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7.1.11

स्तंभनदोष या इरेक्टाइल डिसफंक्शन

आधुनिक युग में हमारी जीवनशैली और आहारशैली में आये बदलाव और भोजन में ओमेगा-3 की भारी कमी आने के कारण पुरुषों में स्तंभनदोष या इरेक्टाइल डिसफंक्शन की समस्या बहुत बढ़ गई है। यौन उत्तेजना होने पर यदि शिश्न में इतना फैलाव और कड़ापन भी न आ पाये कि संपूर्ण शारीरिक संबन्ध स्थापित हो सके तो इस अवस्था को स्तंभनदोष कहते हैं। इसका मुख्य कारण डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, दवाइयां (ब्लडप्रेशर, डिप्रेशन आदि में दी जाने वाली) इत्यादि है। यह ऐसा रोग है जिस पर अमूमन खुलकर चर्चा भी कम ही होती है। सच यह है कि असहज, व्यक्तिगत और असुविधाजनक चर्चा मानकर छोड़ दिए जाने से इस गंभीर दुष्प्रभाव के प्रति जागरूकता लाने का एक महत्वपूर्ण पहलू छूट जाता है। सेक्स की चर्चा करने में हम शर्म झिझक महसूस करते हैं। शायद हम सेक्स को पोर्नोग्राफी से जोड़ कर देखते हैं। जहां पोर्नोग्राफी विकृत, अश्लील और घिनौना अपराध है, वहीं सेक्स स्वाभाविक, प्राकृतिक, सहज तथा प्रकृति-प्रदत्त महत्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है। यह सभ्य समाज के निर्माण हेतु हमारा परम कर्तव्य है। सेक्स विवाह का अनूठा उपहार है, पति पत्नि के प्रगाढ़ प्रेम की पूर्णता है, परिपक्वता है, सफलता है, परस्पर दायित्वों का वहन है, मातृत्व का पहला पाठ है, पिता का परम आशीर्वाद है और ईश्वर की सबसे प्रिय इस धरा-लोक के संचालन का प्रमुख जरिया है। सेक्स संबन्धी समस्याओं के निवारण के लिए व्यापक चर्चा होनी चाहिये।

आज के परिवेश में यह विषय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आजकल यह रोग युवाओं को भी अपना शिकार बना रहा है। आप देख रहे हैं कि आजकल तो भरी जवानी में ही बास्टर्ड ब्लडप्रेशर बिना दस्तक दिये घर में घुस जाता है और सेक्स का लड्डू चखने के पहले ही डायन डायबिटीज उन्हें डेट पर ले जाती है।

