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19.6.11

गोरखालैंड : कहना मुश्किल कौन जीता, कौन हारा ?

शंकर जालान



उत्तर बंगाल के पर्वतीय इलाके में गोरखालैंड की मांग करते गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमोमो) के हजारों कार्यकर्ता और इसी बीच अचानक प्रत्याशी के आते ही जय गोरखालैंड की गूंज होने लगती। गजब का उत्साह और उल्लास पर्वतीय इलाके में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले। कुछ भी कर गुजरने को आमादा गोजमुमो कार्यकर्ताओं को देखकर लग रहा था कि यह चुनाव किसी के लिए महत्वपूर्ण हो चाहे नहीं, लेकिन गोरखालैंड प्रेमियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहेगा। नारे गूंजते थे और पीले टीके लगाकर, ढोलक बजाती महिलाओं के नाचने-गाने का सिलसिला चलता रहता था। यह उत्साह किसी और चीज के लिए नहीं बल्कि गोरखालैंड के लिए था। वर्षो पुराने सपने को लोग सच होते देख रहे थे। तय था कि पर्वतीय इलाके में गोजमुमो ही रहेगा और हुआ भी यही। भारी मतों या यह कहें कि जनता ने उम्मीदवारों को एकतरफा वोट दिया। चुनावी नतीजे आने और राज्य में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस की गठजोड़ वाली सरकार बनने के बाद राज्य सचिवालय में इस मुद्दे पर हुई वार्ता कई मसले पर अच्छी और कई पर अनिर्णायक रही। गोजमुमो के पदाधिकारियों व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच हुई बातचीत में यह किसी को भी समझ में नहीं आया कि कौन जीता और कौन हारा। अलबत्ता गोजमुमो के महासचिव के सामने की संयुक्त प्रेस वार्ता में मुख्यमंत्री ने कह दिया कि गोरखालैंड की समस्या का समाधान हो गया है। मजे की बात यह रही किन गोजमुमो महासचिव रोशन गिरि ने चुप्पी साधे रखी। इधर, पर्वतीय इलाके में भी सरगर्मी शुरू हो गई और गोजमुमो के नेताओं पर स्थानीय दलों के नेताओं ने कई गंभीर आरोप भी लगाए।
धयान रहे कि अलग राज्य गोरखालैंड के गठन के लिए मांग नई नहीं है। आजादी के पूर्व 1907 में मैन एसोसिएशन ने इसकी मांग उठाई थी, लेकिन उस समय गोरखाओं की आबादी यहां हजारों में ही थी। इसके बाद फिर वर्ष 1980 में प्रांत परिषद का गठन हुआ और इस दल ने यहां आंदोलन किया, लेकिन इसे लोगों का समर्थन नहीं मिल पाया। इसी वर्ष गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के प्रमुख सुभाष घीसिंग ने अस्त्रधारी आंदोलन किया और इस दौरान वृहद आंदोलन हुआ। इससे लोगों के जुड़ने का सिलसिला चला और इसे भारी जनसमर्थन मिला। इस बीच भारी हिंसा भी हुई थी और इसमें सैकड़ों जानें गई थी और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ था। उस समय सुभाष घीसिंग को हिल्स टाईगर की संज्ञा दी गई थी। इसी बीच 23 अगस्त 1988 को गोरामुमो, राज्य सरकार और केंद्र सरकार के साथ त्रिपक्षीय वार्ता हुई। इस दौरान दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद का गठन हुआ। परिणाम हुआ कि गोरखालैंड के नाम पर आंदोलन कर रहे लोगों को निराशा हाथ लगी। लंबे समय तक हिल्स पर राज करने के बाद वर्ष 2005 में सरकार और गोरामुमो के बीच फिर वार्ता हुई। इस दौरान हिल्स में छठी अनुसूची लागू कराने को लेकर विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराया गया, लेकिन संसद के दोनों सदन में यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। इसी दौरान जनता घीसिंग के खिलाफ खड़ी होने लगी और सात अक्टूबर 2007 को गोजमुमो का गठन हुआ। गोजमुमो सुप्रीमो विमल गुरुंग का दायरा बढ़ता गया और उनके बढ़ते जनाधार व अपने विपरीत माहौल देखकर घीसिंग को पहाड़ छोड़ना पड़ा। इसके बाद गोरखालैंड की बात ही होती रही। ऐसे में इस दल के उम्मीदवारों ने पूर्व में यह भी घोषणा की थी कि वह गोरखालैंड का मुद्दा विधानसभा में उठाएंगे। इस मसले पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा और भी कई बातें कही गई थी। हालांकि अब भी गोजमुमो कह रहा है कि वह अपने मुद्दे पर कायम है।

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