दोनों और झूल रहे है -  उसमे कुछ हिंदी के पुराने नोवेल झांक रहे थे..... मैं तुरंत नीचे उतरा और – उसका झोला उलट दिया......... मतवाला: लेखक-लोकदर्शी, पत्थर दिल और गुनाह – आदिल रशीद, उज्जली सुबह – लेखक मीनाक्षी माथुर, पाषाण पंख - लेखक नानक; ये सभी उपन्यास हार्ड बाइंडिंग में थे और सबसे उलेखनीय और सबसे बुरी दशा में जो था वो - जय शंकर प्रसाद कृत तितली का. अपने पुराने स्वरुप में मिला. ये सभी उपन्यास लगभग १९७०-७४ तक के काल में प्रकाशित हुए थे.  किसी लाइब्रेरी के थे – रद्दी वाले ने ढंग से जवाब नहीं दिया. 
        मैंने मूल्य पुछा – तो वो बोला की एक सरदार जी हैं – जिनकी पुरानी किताबों कि दूकान है – वो दस रुपे प्रति किताब के हिसाब से खरीदते हैं. जाहिर है – मैंने उसको पैसे दिए और उपन्यास कब्ब्जे में लेकर आ गया.


दुनिया घर से कबाड निकल कर बेचती है और साहब रद्दी उठा कर घर ले आये.
ज़ाहिर है होम मिनिस्टर के ये वक्तव्य आपका इन्तेज़ार कर रहे है.  
      ये उपन्यास पढ़ने ने के लिए क्या चाहिए ? शमशान के पीछे की शांति, तम्बाकू कि पुडिया और इसके  के साथ चाय के कप मिल जाए तो कहना ही क्या ?


लोकदर्शी : जाहिर सी बात है की उनका असली नाम नहीं होगा. असली नाम मालूम भी नहीं पड़ा.मतवाला – पढ़ने पर ब्लैक & व्हाइट कोई चलचित्र दिमाग में घूमने लगा. बढिया कथानक था - देवानंद या फिर धर्मेन्द्र का कोई हीरो, जो मतवाला सतीश” है मस्त आदमी है और मस्ती में फंस जाता है चक्रव्यूह में – और अपनी सादगी और दरियादिली से निकल भी आता है.  लोकदर्शी का लिखने का ढंग ऐसा ही कि पूरा उपन्यास ही आँखों के सामने चलचित्र की मानिंद घूमता रहता है.
जय शंकर प्रसाद कृत तितली –  अंग्रेजी हुकूमत के समय में ग्राम्य पृष्ठभूमि वाला उपन्यास है ये. प्रेमचंद के किसी भी उपन्यास जैसा ही.
      कहानी एक नारी पात्र – तितली को लेकर लिखी गई है. तहसीलदार, जमींदार, मुंशी और मंदिर के महंत नायक – मधुबन, कहानी के सह पात्र इन्द्रेश की माता इत्यादि.
बढिया कहानी थी ........... अंत तक तितली की छोटी – किन्तु व्यवस्थित गृस्थी पर खत्म होता है.
      सबसे मुख्या बात है – जय शंकर प्रसाद जी ने इस उपन्यास में जो जीवन दर्शन” लिखा है बहुत बढिया है. उपन्यास मैंने बाईडर को दिया है ठीक करने के लिया. अगली पोस्ट में  कुछ पंक्तियाँ वहाँ से टीप कर टाइप करूँगा.

जय राम जी की.


3 comments:

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (11/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कितना गहन साहित्य कबाडी के हाथ चला जाता है ....अच्छी प्रस्तुति

Asha Lata Saxena said...

बहुत सटीक चित्रण किया है |बधाई |
आशा