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15.10.10

sharad kaaleen kavitaayen

य़ह शरद भी ............ है
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काश के फूळॊं पर अपना दन्तुरित हास विखेरती
यह शरदकालीन हवा
टाई और कमीज के भीतर
मेरे वक्शस्थल के सफेद बालों को
सहला जाती है ।

मैं उसे ऐसे देखता हूं
जैसे व्यक्तिगत सचिव बनने के लिये
अन्तर्वीक्शा देने आयी
किसी आतुर उत्कण्ठित बाला का सम्भावनाओं से भरा
कोई आभासी प्रतिबिम्ब !

चली गयी चिलचिलाती धूप की
स्वेदिल दुपहरी,
चले गये सावन-भादों के
श्यामल-नम मास,
फिर से सिमटने लगे हैं
प्लावित नदियों के त्वरण विकल पांव ।

शरद के निरभ्र आसमान की यह शीतल हवा
अपराह्न की पीली धूप पर मचलती है
जैसे
कार्यालय की कालीन पर
अन्तर्वीक्शा की प्रतीक्शारत भावी प्रेयसी के पांव ।

अब और नहीं ;
उठाता हूं टेलीफोन और पूच्हने लगता हूं
वर्गीकरित विग्यांपन की नयी दरें ।

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