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26.10.11

पश्चिमी देशों की लीबिया में लोकतंत्र की स्थापना में नहीं बल्कि तेल की बंदरबांट में दिलचस्पी है

गद्दाफी के साथ लीबिया में एक युग का अंत

लेकिन पश्चिमी देशों की वहां लोकतंत्र की स्थापना में नहीं बल्कि तेल की बंदरबांट में दिलचस्पी है


एक पूर्व निश्चित पटकथा के मुताबिक, नाटो समर्थित विद्रोहियों के हाथों कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के मारे जाने के साथ ही लीबिया में न सिर्फ गद्दाफी की ४२ वर्षों पुरानी हुकूमत बल्कि उसके साथ ही एक युग का अंत हो गया. आप चाहें तो कह सकते हैं कि अरब वसंत के साथ उठी जनविद्रोह की आंधी ने एक और तानाशाह और जनविरोधी हुकूमत की बलि ले ली.

लेकिन पूरा सच यह है कि लीबिया में जो कुछ हुआ और हो रहा है, उससे यह तय हो गया है कि अरब वसंत का नेतृत्व एक बार फिर अरब जनता के हाथ से निकलकर पश्चिमी आकाओं के हाथ में पहुँच चुका है.

आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों में इस कामयाबी पर खुशी के साथ-साथ निश्चिन्तता का भाव है. इसकी वजह साफ है. असल में, लीबिया में गद्दाफी हुकूमत के खिलाफ भडके स्वाभाविक जन उभार की वास्तविक कमान राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के हाथों में नहीं बल्कि अमेरिका और नाटो देशों के हाथों में है.

सच पूछिए तो लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में नाटो ने इस विद्रोह को हड़प लिया है और लीबिया में इस तख्ता पलट की पटकथा वाशिंगटन-पेरिस और लन्दन में लिखी गई है. स्वाभाविक है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने गद्दाफी हुकूमत के अंत में ब्रिटेन की भूमिका पर खुशी और संतोष जाहिर किया है.

यह एक त्रासदी ही है कि जो अरब वसंत अरब जगत में पश्चिम के कठपुतली हुकूमतों और उनके लूट, अन्याय और दमन के खिलाफ शुरू हुआ था, वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका और उन्हीं पश्चिमी देशों की गोद में जा बैठा है जिनका अतीत बहुत आश्वस्त नहीं करता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक खुद गद्दाफी भी जिम्मेदार थे.

अगर उन्होंने अरब वसंत के साथ उठी बदलाव की आंधी के बीच दीवार पर लिखे साफ़ सन्देश को पढ़ा होता और लीबियाई जनता की भावनाओं और इच्छाओं का आदर किया होता तो शायद पश्चिमी देशों को इस तरह से नाक घुसाने की जगह नहीं मिलती.

इस मायने में गद्दाफी को अपनी राजनीतिक गलतियों और अति-आत्मविश्वास का खामियाजा भुगतना पड़ा है. वे यह समझ नहीं पाए कि न सिर्फ अरब जगत बल्कि लीबिया में भी समय बदल चुका है. यह जानते हुए भी कि लोग बदलाव चाहते हैं, गद्दाफी ने बदलाव को स्वीकार करने के बजाय ताकत के बल पर रोकने की कोशिश की और इसका फायदा उठाने में पश्चिमी देशों ने देरी नहीं की.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गद्दाफी को बदलाव को रोकने की कीमत चुकानी पड़ी है. यह एक भ्रम है कि वे लीबिया में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी घुसपैठ के खिलाफ लड़ रहे थे. खुद गद्दाफी ने इस लड़ाई को इसी रूप में पेश करने की कोशिश की लेकिन साफ है कि लीबियाई जनता के एक बड़े हिस्से ने इसे स्वीकार नहीं किया.

सच यह है कि वे अपनी तानाशाही को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. लोगों के सामने यह सच्चाई उजागर हो चुकी थी. तथ्य यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर २००३ के बाद खुद गद्दाफी बहुत बदल चुके थे. पिछले साथ-आठ सालों में उनके पश्चिम विरोधी दिखावटी बडबोले बयानों को छोड़ दिया जाए तो व्यवहार में गद्दाफी ने पश्चिमी देशों के नजदीक आने की बहुत कोशिश की. इसके लिए उन्होंने न सिर्फ पश्चिमी देशों की बड़ी कंपनियों को लीबिया में निवेश और कारोबार का मौका दिया बल्कि आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकारी कंपनियों के निजीकरण का अभियान चलाया.

