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24.8.11

जब मैं जागता हूँ

है हमारी नींद
सचमुच ही बड़ी गहरी
मगर
जब जागता हूँ
जाग उठते हैं
करोड़ों पक्षियों के स्वर
फडकते हैं
करोड़ों पर
उषा के आगमन से
लाल ध्वज
नभ में फहरता है
कि जैसे
क्रान्ति हो रक्ताभ ;
प्राची
हो उठे अरूणाभ ;
गूंजे व्योम तक आवाज
जब मैं जागता हूँ ,
लिए अंगडाइयां उठतीं
दिशाएँ
तिमिर
चलता भाग ।

जब मैं जागता हूँ
देखता हूँ
माँ के विह्वल नैन
आते याद
माखनलाल की उस कोकिला के बैन ।

मैं सोया हुआ था
स्वप्न फिर भी देखता था ,
एक सुन्दर सी हरी चुनरी
सजी सी माँ हमारी
मुस्कुराती है
सभी को हेरती है
कि ऊपर हेम की छतरी
कि हम पर वह
कमल कर
फेरती है ।

इधर
लोलुप
हमारे स्वप्न से सोना
चुराते हैं
कि बन
गद्दार
स्वजनों को दगा दे
भाग जाते हैं ।

चलो इस बार सोयेंगे
कि जब पहरा
बिठाएँगे ,
तुम्हारे साथ मिल अन्ना
नया क़ानून लायेंगे ।


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