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23.7.11

बिखराव के कगार पर वाममोर्चा

शंकर जालान


पश्चिम बंगाल में लगातार व रिकार्ड ३४ साल तक सत्ता पर काबिज रहा और हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस-एसयूसीआई गठबंधन के हाथों करारी हार झेलने के बाद सत्ता से दूर हुआ वाममोर्चा इन दिनों बिखराव के कगार पर है या यूं कहें कि बिखराव का शिकार हो गया है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कह सकते हैं कि जो वाममोर्चा ३४ सालों तक सत्तासीन रहा, उसमें सत्ता से दूर होते ही ३४ दिनों के भीतर मनमुटाव शुरू हो गया। वाममोर्चा के नेतृत्व करने वाली व वाम घराने में बड़े भाई की भूमिका निभाने वाली माकपा को अब मोर्चा के घटक दल चुनौती देने की मुद्रा में आ गए हैं। ये घटक दल न केवल विधानसभा चुनाव में हार की जिम्मेवारी माकपा पर थोप रहे हैं, बल्कि मोर्चा की कुछ छोटी पार्टियों ने मोर्चा से अलग होने की कवायद शुरू कर दी है। वैसे कहने को ऊपर से सभी घटक दल वाममोर्चा की एकता का राग अलाप रहे हैं, लेकिन भीतर-ही-भीतर मोर्चा में बिखराव होता जा रहा है। वाममोर्चा के जिन घटक दलों ने इन दिनों बगावती तेवर अख्तियार कर रखा है, उनमें आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी व पश्चिम बंगाल समाजवादी पार्टी प्रमुख है। मोर्चा की एक अन्य सहयोगी भारतीय कम्यूनिष्ट पार्टी (भाकपा) फिलहाल मौन है। हालांकि इसके नेता भी कभी-कभार या गाहे-बगाहे माकपा के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहते हैं, लेकिन वे इस मुद्दे पर अभी उतने मुखर नहीं हुए हैं, जितने आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी व समाजवादी पार्टी के नेता दिख रहे हैं।
फारवर्ड ब्लाक के राष्ट्रीय महासचिव देवव्रत विश्वास ने तो पिछले दिनों वाममोर्चा में नेतृत्व परिवर्तन की मांग तक उठा डाली थी। यहीं नहीं, बीते दिनों संपन्न हुए महाजाति सदन में पार्टी के ७२वें स्थापना दिवस के मौके पर वक्तव्य रखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर एक वृहद वाममोर्चा गठन का प्रस्ताव दिया था। साथ ही उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मोर्चा के नेतृत्व के मुद्दे पर माकपा की योग्यता को कटघरे में खड़ा किया था। वहीं, पार्टी के प्रदेश सचिव अशोक घोष ने भी अपने भाषण में नैनो परियोजना के लिए टाटा को हुगली जिले के सिंगुर में दी गई जमीन की प्रक्रिया पर सवाल उठाया था।
कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल में लगातार सात बार सत्ता में रहे वाममोर्चा में सत्ता से बाहर होते ही सात सप्ताह भी एकता कायम नहीं रह सकी। राजनीतिक हल्कों में यह भी चर्चा है कि माकपा में बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु और पार्टी के महासचिव प्रकाश करात पार्टी के दिग्गज व दिवंगत नेता ज्योति बसु, अनिल विश्वास और हरकिशन सिंह सुरजीत का सटीक व सही विकल्प नहीं बन सके। ज्योति बसु ने २१ जून १९७७ को पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के शासन में आने पर मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला था और कुशलतापूर्वक वे वर्ष २००० तक यानी लगातार २३ सालों कर इस जिम्मेवारी को निभाते रहे। सन २००० में शारीरिक अस्वस्थता की वजह से उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी बुद्धदेव भट्टाचार्य को सौंप दी थी।
