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9.2.11

प्री मेच्योर बच्चे का इंटरनेट युग में एक्सटेंशन
वक्त के साथ बहने वाले भले ही अधिसंख्य हों, लेकिन अपने ही जमाने और दुनिया में जी रहे इक्के-दुक्के लोग आज भी भीड़ का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। ऐसे ही एक शख्श से मेरी मुलाकात हुई लगभग आठ साल पहले। नाम था रत्न चंद निर्झर। नाम अच्छा सा लगा सो कुछ लंबी बातचीत भी की। यह उस वक्त की बात है जब मैं दैनिक भास्कर में हिमाचल प्रदेश के सोलन ब्यूरो कार्यालय का प्रमुख था। निर्झर से मुलाकात हुई, कुछ रुचिकर और अरुचिकर दोनों ही विषयों पर चर्चाएं हुईं। मैं पहली ही मुलाकात में ताड़ गया कि इस व्यक्ति के भीतर साहित्य का एक निरंतर बहता हुआ झरना झरता है। खैर निर्झर जी गए तो साथियों ने चेतावनी दी कि इस व्यक्ति के साथ ज्यादा रहे तो यह आपसे ही चिपक जाएगा। मैंने अनुसुनी कर दी, लेकिन एक खिंचाव सा लगा था उनकी सादगी और बातों में। दुनिया जहान से दूर वे कभी राहुल सांकृत्यायन की बात करते तो लगता उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं, फिर अचानक प्रेमचंद पर आ जाते। उनसे पहली मुलाकात इस लिहाज से भी अच्छी कही जा सकती है कि उन्होंने इससे पहले मेरा नाम सुन रखा था। बस इतनी सी जान पहचान को उन्होंने इस अंदाज में प्रस्तुत किया कि जैसे बहुत पुराना संबंध हो। जो भी हो साथियों की चेतावनी का मुझ पर असर जरूर पड़ा, लेकिन यह डर चौबीस घंटे में ही प्राण त्याग गया। अगले दिन सोलन के माल पर टहलते हुए निर्झर से फिर सामना हो गया। उन्होंने एक दिन पुरानी मुलाकात की औपचारिकता को ताक पर रखते हुए सीधे ही हमला बोल दिया: क्यों चोरों कहां घूम रहे हो.... कई लोगों के सामने जब उन्होंने इस तरह संबोधित किया तो साथियों की चेतावनी मेरे कान के पर्दों पर टकराने लगी। वह सितंबर महीने के अंतिम दिन थे। खैर उन्होंने काफी हाऊस में चाय पीने के लिए कहा तो मैं किसी जादू से बंधा उनके पीछे हो लिया। चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने बताया कि काफी हाऊस के स्वामी भी गढ़वाल से ही हैं, उन्होंने बाद में उनसे परिचय भी कराया, यह अलग बात है कि मेरी उनसे पहली मुलाकात ही इतनी जोश भरी नहीं रही कि दोबारा हाय हैलो से आगे बढ़ पाती। खैर निर्झर ने उस दिन बताया था कि दो अक्तूबर को वे उपवास रखते हैं। मैंने समझा कोई व्रत या त्योहार आता होगा सो पूछ लियाः किस खुशी में!
उन्होंने बताया कि उस दिन लाल बहादुर शास्त्री जी का भी जन्मदिन होता है और इस दिन वे पिछले तीस सालों से व्रत रखते आ रहे हैं। यह जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा का समंदर हिलोरे मारने लगा। यह मेरे लिए चौकाने के वक्त था, लेकिन उन्होंने यह असाधारण सी बात इतने साधारण लहजे में कही थी, कि मेरा चेहरा भावों को लेकर गच्चा खा गया। आज के समय में जब आदमी छोटी छोटी बातों को लेकर अपने पुरखों को कोसने लगता है तब लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिन पर उपवास रखना अपने आप में सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा। बातचीत तो उस दिन उनसे काफी हुई, लेकिन मैं उपवास की उस जानकारी से बाहर निकल ही नहीं सका। मेरा मन बार बार उन्हें सेल्यूट करने का कर रहा था, लेकिन वे ठहरे निर्झर.....