शिश्न की संरचना

शिश्न की त्वचा अति विशिष्ट, संवेदनशील, काफी ढीली और लचीली होती है, ताकि स्तंभन के समय जब शिश्न के आकार और मोटाई में वृद्धि हो और कड़ापन आये तो त्वचा में कोई खिंचाव न आये। त्वचा का यह लचीलापन सेक्स होर्मोन द्वारा नियंत्रित होता है। मानव शिश्न स्पंजी ऊतक के तीन स्तंभों से मिल कर बनता है। पृष्ठीय पक्ष पर दो कोर्पस केवर्नोसा एक दूसरे के साथ-साथ तथा एक कोर्पस स्पोंजिओसम उदर पक्ष पर इन दोनों के बीच स्थित होता है। ये दोनों कोर्पस कैवर्नोसा स्तंभ शुरू के तीन चौथाई भाग में छिद्रों द्वारा आपस में जुड़े रहते हैं। पीछे की ओर ये विभाजित हो कर प्यूबिक आर्क के जुड़े रहते हैं। रेक्टस पेशी का निचला भाग शिश्न के पिछले भाग से जुड़ा रहता है। इन स्तंभों पर एक कड़ा, मोटा और मजबूत खोल चढ़ा रहता है जिसे टूनिका एल्बूजीनिया कहते हैं। मूत्रमार्ग कोर्पस स्पोंजिओसम में होकर गुजरता है। बक्स फेशिया नामक कड़ा खोल इन तीनों स्तंभों को लिपटे रहता है। इसके बाहर एक खोल और होता है जिसे कोलीज फेशिया कहते हैं। कोर्पस स्पोंजिओसम का वृहत और सुपारी के आकार का सिरा शिश्नमुंड कहलाता है जो अग्रत्वचा द्वारा सुरक्षित रहता है। अग्रत्वचा एक ढीली त्वचा की दोहरी परत वाली संरचना है जिसको अगर पीछे खींचा जाये तो शिश्नमुंड दिखने लगता है। शिश्न के निचली ओर का वह क्षेत्र जहाँ से अग्रत्वचा जुड़ी रहती है अग्रत्वचा का बंध (फ्रेनुलम) कहलाता है। शिश्नमुंड की नोक पर मूत्रमार्ग का अंतिम हिस्सा, जिसे मूत्रमार्गी छिद्र के रूप में जाना जाता है, स्थित होता है। यह मूत्र त्याग और वीर्य स्खलन दोनों के लिए एकमात्र रास्ता होता है। शुक्राणु का उत्पादन दोनो वृषणों मे होता है और इनका संग्रहण संलग्न अधिवृषण (एपिडिडिमस) में होता है। वीर्य स्खलन के दौरान, शुक्राणु दो नलिकाओं जिन्हें शुक्रवाहिका (वास डिफेरेंस) के नाम से जाना जाता है और जो मूत्राशय के पीछे की स्थित होती हैं, से होकर गुजरते है। इस यात्रा के दौरान सेमिनल वेसाइकल और शुक्रवाहक द्वारा स्रावित तरल शुक्राणुओं मे मिलता है और जो दो स्खलन नलिकाओं के माध्यम से पुरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के अंदर मूत्रमार्ग से जा मिलता है। प्रोस्टेट और बल्बोयूरेथ्रल ग्रंथियां इसमे और अधिक स्रावों को जोड़ते है और वीर्य अंतत: शिश्न के माध्यम से बाहर निकल जाता है।

स्तंभन दोष के कारण

सामान्य स्तंभन की प्रक्रिया हार्मोन, नाड़ी तंत्र, रक्तपरिवहन तथा केवर्नोसल घटकों के सामन्जस्य पर निर्भर करती है। स्तंभनदोष में कई बार एक से ज्यादा घटक कार्य करते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण

शिश्न आघात या रोग

पेरोनीज रोग, अविरत शिश्नोत्थान (Priapism)।

दवाइयां

डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, डिप्रेशन आदि रोगों की अधिकतर दवाइयां आदमी को नपुंसक बना देती हैं।

प्रौढ़ता (Ageing)

जीर्ण रोग (Chronic Diseases)

डायबिटीज, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, अनियंत्रित लिपिड प्रोफाइल, किडनी फेल्यर, यकृत रोग और वाहिकीय रोग।

विकृत जीवनशैली

धूम्रपान और मदिरा सेवन।

धमनी रोग

डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और कई दवाइयों के प्रयोग की वजह से।

नाड़ी संबन्घी रोग

सुषुम्ना नाड़ी आघात (Spinal cord Injury), वस्तिप्रदेश आघात (Injury Pelvis) या शल्य क्रिया, मल्टीपल स्क्लिरोसिस, स्ट्रोक आदि।

