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15.2.11

भ्रष्टाचार और तंत्र की गांठ तोडऩे का दुस्साहस तो जुटाईये



रविकुमार बाबुल

ग्वालियर में इन दिनों जिस तरह कार्यवाही चल रही है अतिक्रमण के नाम पर, उसको देख अब कई सवाल राजनीतिक ही नहीं तंत्र और लोक को लेकर भी उभर रहे हैं, अछूते अब भक्त और भगवान भी नहीं रहे हैं? अतिक्रमणकत्र्ता के दायरे में भगवान भी थे, प्रशासन को अब यह बात पता चली, कोई बात नहीं, लेकिन जनाब ... भक्त किस प्रशासनिक भगवान की भक्ति करके अतिक्रमण किये बैठे थे और प्रशासनिक भगवान तमाम शिकायतों के बाबजूद प्रसाद चखने में ही इतने दिनों तक क्यूं मशगूल रहे थे, जबाव इसका भी खोजना चाहिये, इन दिनों शहर की भुज की सी छवि बनाने के साथ-साथ? यकिन रखिये... पर जनाब जबाव नहीं आयेगा? समझना होगा देवताओं का अपना ही एक लोक होता है, वहां हर अ-धर्म पर धर्म के बहाने पर्दा डाला जाता रहा है सीताहरण, पांचाली, कौरव, पांडव यहां तक कि कृष्ण, अर्जुन, युधिष्ठर या कंस किसी को भी टटोलिये यह प्रशासनिक भगवान से इतर कहां नजर आते हैं, सो एक-दूसरे को बचने और बचाने के लिये इन प्रशासनिक भगवानों का अपना एक अलग लोक नहीं बसा है, भला इससे कौन इंकार कर सकता है? मसलन विकास की जिस कारी स्लेट पर नियमों की बाती से जो नित्य नई इबारत लिखी जा रही है वह किस विकास की बात ओर ले जायेगी? सहज ही समझा जा सकता है?जिस तरह इन दिनों अतिक्रमण हटाने के नाम पर शहर को किसी ए-प्रमाण पत्र वाली सेल्युलाइड चल-चित्र की तरह नंगा किया जा रहा है, सवाल वहां पर भी उगते हैं? शहरियों का नक्शा पास करवाने के लिये पेड़ लगाने (पौध रोपने ) की जिद् किये बैठा प्रशासन हरे-भरे पेड़ों को काट कर उसी डकैत का-सा रुख अख्तियार किये बैठा है जो चम्बल के किनारे रहने वाली किसी नवयौवना के पति की हत्या कर उसका सुहाग उजाडऩे से भी गुरेज नहीं करता है? सो शहर को सजाने-सवांरने के नाम पर तोड़-फोड़ जारी है।बीते दिनों मानवीयता को खूंटी पर टांग कर ठिठुरते शहर में हमने देखा अलाव की उम्मीद तो पूरी हुई नहीं बल्कि महाराज बाड़ा स्थित सरकारी प्रेस के बगल से अतिक्रमण के नाम पर ठण्ड में ठिठुरते एक वृद्ध के सर पर से दूध की थैली से सिली पन्नी की चिन्दियों से बनी छत भी कानून के अलाव में डाल जला दी गयी? ताकि शहर अतिक्रमण से मुक्त हो जाये, जी... यही विकास है...? लेकिन जनाब रसूख होता क्या है, जरा इसे टटोलिये, ग्वालियर विकास प्राधिकरण द्वारा बसाई गई ललितपुर कालोनी के ब्लॉक नम्बर दो के पीछे की सार्वजनिक गली पर अतिक्रमण भी किया गया, भ्रष्टाचार के गठजोड़ ने सार्वजनिक गली को लीज पर दे दिया और इसे बेचा भी गया, शिकायत पर जल बिहार से लेकर भोपाल तक कार्यवाही की सिर्फ बात हुयी, लेकिन कार्यवाही आज तलक नहीं? इसे ही रसूख कहते है, सार्वजनिक गली ही नहीं पार्क और तमाम धर्मो के अराधनालयों में अतिक्रमणकर्ताओं कि मिल्कियत क्यों बनी रहती है, समझना मुश्किल नहीं है? तंत्र में बने नियम किस अधिकार की वजह से अतिक्रमणकर्ता की जेब में हिचकोले खा रहे है या फिर तंत्र के रहनुमा बन चले लोगों कि जेब में पहुंचा कोई राहत पैकेज अतिक्रमणकर्ता के खिलाफ यहां उन्हें ऐसा करने से रोके रख रहा है? काटे जा रहे हरे-भरे पेड़ों के बीच यह सवाल उगता है? खैर...शहर सपाट हो जाये, लेकिन इन्द्रानगर सहित तमाम कालोनियों में बनायी गयी या बनी तमाम गली हो या कुछ पार्क यह सब जब रसूखदारों की मिल्कियत बन चलती है तब उस पर अतिक्रमण विरोधी अमले की निगाह पहुंच ही नहीं सकती है। जी... यह ग्वालियर है, यहाँ रहने के लिये ही नहीं, जीने के लिये भी रसूख का होना निहायत जरूरी है? सड़कों को लेकर जब लालू पटना की सड़कों को हेमामालिनी के गाल जैसा बनाने की कोशिश में सत्ता गवां बैठे और उन्हें गंगा-तीरे अलाव सेंकना पड़ रहा है, भला ऐसे में स्वर्ण रेखा नदी में नाव चलाने की मंशा या कह लें स्वप्न बुनने वालों को क्या कहें? अब ऐसे में विकास के नाम पर भुज-सा दृश्य देखने को मिलता रहे तो किसी को कोसियेगा नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और तंत्र की गांठ तोडऩे का दुस्साहस जुटाईयेगा?

1 comment:

K M Mishra said...

भ्रष्टाचार पर करोरे प्रहार करते रहने की जरूरत है । लगातार । बार बार । हम सब इस को इस मुहीम में लगना होगा । आखिर यह हमारा पैसा है जो विदेश जा रहा है और वापस नहीं आ रहा । कांग्रेस ने जेपीसी मान ली है मगर सिर्फ 2 जी पर । कामनवेल्थ और एस बैण्ड को भी इसमें शामिल करना चाहिये ।
भष्टाचार और कालेधन से लड़ने के लिये जरूरी नहीं की लंबी पोस्ट लिखी जाये । लगातार प्रहार की जरूरत है । हमें यह लड़ाई मिल कर एक साथ लड़नी होगी । वक्त आ गया है काले अंग्रेजों को सबक सिखनो का । जय हिंद ।