इत्तेफाक से मुझे कमरा भी उनसे करीब पचास कदम पहले ही मिल गया, फिर क्या था वे बच्चों को पढ़ाने के बाद देर रात मेरे कमरे पर आ जाते़..... हाथ में रेडियो, कंधे पर थैला और थैले में दैनिक अजीत से अंग्रेजी ट्रिब्यून तक कई छोटे और बड़े समाचार पत्र। साहित्य पर उनकी जानकारी मुझे सोचने पर विवश कर देती।
घूमने के मामले में निर्झर का कोई सानी नहीं। वे पैदल-पैदल कई किलो मीटर का सफर आज भी तय कर जाते हैं। मुझे याद है एक दिन वे मेरे घर देहरादून आए। मुझे भी वापस लौटना था सो मैं भी उनके साथ चल दिया। उन्होंने कहा कि देहरादून के प्रिंस चैक की ओर से आईएसबीटी जाएगें, मैं फंस गया, इसके बाद उन्होंने किसी भी आटो को मुझे हाथ ही नहीं देने दिया, रात लगभग दस बजे हमने प्रिंस चौक से आईएसबीटी का पैदल सफर तय किया। मैं गाड़ी की बात करता तो वे हाथ में पकड़ी मूंगफली की थैली मेरी ओर बढ़ा देते। बस मूंगफली खाते- खाते सात आठ किमी का सफर उन्होंने मुझसे पैदल ही तय कराया। इसके बाद से मैंने उनके साथ पैदल चलने के प्रस्ताव को किसी न किसी बहाने टाल ही दिया।
एक बार तो उनके साथ के चक्कर में मेरे एक साथी के परिवार में कलह ही हो गया। सोलन में नौणी नामक स्थान पर कृषी एवं बागवानी विश्वविद्यालय है, उसके जन संपर्क अधिकारी थे पीडी भारद्वाज। उनकी तबीयत नासाज होने की जानकारी हमें निर्झर जी के माध्यम से मिली। उन्हें देखने जाना था सो हमने दैनिक भास्कर के उप संपादक यशपाल कपूर को साथ ले सुबह दस बजे से पहले उनके घर पहुंचने की ठानी। निर्झर ने हमें आश्वासन दिया कि पैदल बिल्कुल नहीं जाएगें और जल्दी ही वापस लौट आएगें। कपूर जी की धर्म पत्नी के दांतों में दर्द था सो उन्होंने वापस लौट कर डॉक्टर के पास जाने का कार्यक्रम धर्मपत्नी के साथ तय कर लिया। हम तीनों भारद्वाज जी के घर पहुंचे, उनके साथ कुछ समय बिताया और फिर वापस निकलने लगे कि निर्झर का पैदल चलने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। उन्होंने हमें पहाड़ का रास्ता बताते हुए कहा कि इस रास्ते हम सड़क तक बहुत जल्दी पहुंच जाएंगे। हम उनके झांसे में आ गए। निर्झर के पीछे पीछे चलते हुए हम लगभग आधा घंटे बाद सड़क पर तो पहुंचे, लेकिन वहां बस स्टॉप न होने के कारण सोलन तक का सफर भी पैदल करने की नौबत आ गई। इधर कपूर साहब की पत्नी के फोन पर फोन और उधर निर्झर जी की पैदल यात्रा। कपूर साहब थे भी थोड़े रंगीन तबीयत के आदमी सो अपने ही साथ काम करने वाले सुखदर्शन ठाकुर के घर उनके खिलाफ मजाक मजाक में कुछ ऐसा बोल आए थे कि बेचारे ठाकुर जी की तबीयत बिगड़ गई। तब से सुखदर्शन उनसे बदला लेने की सोचा करते। कपूर साहब की पत्नी को वे दीदी कहा करते सो अचानक उनके घर फोन किया और कपूर साहब की पत्नी ने अपने दांत की पीड़ा से लेकर कपूर साहब के अब तक न आने का किस्सा सुना दिया। फिर क्या था ठाकुर के दिमाग में घंटी बज गई, उन्होंने कपूर साहब की धर्मपत्नी को मनगढंत कहानी सुना कर उनके दिमाग में बिठा दिया कि कपूर साहब अपनी महिला मित्रों के साथ किसी और दिशा में भटकते देखे गए हैं। अब क्या था भाभी, कपूर साहब को जल्दी आने के लिए कहें और हमारी यात्रा खत्म ही न हो। दोपहर को हारे थके घर पहुंचे तो बीमार भाभी ने कपूर साहब की ठीक खबर ली, उनसे यह साबित करते नहीं बना कि वे भारद्वाज जी को देखने हमारे साथ गए थे। सुना है पूरा दिन घर पर तनाव रहा। निर्झर ने यह सुना तो बहुत हंसे।