हार्मोन

टेस्टोस्टीरोन का स्राव कम होना, प्रोलेक्टिन बढ़ना।

स्तंभन का रसायनशास्त्र

स्पर्श, स्पंदन, दर्शन, श्रवण, गंध, स्मरण या किसी अन्य अनुभूति द्वारा यौन उत्तेजना होने पर शिश्न में नोनएड्रीनर्जिक नोनकोलीनर्जिक नाड़ी कोशिकाएं और रक्तवाहिकाओं की आंतरिक भित्तियां (Endothelium) नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) का स्राव करते हैं। नाइट्रिक ऑक्साइड अति सक्रिय तत्व है तथा ये एंजाइम साइटोप्लाज्मिक गुआनाइल साइक्लेज को सक्रिय करते हैं जो GTP को cGMP में परिवर्तित कर देते हैं। cGMP विशिष्ठ प्रोटीन काइनेज को सक्रिय करते हैं जो अमुक प्रोटीन में फोस्फेट का अणु जोड़ देते हैं फिर यह प्रोटीन सक्रिय होकर स्निग्ध पेशियों के पोटेशियम द्वार खोल देते हैं, केल्शियम द्वार बंद कर देते हैं और कोशिका में विद्यमान केल्शियम को एंडोप्लाजमिक रेटिकुलम में बंद कर ताला जड़ देते हैं। पेशी कोशिका में केल्शियम की कमी के फलस्वरूप कोर्पस केवर्नोसस में स्निग्ध पेशियों, धमनियों का विस्तारण होता है और और कोर्पस केवर्नोसम के रिक्त स्थान में रक्त भर जाता है। यह रक्त से भरे केवर्नोसम रक्त को वापस ले जाने वाली शिराओं के जाल पर दबाव डाल कर सिकोड़ देते है, जिसके कारण शिश्न में अधिक रक्त प्रवेश करता है और कम रक्त वापस लौटता है। इसके फलस्वरूप शिश्न आकार में बड़ा और कड़ा हो जाता है तथा तन कर खड़ा हो जाता है। इस अवस्था को हम स्तंभन कहते हैं, जो संभोग के लिए अति आवश्यक है। संभोग सुख की चरम अवस्था पर मादा की योनि में पेशी संकुचन की एक श्रृंखला के द्वारा वीर्य के स्खलन के साथ संभोग की क्रिया संपन्न होती है। स्खलन के बाद स्निग्ध पेशियां और धमनियां पुनः संकुचित हो जाती हैं, रक्त की आवक कम हो जाती है, केवर्नोसम के रिक्त स्थान में भरा अधिकांश रक्त बाहर हो जाता है, शिराओं के जाल पर रक्त से भरे केवर्नोसम का दबाव हट जाता है और शिश्न शिथिल अवस्था में आ जाता है। अंत में एंजाइम फोस्फोडाइईस्ट्रेज-5 (PDE 5) cGMP को GMP चयापचित कर देते हैं।

उपचार

पी डी ई-5 इन्हिबीटर चार्ज करे मीटर
पिछले कई वर्षों से पी.डी.ई.-5 इन्हिबीटर्स जैसे सिलडेनाफिल (वियाग्रा), टाडालाफिल, वरडेनाफिल आदि को स्तंभनदोष की महान चमत्कारी दवा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ये शिश्न को रक्त भर कर कठोर बनाने वाले cGMP को निष्क्रिय कर GMP में बदलने वाले एंजाइम PDE-5 अणु के पर काट कर निष्क्रिय कर देते हैं। अतः शिश्न में cGMP पर्याप्त मात्रा रहता है और प्रचंड स्तंभन होता है। इन्हें बेच कर फाइजर और अन्य कंपनियां खूब पैसा बना रही हैं। इसके गैरकानूनी तरीके से प्रचार के लिए 2009 में फाइजर को भारी जुर्माना भरना पड़ा था। लेकिन इन दवाओं के कुछ घातक दुष्प्रभाव भी हैं जो आपको मालूम होना चाहिये। हालांकि चेतावनी दी जाती है कि नाइट्रेट का सेवन करने वाले हृदय रोगी इस दवा को न लें। लेकिन सच्चाई यह है कि यह दवा आपके हृदय के भारी क्षति पहुँचाती है। इसे प्रयोग करने से हृदय में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है, हृदयगति अनियमित हो जाती है और दवा बंद करने के बाद भी तकलीफ बनी रहती है। इससे आपके फेफड़ों में रक्त-स्राव भी हो सकता है और सेवन करने वाले के साथी को संक्रमण की संभावना बनी रहती है। इसके सेवन से व्यक्ति अचानक बहरा हो सकता है। इसका सबसे घातक दुष्प्रभाव यह है कि इसके प्रयोग से कभी कभी संभोग करते समय ही रोगी की मृत्यु हो जाती है। शायद आपको मालूम होगा कि अमेरिका में मार्च, 1998 से जुलाई 1998 के बीच वियाग्रा के सेवन से 69 लोगों की मृत्यु हुई थी।