हैरानी की बात नहीं है कि इस दौर में गद्दाफी की टोनी ब्लेयर, कोंडोलिजा राइस, गार्डन ब्राउन से लेकर बराक ओबामा, सिल्वियो बर्लुस्कोनी और जी-८ देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीरें दिखाई दीं. साफ़ था कि वे अरब जगत में पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी घुसपैठ और राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्जे के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले नेता के बजाय उनके साथ जोड़तोड़ और लेनदेन करनेवाले एक तानाशाह भर रह गए थे. सच पूछिए तो इस दौर में पश्चिमी देशों को भी उनसे कोई खास शिकायत नहीं रह गई थी.

आश्चर्य नहीं कि सिर्फ जनता की खपत के लिए गद्दाफी पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगानेवाले पश्चिमी देशों को इस दौर में लीबिया को हथियार बेचने में कोई हिचक नहीं हुई. उदाहरण के लिए, पिछले साल ब्रिटेन ने लीबिया को ५.५ करोड़ डालर के हथियार बेचे थे. इसी तरह, बुश प्रशासन ने २००८ में लीबिया को ४.६ करोड़ डालर के हथियारों के निर्यात की इजाजत दी थी. बदले में, गद्दाफी ने भी बहुराष्ट्रीय पश्चिमी तेल कंपनियों- शेल और एक्सान को लीबिया में तेल निकलने के आकर्षक ठेके दिए. बुश प्रशासन को खुश करने के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम को बंद करने का एलान कर दिया.

असल में, १९६९ में सत्ता में आने के बाद गद्दाफी के पहले पन्द्रह वर्ष एक हद तक अरब राष्ट्रवाद से प्रेरित और कुछ हद तक प्रगतिशील कार्यक्रमों को आगे बढ़ानेवाले थे. इस दौर में गद्दाफी ने पेट्रोलियम उद्योग के राष्ट्रीयकरण से होनेवाली आय की मदद से देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के साथ नागरिकों के सामाजिक सुरक्षा के इंतजाम किये. इससे लीबियाई जनता के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार आया. हैरानी की बात नहीं है कि मानवीय विकास के सूचकांक में आज लीबिया न सिर्फ समूचे अफ्रीका में पहले स्थान पर है बल्कि १७२ देशों की सूची में ५५वें स्थान पर है.

लेकिन १९८८ के बाद के गद्दाफी की सारी कोशिश किसी तरह सत्ता से चिपके रहने की हो गई. इसके लिए गद्दाफी ने एक ओर कट्टर इस्लाम समर्थक और पश्चिम विरोधी रेटार्रिक का सहारा लिया और दूसरी ओर, देश के अंदर विरोध की सभी आवाजों को निर्ममता से कुचल दिया. ऐसा नहीं है कि लीबियाई जनता ने गद्दाफी को मौके नहीं दिए. लेकिन गद्दाफी ने उन सभी मौकों को गवां दिया. असल में, गद्दाफी की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल और ग़लतफ़हमी यह थी कि उन्हें लगने लगा था कि पश्चिमी देशों ने उन्हें स्वीकार कर लिया है.

लेकिन वे भूल गए कि जब तानाशाहों के दिन पूरे हो जाते हैं तो हवा का रुख देखकर पश्चिम को उन्हें कूड़े में फेंकने और नए घोड़ों पर दाँव लगाने में देर नहीं लगती है. मुबारक से लेकर गद्दाफी तक पश्चिमी देशों के दोहरे चरित्र की नई मिसालें हैं. भ्रम में मत रहिए, नाटो लीबिया में लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं बल्कि गद्दाफी के बाद के लीबिया में अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ रहा है.

फ्रेंच फाइटर जेट लीबिया में जनता की रक्षा के लिए नहीं बल्कि विद्रोही राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के इस प्रस्ताव के बाद उड़ान भरने के लिए तैयार हुए थे कि गद्दाफी की विदाई के बाद देश के कुल तेल उत्पादन में से ३५ फीसदी फ़्रांस को मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि लीबिया के राष्ट्रीय संसाधनों खासकर तेल की बंदरबांट की यह शुरुआत भर है.

('नया इंडिया' में २४ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

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