निर्झर न तो आज के समय के साथ चल सकते हैं न इस काल के लिए बने थे, सही मायने में उम्र के लगभग 51 साल बिता चुका यह शख्स आज के ई-मेल युग में चिठ्ठीपत्री युग का एक्सटेंशन है। जो आधुनिकता को अपनाना ही नहीं चाहता। उससे दूर भागता है। देश का कोई ही प्रदेश होगा जहां उनके पत्र मित्र न हों। कुछ तो ऐसे भी है जो हिंदी नहीं जानते लेकिन मित्रता की भाषा को उन्होंने भी समझा। मेरे नालागढ़ जाने के बाद उनसे मुलाकातों का सिलसिला टूट गया। कई दिनों से उनका मोबाइल फोन भी स्विच आफ था। एक दिन अखबारों में खबर पढ़ कर झटका लगा। लिखा था कि सोलन के रत्न चंद निर्झर नामक एक व्यक्ति ने चिठ्ठी पत्रियों का चलन बंद ही हो जाने के चलते अपना मोबाईल फोन बेच दिया है। वे चाहते है कि लोग चिठ्ठियां लिखने की पुरानी परिपाटी को न छोड़ें और कम से कम उन्हें तो चिठ्ठी ही लिखें। मुंह से वाह और आह दोनों साथ ही निकले थे। कई महीनों बाद हमने मन्नतें करके उनसे दोबारा मोबाईल फोन खरीदवाया था, जिसे उन्होंने शायद अब तक नहीं बेचा... कौन जाने फिर सनक चढ़े और फेंक दें।
सोलन में रहते हुए राहुल सांकृत्यायन जन्मदिवस, मुंशी प्रेमचंद जयंती उनकी ही प्रेरणा से हम जोरदार ढंग से मनाते। पर्चे पढ़ने के लिए साहित्यकार मिल ही जाते, कवियों के लिए तो सोलन की भूमि वैसे भी काफी उर्वरा रही है। निर्झर हमेशा कहते हमारे कवि एक कविता को दस दस सालों से सुनाए जा रहे हैं। इस मामले में मैंने निर्झर में एक इमानदारी देखी, वे यदि नई कविता नहीं लिख सके तो कवि सम्मेलन के मंच पर कविता नहीं सुनाते। माफी मांग लेते। काफी फरमाइशों के बाद वे कभी सुनाते तो अपनी वर्षों पहले लिखी खिंद कविता सुनाते। इस कविता को सुनाते हुए निर्झर भावों में बहने लगते हैं। खिंद माने गुदड़ी...... के ताने बाने को खोलती मां और हर ताने का परिचय देते निर्झर के शब्द, उनकी आँखें छलछला जातीं और सुनने वाले निशब्द पूरी कविता को सुनते। सुना है अब खिंद पर दिल्ली में किसी यूनिवर्सिटी में शोध हो रहा है।
सच्चाई का साथ छोड़ना उन्हें नहीं भाता। सोलन में रहते हमारी मित्रता हिमाचल पुलिस के युवा आईपीएस अधिकारी ज्ञानेश्वर सिंह से हो गई। वे भी निर्झर को बहुत सम्मान देते। हमें पता चला कि 28 नवंबर को निर्झर का जन्मदिन है, मैने ही आयडिया दिया कि इस बार उनका जन्मदिन मनाया जाए। एसपी साहब बोले 27 को रविवार है, समय का सदुपयोग भी हो जाएगा, फिर लोग थोड़े ही पूछेंगे कि जन्मतिथी क्या है। सुखदर्शन, पंडित संतराम जी, कपूर साहब आदि सब राजी हो गए पर निर्झर को कौन मनाये .......
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