इंजेक्शन देता है सेटिसफेक्शन

नब्बे के दशक में आपके चिकित्सक ने स्तंभनदोष के उपचार के लिए लिंग में लगाने के इंजेक्शन भी इजाद कर लिए थे। इनकी सफलता दर 95% है। आपका चिकित्सक इसके लिए पेपावरिन, फेंटोलेमीन या एलप्रोस्टेडिल आदि के इंजेक्शन प्रयोग करता है। आपकी अनुमति मिलते ही वह आपके लिंग में सुई लगा कर तुरंत आपकी बेटरी चार्ज करेगा और हनीमून एयरवेज़ की पहली फ्लाइट में चढ़ा देगा।

एम्यूज़मेंट के लिए म्यूज़ (MEDICATED URETHRAL SYSTEM FOR ERECTION)

यह उपचार 1997 में विकसित किया गया। इस में रक्त-वाहिकाओं को फैलाने वाले एल्प्रोस्टेडिल (PGE1) की एक चावल के दाने जितनी छोटी टिकिया को मूत्रमार्ग में प्लास्टिक की एक छाटी सी सीरिंज द्वारा घुसा दिया जाता है। अब शिश्न को थोड़ा अंगुलियों से दबाते हुए सहलाएं ताकि दवा पूरे शिश्न में फैल जाये। 10 मिनट बाद आपके लिंग में प्रचंड स्तंभन होता है जो 30 से 60 मिनट तक बना रहता है। इसके भी कुछ दुष्प्रभाव हैं जैसे अविरत शिश्नोत्थान, शिश्न का टेढ़ा होना या अचानक रक्तचाप कम हो जाना आदि।

 
कृत्रिम लिंग प्रत्यारोपण
यदि सारे उपचार नाकाम हो जायें, तब भी आप निराश न हों। आपका चिकित्सक कृत्रिम लिंग-प्रत्यारोपण का साजो-सामान भी अपने पिटारे में लेकर बैठा है। यह प्रत्यारोपण दो तरह का होता है। पहला घुमाने वाला होता है। प्रत्यारोपण के बाद लिंग को घुमा कर स्तंभन की स्थिति में लाते ही यह स्थिर हो जाता है। संसर्ग के बाद घुमा कर पुनः इसे विश्राम की अवस्था ले आते हैं। यह सस्ता जुगाड़ है। दूसरे प्रकार का मंहगा होता है परंतु बिलकुल प्राकृतिक तरीके से काम करता है। संसर्ग से पहले अंडकोष की थैली में प्रत्यारोपित किये गये पंप को दबा दबा कर शिश्न में प्रत्यारोपित सिलीकोन रबर के दो लंबे गुब्बारों में द्रव्य भर दिया जाता है, जिससे कठोर स्तंभन होता है। संसर्ग के बाद अंडकोष की थैली में ही एक घुंडी को घुमाने से लिंग में भरा द्रव्य वापस अपने रिजर्वायर में चला जाता है।

रोगी और उसकी साथी को प्रत्यारोपण संबन्धी सभी बांतों और दुष्प्रभावों के बारे में बतला देना चाहिये। क्योंकि इसके भी कई घातक दुष्प्रभाव हैं। जैसे पूरी सावधानियां रखने के बाद भी यदि संक्रणण हो जाये तो रोगी को बहुत कष्ट होता है और उपचार के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है। संक्रणण के कारण गेंगरीन हो जाने पर कभी कभी शिश्न का कुछ हिस्सा काटना भी पड़ सकता है। सर्जरी के बाद थोड़े दिन दर्द रहता है पर यदि दर्द ज्यादा बढ़ जाये और ठीक न हो तो कृत्रिम शिश्न को निकालना भी पड़ सकता है। लगभग 10% मामलों में कुछ न कुछ यांत्रिक खराबी आ ही जाती है और यह काम नहीं कर पाता है। कई बार रक्त स्राव भी हो जाता है जिससे रोगी को बड़ा कष्ट होता है।

आयुर्वेदिक उपचार

स्तंभनदोष के उपचार हेतु आयुर्वेद में कई शक्तिशाली और निरापद औषधियाँ हैं जैसे, शिलाजीत, अश्वगंधा, शतावरी, केशर, सफेद मूसली, जिंको बिलोबा, जिंसेन्ग आदि। शिलाजीत महान आयुवर्धक रसायन है जो स्तंभनदोष के साथ साथ उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा आदि रोगों का उपचार करता है और साथ ही वृक्क, मूत्रपथ और प्रजनन अंगों का कायाकल्प करता है।

