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16.6.11

जलो मत ! एक भारतीय को नोबेल शांति पुरस्कार

बधाई हो ! एक भारतीय नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित



आखिर रोटी और धर्म दोनों से गरीब हिन्दुस्तानी आदिवासिओं को महान ईसायत में बदल कर शांति में पहुंचा कर उन्होंने मानवता की उत्कृष्ट सेवा की है .

हिन्दुस्तानी आदिवासिओं की खोज खबर जब १०० करोर हिंदू नहीं ले सके , तब मजबूर होकर , उनका दिल पिघला , व उन गरीबों में उन्होंने शांति स्थापित की .

पर इस देश का दुर्भाग्य है कि कुछ देश की प्रगति से जलने वाले कुछ और नजर से देखते हैं.
देखिये वे कैसे जलते हैं :

पूर्वोत्तर में "शांति स्थापित करने"(?) के प्रयासों के लिए गुवाहाटी के आर्चबिशप थॉमस मेनमपरामपिल को एक लोकप्रिय "इटालियन मैग्जीन" बोलेटिनो सेल्सिआनो ने नोबल शांति पुरस्कार के लिए "नामांकित"(?) किया है। पत्रिका में बताया गया है कि उन्होंने पूर्वोत्तर में विभिन्न जातीय समुदायों के बीच शांति बनाए रखने के लिए कई बार पहल की।



उल्लेखनीय है कि कोई पत्रिका कभी नोबल पुरस्कार के उम्मीदवार नहीं चुनती। खबर में जानबूझकर "नामांकित" शब्द का उपयोग किया गया है ताकि भ्रम फ़ैलाया जा सके। इन आर्चबिशप महोदय ने पूर्वोत्तर के किन जातीय समुदायों में अशांति हटाने की कोशिश की इसकी कोई तफ़सील नहीं दी गई (यह बताने का तो सवाल ही नहीं उठता कि इन आर्चबिशप महोदय ने कितने धर्मान्तरण करवाए)। ध्यान रहे कि आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में ईसाई बहुसंख्यक बन चुकी है। ज़ाहिर है कि "इटली" की किसी पत्रिका की ऐसी 'फ़र्जी अनुशंसा' उस क्षेत्र में धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे चर्च के पक्ष में हवा बांधने और देश के अन्य हिस्सों में सहानुभूति प्राप्त करने की भद्दी कोशिश है।

इससे पहले भी मदर टेरेसा को शांति का नोबल और "संत"(?) की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का "शांति पुरस्कार" दिया गया, अब इन आर्चबिशप महोदय का नामांकन भी कर दिया गया है…। मैगसेसे हो, नोबल हो या कोई अन्य शांति पुरस्कार हो… इनके कर्ताधर्ताओं के अनुसार सिर्फ़ "सेकुलर" व्यक्ति ही "सेवा"(?) और "शांति"(?) के लिए काम करते हैं, एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कामधाम ही नहीं करतीं। असली पेंच यहीं पर है, कि धर्मान्तरण के लिये विश्व भर में काम करने वाले "अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं" को पुरस्कार के रूप में "सुपारी" और "मेहनताना" पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया जाता है, जब "कार्यकर्ता" अपना काम करके दिखाता है, तो उसे पहले मीडिया के जरिये "चढ़ाया" जाता है, "हीरो" बनाया जाता है, और मौका पाते ही "पुरस्कार" दे दिया जाता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार के सभी पुरस्कार एक बड़े मिशनरी अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र के तहत ही दिये जाते हैं… इन्हें अधिक "सम्मान" से देखने या "भाव" देने की कोई जरुरत नहीं है। मीडिया तो इन व्यक्तियों और पुरस्कारों का "गुणगान" करेगा ही, क्योंकि विभिन्न NGOs के जरिये बड़े मीडिया हाउसों में चर्च का ही पैसा लगा हुआ है।
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(नोट - रही बात शांति की, तो सेकुलरों को लगता है कि समूचे पूर्वोत्तर से हिन्दुओं को मार-मारकर भगाने और बाकी बचे-खुचे को धर्मान्तरित करने के बाद "शांति" तो आयेगी ही…, हालांकि हकीकत ये है कि शांति सर्वाधिक वहीं पर होती है, जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक हैं…नगालैण्ड और कश्मीर में नहीं)

2 comments:

वनमानुष said...

तुम्हारे सभी आरोप भावावेश से भरे और वास्तविकता से परे हैं.हालांकि लोभ स्वरुप कराया गया धर्म परिवर्तन एक निकृष्ट कार्य है परन्तु अगर इससे पिछड़े इलाकों की आदिवासी जनता को ज्ञान हासिल करके मुख्य धारा में शामिल होने का मौका मिलता है (जिनको आजादी से पहले और आजादी के बाद कोई हिन्दू संगठन झाँकने तक नहीं गया) तो यह कार्य प्रशंसनीय हो जाता है. ऐसा कुछ भी लिखने से पहले यदि तुमने ईसाई बहुल राज्यों की शिक्षा दर की अन्य राज्यों से तुलना कर ली होती तो तुम्हे समझ आ जाता कि अन्य धार्मिक संगठनों के मुकाबले वे कितने आगे हैं.वहीं चेन्नई में आई भीषण सूनामी के दौरान हिन्दू संगठनों ने जिस तरह जाति पूछ पूछ कर मदद बांटी और मंदिरों में जाति तथा आर्थिक वर्ग आधारित भेदभाव होते हैं,उससे तुम्हे दोनों समुदायों का अंतर समझ आ जाना चाहिए.
इसलिए मैं तुमसे सिर्फ इतना ही कहूँगा,जलो मत!

वनमानुष said...

तुम्हारे सभी आरोप भावावेश से भरे और वास्तविकता से परे हैं.हालांकि लोभ स्वरुप कराया गया धर्म परिवर्तन एक निकृष्ट कार्य है परन्तु अगर इससे पिछड़े इलाकों की आदिवासी जनता को ज्ञान हासिल करके मुख्य धारा में शामिल होने का मौका मिलता है (जिनको आजादी से पहले और आजादी के बाद कोई हिन्दू संगठन झाँकने तक नहीं गया) तो यह कार्य प्रशंसनीय हो जाता है. ऐसा कुछ भी लिखने से पहले यदि तुमने ईसाई बहुल राज्यों की शिक्षा दर की अन्य राज्यों से तुलना कर ली होती तो तुम्हे समझ आ जाता कि अन्य धार्मिक संगठनों के मुकाबले वे कितने आगे हैं.वहीं चेन्नई में आई भीषण सूनामी के दौरान हिन्दू संगठनों ने जिस तरह जाति पूछ पूछ कर मदद बांटी और मंदिरों में जाति तथा आर्थिक वर्ग आधारित भेदभाव होते हैं,उससे तुम्हे दोनों समुदायों का अंतर समझ आ जाना चाहिए.
इसलिए मैं तुमसे सिर्फ इतना ही कहूँगा,जलो मत!