बुद्धदेव भट्टाचार्य दिवंगत ज्योति बसु के सही उत्तराधिकारी नहीं बन पाए। इसी तरह माकपा के दिवंगत नेता व पार्टी के पश्चिम बंगाल प्रदेश इकाई के सचिव अनिल विश्वास के निधन के बाद वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु ने पार्टी प्रदेश सचिव का पद संभाला था, लेकिन लगातार पिछले कई चुनावों में हार के बाद अब विमान बसु की काबिलियत पर भी सवाल उठने लगे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विमान बसु भी बुद्धदेव भट्टाचार्य की तरह अनिल विश्वास के सटीक उत्तराधिकारी बनने में विफल रहे।
माकपा के महासचिव प्रकाश करात पर तो इन दिनों पार्टी के भीतर और बाहर लगातार आक्रमण हो रहा है। प्रकाश करात वर्ष २००५ में हुए माकपा के राष्ट्रीय अधिवेशन (पार्टी कांग्रेस) के बाद पार्टी के महासचिव के पद पर आसीन हुए थे। पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी शरीरिक दुर्बलता का हवाला देते हुए यह पद छोड़ दिया था और तब प्रकाश करात पार्टी के महासचिव चुने गए थे। तब से लेकर अपवाद स्वरूप वर्ष २००६ के छोड़कर पश्चिम बंगाल में छोटे-बड़े जितने भी चुनाव हुए उनमें वाममोर्चा और विशेषकर माकपा को मुंह की खानी पड़ी। चाहे २००८ का पंचायत चुनाव हो या फिर २००९ का लोकसभा चुनाव और २०१० का नगर निगम व नगरपालिका चुनाव।
इन सभी चुनावों में वाममोर्चा व माकपा शिकस्त खाती रही। २०११ के विधानसभा चुनाव में तो मानो वाममोर्चा का सूपड़ा ही साफ हो गया। राज्य की २९४ सीटों में से वाममोर्चा को मात्र ६२ सीटों पर ही कामयाबी मिली। इस वजह से माकपा की बंगाल इकाई में पार्टी महासचिव प्रकाश करात के खिलाफ विरोधी स्वर उभरने लगे। पार्टी के बंगाल इकाई के नेता मानते हैं कि प्रकाश करात द्वारा लिए गए कुछ गलत फैसलों की वजह से माकपा का इतना बुरा हाल हुआ है। इनमें २००८ में केंद्र में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार से परमाणु करार के मुद्दे पर वाममोर्चा का समर्थन वापस लेने का फैसला प्रमुख है।
बारिकी तौर पर देखा जाए तो मोर्चा की विफलता में यदि प्रकाश करात की नीतियां दोषी हैं, तो माकपा की पश्चिम बंगाल इकाई की एक के बाद एक गलतियां भी कम जिम्मेवार नहीं हैं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन ने पश्चिम बंगाल वाममोर्चा की न केवल नींव हिला दी, बल्कि इसके मजबूत किले को भी ध्वस्त कर दिया। इन सब की वजह रही बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु, निरूपम सेन, गौतम देव जैसे माकपा नेताओं की वे नीतियां, जिसने इस राज्य में ३४ साल के वाम शासन को सत्ता से उखाड़ फेंका।
वर्ष २००६ में राज्य की २९४ विधानसभा की सीटों में से २३५ पर जीत हासिल करने वाले वाममोर्चा को २०११ के विधानसभा चुनाव में महज ६२ सीटों से संतोष करना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस-एसयूसीआई गठबंधन ने इस चुनाव में वाममोर्चा का विजय रथ रोक दिया।
वैसे माकपा ने कहा है कि आगामी दिनों में इस अप्रत्याशिक हार की समीक्षा की जाएगी। साथ ही यह भी कहा है कि वाममोर्चा राज्य में एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगा, लेकिन हार के बाद पार्टी कैडरों और कार्यकर्ताओं का मनोबल एकदम से टूट गया है। वे अब बुद्धदेव भट्टाचार्य, विमान बसु व गौतम देव जैसे नेताओं को इस हार का जिम्मेवार ठहरा रहे हैं। उनका सबसे ज्यादा गुस्सा पार्टी के महासचिव प्रकाश करात पर है।