आप निम्न बातों को भी हमेशा ध्यान में रखिए।

• ब्लड शुगर और रक्तचाप को नियंत्रित रखिए। अगर लगातार ऐसा रखेंगे तो तंत्रिकाओं व रक्तवाहिनियों में वह गड़बड़ी नहीं आएगी जो सेक्स क्षमता को प्रभावित करती है।

• मधुमेह के मरीज तंबाकू सेवन और धूम्रपान से बचें। तंबाकू रक्तवाहिनियों को संकरा बनाकर उनमें रक्त प्रवाह को कम या बंद कर देता है।

• अधिक शराब पीनें से बचें। यह मधुमेह पीड़ितों में सेक्स क्षमता को घटाता है और रक्तवाहिनियों को क्षति पहुंचाता है। अगर पीना जरूरी है तो पुरुष एक दिन में दो पैग और महिलाएं एक से ज्यादा न लें।

• नियमित ध्यान और योग करें। सुबह घूमने निकलें। इससे आप शारीरिक रूप से स्वस्थ और तनावमुक्त रहेंगे। रात्रि में ज्यादा देर तक काम न करें, समय पर सो जायें और पर्याप्त नींद निकालें। सप्ताह में एक बार हर्बल तेल से मसाज करवाएं। मसाज से यौनऊर्जा और क्षमता बढ़ती है। यदि आपका वजन ज्यादा है तो वजन कम करने की सोचें।

• संभोग भी दो या तीन दिन में करें। घर का वातावरण खुशनुमा और सहज रखें। गर्म, मसालेदार, तले हुए व्यंजनों से परहेज करें। पेट साफ रखें।

संभोग से समाधि की ओर ले जाये अलसी

आपका हर्बल चिकित्सक आपकी सारी सेक्स सम्बंधी समस्याएं अलसी खिला कर ही दुरुस्त कर देगा क्योंकि अलसी आधुनिक युग में स्तंभनदोष के साथ साथ शीघ्रस्खलन, दुर्बल कामेच्छा, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की भी महान औषधि है। सेक्स संबन्धी समस्याओं के अन्य सभी उपचारों से सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी। बस 30 ग्राम रोज लेनी है।

• सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे।

• अलसी आपकी देह को ऊर्जावान, बलवान और मांसल बना देगी। शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी गहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी। मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा।

• अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, जिंक और मेगनीशियम आपके शरीर में पर्याप्त टेस्टोस्टिरोन हार्मोन और उत्कृष्ट श्रेणी के फेरोमोन ( आकर्षण के हार्मोन) स्रावित होंगे। टेस्टोस्टिरोन से आपकी कामेच्छा चरम स्तर पर होगी। आपके साथी से आपका प्रेम, अनुराग और परस्पर आकर्षण बढ़ेगा। आपका मनभावन व्यक्तित्व, मादक मुस्कान और षटबंध उदर देख कर आपके साथी की कामाग्नि भी भड़क उठेगी।

• अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन एवं लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे शक्तिशाली स्तंभन तो होता ही है साथ ही उत्कृष्ट और गतिशील शुक्राणुओं का निर्माण होता है। इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करते हैं जिससे सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है। नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ओमेगा-3 फैट के अलावा सेलेनियम और जिंक प्रोस्टेट के रखरखाव, स्खलन पर नियंत्रण, टेस्टोस्टिरोन और शुक्राणुओं के निर्माण के लिए बहुत आवश्यक हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार अलसी लिंग की लंबाई और मोटाई भी बढ़ाती है।




इस तरह आपने देखा कि अलसी के सेवन से कैसे प्रेम और यौवन की रासलीला सजती है, जबर्दस्त अश्वतुल्य स्तंभन होता है, जब तक मन न भरे सम्भोग का दौर चलता है, देह के सारे चक्र खुल जाते हैं, पूरे शरीर में दैविक ऊर्जा का प्रवाह होता है और सम्भोग एक यांत्रिक क्रीड़ा न रह कर एक आध्यात्मिक उत्सव बन जाता है, समाधि का रूप बन जाता है।

 

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