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28.7.11

दब न जाये कहीं भारत-पाक की एक सम्मिलित आवाज



भारत-पाक संबंध इनके स्थापना काल से ही एक तलवार की धार पर चलने सरीखे हैं, जिन्हें इनकी राह से भटकाने में कई स्वार्थजन्य तत्व भी छुपे हुए हैं. कहते हैं मो. अली जिन्ना को भी आगे चलकर अपने इस निर्णय के औचित्य पर संदेह होने लगा था, मगर तबतक राजनीति की शतरंज के खिलाडी अपने खेल में काफी दूर निकल चुके थे. उस दौर की विभीषिका झेल चुकी एक पीढ़ी अपने स्तर पर इतिहास की इस भूल को सुधारने के प्रयास करती रही. अब जब दोनों मुल्कों में एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ चुकी है जो इतिहास के उस कटु अनुभव की छाया से पूर्णतः मुक्त है. इन दोनों पीढ़ियों के मध्य एक विरासत के रूप में हस्तांतरण हो रहा है एक स्वप्न का जिसमें दोनों देशों के अपनी साझी संस्कृति, इतिहास की पृष्ठभूमि में एक साझे भविष्य की आधारशिला रखने के प्रयास हो रहे हैं. राजनयिक दांव-पेंचों के परे दोनों मुल्कों के आम बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा की जा रही ऐसी ही पहलों में से एक थी 15 जुलाई, 2011 को 'गाँधी स्मृति और दर्शन समिति' के तत्वावधान में पाकिस्तान के 'तहरीक-ए-निस्वां' (Tehrik-E-Niswan) समूह द्वारा प्रस्तुत नाटक 'जंग अब नहीं होगी'.

411 BCE  में एरिस्तोफेन्स (Aristophanes) रचित ग्रीक नाटक 'लिसिस्त्राटा' (Lysistrata), जो कि दुनिया की पहली स्त्रीवादी और युद्धविरोधी कृति मानी जाती है, से प्रभावित इस  नाटक का नए परिवेश में एडाप्टेशन फहमीदा रियाज और अनवर जाफरी ने किया था, जबकि इसके निर्देशन की कमान संभाली थी अनवर जाफरी और शीम किरमई ने. 

नाटक की विषयवस्तु उन दो कबीलों के इर्द - गिर्द घुमती है जिन्होंने कभी एक साथ मिलकर विदेशी शत्रुओं का मुकाबला कर विजय पाई थी, मगर बाद में आपस में ही हिंसक संघर्ष में शामिल हो गए. अपने संघर्ष की आग में ये अपने समाज की सुख, समृद्धि, विकास, महत्वकांक्षाएं सबकुछ झोंकते चले जा रहे थे. जाहिरा तौर पर युद्धों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं को ही भुगतने पड़ते हैं. किसी का सुहाग उजड़ता है तो किसी की गोद और विजयी पक्ष की प्रतिहिंसा का भी आसान लक्ष्य स्त्री ही बनती है. ऐसे में दोनों कबीलों की औरतों ने एकजुट हो इस संघर्ष को रोकने के लिए दबाव बनने की ठान ली. 

औरतें यहाँ प्रतीक हैं दोनों कबीलों की उस आवाज का जो अक्सर नेताओं द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं.

नाटक का एक दृश्य 
इसके लिए उन्होंने दो माध्यम चुने - पहला - 'मर्दों को अपने पास न आने दो' और दूसरा 'अपने खजाने पर कब्ज़ा कर लो क्योंकि हमारा धन समाज के विकास के लिए है गोले-बारूद और एटम बम खरीदने के लिए नहीं. ' इसके प्रत्युत्तर में पुरुषवादी मानसिकता और स्त्रियों के बीच गहरा द्वन्द होता है. धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में मुल्ले-मौलवियों को भी स्त्रियों की तर्कशक्ति के आगे झुकना पड़ता है. 

गोले-बारूद खत्म हो जाने के बाद भी अपने वजूद की तलाश की छटपटाहट, जो इन कबीलों में संघर्ष की स्थिति बने रहने पर ही निर्भर करती है;  दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों को मथ रही है.. मगर स्त्रियों का दबाव इन्हें भी अपने दंभ को परे रख वार्ता के लिए संग बैठने को विवश करता है. दोनों देशों के सैनिक आम दोस्तों की तरह उन्ही के शब्दों में 'पहली बार जंग की दोपहर में नहीं, बल्कि एक खूबसूरत शाम' में बैठते हैं, और कहीं दबे पड़े उस एहसास को पुनर्जीवित करते हैं कि आखिर उनकी भाषा, संस्कृति, सभ्यता सब तो एक ही थी फिर यह जंग बीच में कहाँ से आ गई !
नाटक का एक अन्य दृश्य 
इस भाव के पुनर्जीवित होने के साथ ही यह नाटक तो खत्म हो जाता है मगर यह सवाल भी छोड़ जाता है कि भारत-पाक जैसे देशों की आम जनता के उस वर्ग की क्षीण सी आवाजें क्या अपने हुक्मरानों तक पहुँच पाएंगीं, जिसमें वो बार-बार इन सहोदरों के बीच उपजे अविश्वास को दूर करने के आग्रह करते आ रहे हैं. भारत से इस विचारधारा की एक प्रखर आवाज उभरती रही हैं, तो सीमापार से भी प्रतिध्वनि न आ पा रही हो ऐसा भी नहीं है. 

मुंबई धमाकों जैसी घटनाओं के माध्यम से उभरती कट्टरपंथी ताकतों के शोर में चाहे ये आवाजें दब जा रही हों, मगर ये खामोश नहीं होंगीं. दोनों देशों की अंधवैचारिक और कट्टरपंथी पूर्वाग्रहों से मुक्त युवा पीढ़ी अपने हुक्मरानों को भी एक-न-एक दिन आत्ममंथन के लिए जरुर विवश कर देगी. और तबतक के लिए गाँधी दर्शन एक माध्यम है इस भाव का कि -

"अन्धकार से क्यों घबड़ायें,
अच्छा है एक दीप जलाएं."

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