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21.12.10

ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??

ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??
एय स्त्री !!बहुत छट्पटा रही हो ना तुम बरसों से पुरुष के चंगुल में…
क्या सोचती हो तुम…कि तुम्हें छुटकारा मिल जायेगा…??
मैं बताऊं…?? नहीं…कभी नहीं…कभी भी नहीं…
क्योंकि इस धरती पर किसी को भी पुरुष नाम के जीव से
मरे बगैर या विलुप्त हुए बगैर छुटकारा नहीं मिलता…
पुरुष की इस सत्ता ने ना जाने कितने प्राणियों को लुप्त कर डाला
पुरुष नाम के जीव की सत्ता की हवस के आगे कोई नहीं टिक पाया
यह तो सभ्यता की शुरुआत से भी शायद बहुत पहले से लडता आ रहा है
तुम तो इसके साथ ही साथ रहती आयी हो,क्या इतना भी नहीं जानती
कि यह लडने के सिवा और कुछ जानता ही नहीं…!!
और अपने स्वभाव के अनुसार यह सबको एक जींस समझता है…!!
तुम भी एक जींस ही हो इसके लिए,बेशक एक खूबसूरत जींस…
और मज़ा यह कि सबसे आसान…और सर्वसुलभ भी…
सदियों से इसकी सहधर्मिणी होने के मुगालते में…
इसकी यौन-ईच्छाओं की पूर्ति का एक साधन-मात्र बनती रही हो तुम
पता है क्यूं…?सिर्फ़ अपनी सुरक्षा के लिए,मगर यह तो सोचो…
कि कभी भी,किसी भी काल में यह सुरक्षा तुम्हें मिल भी पायी…??
कि पुरुष की सुरक्षा,उसके द्वारा बनाए गये देशों की सीमाओं की सुरक्षा के निमित्त
सुरक्षाकर्मियों ने हर युद्द में तुम्हारे मान का चीर-हरण किया…
क्या यह पुरुष पशु था…नहीं…पशु तो ऐसा नहीं करता कभी…!!
नहीं ओ मासूम स्त्री…यह जीव कोई पशु या अन्य जीव नहीं…
यह पुरुष ही है…आदमजात…मर्द…धरती की समुची सत्ता का स्वयंभू स्वामी…
धरती के समस्त साधनों का निर्विवाद एकमात्र नेता…एकक्षत्र सम्राट्…
इसके रास्ते में इसके वास्ते तुम आखिर हो क्या ओ स्त्री…??
तुम्हें सुन्दर कह-कहकर…विभिन्न अलंकारों से विभुषित कर-कर…
तुम्हें तरह-तरह की देवियों के रूप प्रतिस्थापित करके,तुम्हारी बडाई करके
हर प्रकार के छल-कपट का सहारा लेकर तुम्हें अंकशयनी बना लेता है यह अपनी…
और अपनी छ्ल-कपट भरी प्रशंसा सुन-सुन तुम फूले नहीं समाती हो…
और त्रियाचरित्र कही जाने वाली तुम इस विचित्र-चरित्र जीव द्वारा ठगी जाती हो…
ओ स्त्री…!अपनी देह के भीतर तुम एक इन्सान हो यह तुमने खुद भी कब जाना…?
तुम तो खुद अपनी देह का प्रदर्शन करते हुए नहीं अघाती हो,क्योंकि वो तुम्हारी देह है…!
ऐसे में बताओ तुम इस चुंगल से बचकर जाओगी तो जाओगी कहां भला…?
तुमने तो खुद ही चुन लिया है जाने-अनजाने इक यही रास्ता…एक अंधी गली…!!
तुम्हारा सहारा कहा जाने वाला कोई भी…पिता-पति-बेटा या कोई और यदि मर जाये…
तो ये सारा पुरुष वर्ग प्रस्तुत है तुम्हारी रक्षा के लिए…गर इसकी कीमत तुम चुकाओ…!!
और वह कीमत क्या हो सकती है…यह तुम खूब जानती हो…!!
तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई सहयोग…कोई लोन…कोई नौकरी…या कोई अन्य मदद…
सब कुछ प्रस्तुत है…हां बस उसकी कीमत है…और वह कीमत हर जगह एक ही है…!!
वह कीमत है तुम्हारे शरीर की कोई एक खास जगह…बस…!!
कहां जाओगी तुम ओ स्त्री…कानून के पास…??
तो उसके रखवाले सवाल पूछेंगे तुमसे ऐसे-ऐसे कि तुम सोचोगी कि
इससे तो अच्छा होता कि तुम एक बार और ब्लत्क्रित हो जाती…
कानून के रखवाले क्या आदमी नहीं हैं…??क्या उनकी कोई भूख नहीं है…??
तो तुम इतनी मासूम क्यूं हो ओ स्त्री…??
क्यूं नहीं देख पाती तुम सबके भीतर एक आदिम भूख…??
किसी भी उम्र का पुरुष हो…भाई-बेटे-पोते…किसी भी उम्र का व्यक्ति…जो पुरुष है…
किस नज़र से देखता है वो तुम्हें…आगे से…पीछे से…ऊपर से…नीचे से…उपर से नीचे तक…
तुम घबरा जाओगी इतना कि मर जाने को जी करे…!!
मगर तुम मर भी नहीं सकती ओ स्त्री…क्योंकि तुम स्त्री हो…
और बहुत सारे रिश्ते-नाते हैं तुम्हारे निभाने को…जिनकी पवित्रता निभानी है तुम्हें…
और हां…तुम तो मां भी हो ओ स्त्री…
और भले ही सिर्फ़ भोग्या समझे तुम्हें यह पुरुष…
मगर उसे भी दरकार है तुम्हारी…अपने पैदा होने के लिए…!!

4 comments:

Shalini kaushik said...

bas stri ko yahi kahna hai;
aaj mana ki iktdar me ho,
hukm rani ke tum khumar me ho,
ye bhi mumkin hai waqt le karvat,
paun oopar hon sar tagar me ho,

sangeeta modi shamaa said...

stri man ki vyatha kisi purush ke mukha se .............

वाणी गीत said...

तुम माँ भी हो ओ स्त्री ...
मुझे बस यही समझ आता है !

Unknown said...

BHAUT HE MAN KO CHUNE WALA SUBJECT HAI ISKE TO KOI NAHI HAR BAT NIRALI HAI