इधर, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य इन दिनों खुद को पार्टी कार्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट व अपने आवास तक सीमित कर लिया है। यहां तक कि माकपा पोलित ब्यूरो का सदस्य होने के बावजूद उन्होंने पिछले दिनों हुई पोलित ब्यूरो की बैठक और केंद्रीय कमिटी की बैठकों में हिस्सा नहीं लिया। वैसे बुद्धदेव बीते कुछ सालों से लगातार माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक में गैरहाजिर होते रहे हैं। हाल में विधानसभा चुनाव में घोर व अपमानजनक पराजय के बाद तो उन्होंने पोलित ब्यूरो व पार्टी की केंद्रीय कमिटी से हटने की इच्छा जताई थी। हालांकि बाद में पार्टी ने उन्हें (बुद्धदेव को) मना लिया और वे फिलहाल पार्टी के दोनों संगठनों से जुड़े हैं।
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की इस दुर्गति के लिए माकपा के नेता व राज्य के पूर्व आवास मंत्री गौतम देव भी बड़े जिम्मेवार हैं। २०११ के विधानसभा चुनाव के दौरान विरोधी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ गौतम देव का बड़बोलापन कुछ इस कदर बढ़ा कि इसने चुनाव में पार्टी की पूरी फजीहत ही करा दी। इसी तरह राज्य के पूर्व भूमि व भूमि सुधार मंत्री व इस बार के चुनाव में माकपा के चंद जीतने वाले नेताओं में शुमार अब्दुर रज्जाक मोल्ला का बगावती सुर भी कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। बीच-बीच में मोल्ला ऐसा बयान जारी कर देते हैं कि माकपा नेतृत्व को उनको समझाने-बुझाने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
इसी तरह लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का मुद्दा भी रह-रहकर पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। वैसे सोमनाथ चटर्जी ने विधानसभा चुनाव में गौतम देव समेत कई माकपा उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया था, लेकिन चुनाव बाद की परिस्थितियों में उनके देवर भी बदल गए। १३ मई को विधानसभा चुनाव के नतीजा आने व राज्य की मुख्यमंत्री का दायित्व संभालने के बाद ममता बनर्जी ने सोमनाथ चटर्जी के साथ मुलाकात की थी। हालांकि ममता ने इस मुलाकात को सौजन्यपूर्ण मुलाकात कहा था, लेकिन इससे माकपा नेताओं की स्थिति बगलें झांकने जैसी हो गई थी।
याद रहे कि वर्ष २००८ में पार्टी के निर्देश का उल्लंघन करने के आरोप में माकपा महासचिव प्रकाश करात ने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। बावजूद चटर्जी खुद को वामपंथी बताते रहे और विधानसभा चुनाव में उन्होंने माकपा के पक्ष में प्रचार भी किया।
इधर विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद से पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों में अवैध हथियारों की बरामदगी भी माकपा की परेशानी का कारण बनी हुई है। क्योंकि से सारे अवैध हथियार माकपा के स्थानीय कार्यालयों या पार्टी नेताओं के घर के आसपास मिल रहे हैं। हालांकि माकपा इसके पीछे तृणमूल कांग्रेस व राज्य पुलिस की मिली-भगत को वजह बता रही है और इसे वह पार्टी के खिलाफ साजिश करार दे रही है। यही नहीं राज्य में राजनीतिक हिंसा के पीछे भी माकपा खुद को पाक साफ बताते हुए इसे तृणमूल की साजिश बताने में लगी है, लेकिन पार्टी की यह सारी कवायद लगभग विफल साबित हो रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वाममोर्चा गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है और बिखराव के सम्मुख पहुंच गया है।

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