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3.2.11

तू शक्तिमयी (अनुनय विनय --- प्रेमांजलि से )

(अपनी इन पंक्तियों द्वारा मैं नारी शक्ति का आह्वान विश्वहित में करता हूँ । )



तू शुभ्र नदी की धारा -सी
उन्मुक्त रहो स्वच्छंद रहो ;
मैं नहीं चाहता तुम केवल
मेरी नज़रों में बंद रहो ।

तू गिरि-गह्वर से निकल
सामने आ जाओ बनकर तरंग ;
मेरे मन को दो त्वरण
हमारे अंग - अंग को दो उमंग ।

तू चट्टानों पर उछल -उछल
कल-कल का धीमा शोर करो ;
चंचल -चपला, सुन्दर-स्वरमय ,
बनकर आनंद- विभोर करो ।

तू पहुँच धरा के समतल में
संतति को जीवनदान करो ;
कुछ लेकर मेरा भी प्रकाश
चेतन में नया विहान करो ।

तू शक्तिमयी ,तू तेजमई ,
ज्वाला प्रचंड तू अतुलनीय ;
ला सकती तू ही क्रांति नयी
बन सकती तू ही वंदनीय ।

तेरी हुंकारों को सुनकर
कितने असुरों के प्राण गए ;
तेरी ममता के सागर में
मैनाकों के भी मान गए ।

छोडो अपना सब क्षुद्र खेल ,
यह समय बहुत भयकारी है ;
व्याकुल मानवता को देखो
उसपर क्या संकट भारी है ।

जो नहीं पहुँच कर संगर में
तू स्वयं संभाले विशिख -तूर्ण ;
तो हार अवश्यम्भावी है
क्या कर पायेगा वह अपूर्ण ?

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