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16.10.11

व्यंग्य - अस्पताल का मनमोहक सुख

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
एक बात सब जानते हैं कि जब हम बीमार होते हैं, तब इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं और डॉक्टर नब्ज समझकर इलाज करते हैं। अस्पताल जाने के बाद बीमारी छोटी हो या बड़ी, गरीबों के लिए कुछ ही दिन अस्पताल ठिकाना बन पाता है। गरीबों के लिए ‘गरीबी’ अभिशाप अभी से नहीं है, जमाने से ऐसा ही क्रूर मजाक चल रहा है। हर हालात में गरीब ही बेकार का पुतला होता है, जिसकी ओर देखने की किसी को फुरसत तक नहीं होती, वहीं जब कोई मालदार, अस्पताल की दहलीज पर पहुंचता है, उसके बाद गरीबों को हेय की दृष्टि से देखने वाले भी, उनकी तिमारदारी में लग जाते हैं। मनगढ़ंत बीमारी का शुरूर सर चढ़कर बोलता है, क्योंकि पैसा भी बोलता है।
देश में बीमारी इस कदर बढ़ रही है कि इलाज करने वाले भी नहीं मिल रहे हैं। महंगाई की बीमारी से जनता मरे जा रही है, भ्रष्टाचार की बीमारी तो संक्रामक हो चली है। जहां देखें वहां, भ्रष्टाचार की बीमारी ने पैर पसार लिया है। इस बीमारी की चपेट में अभी बड़े-बड़े सफेदपोश लोग आने लगे हैं, उनके पास अथाह पैसा भी है, जिससे वे इस बीमारी पर थाह भी पा ले रहे हैं, लेकिन कुछ लोग बीमारी की नब्ज पकड़ने में असफल साबित हो रहे हैं और वे तिहाड़ की शोभा बढ़ाते हुए वहां इलाज का मर्ज ढूंढने में लगे हैं।
भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद सफेदपोशों का बस नहीं चलता, उसके बाद उन पर सरकार की चाबुक चलती है। चाबुक ऐसी कि वे संभल ही नहीं पाते और हालात ऐसे बन जाते हैं कि बड़े से बड़ा कद्दावर का कद भी छोटा हो जाता है।
मैं एक अरसे से देखते आ रहा हूं कि सफेदपोश लोग, जब भ्रष्टाचार की बीमारी की चपेट में आने के बाद इलाज कराने रूचि नहीं लेते, लेकिन जैसे ही जेल की राह पकड़ते हैं। वे इलाज के लिए तड़प पड़ते हैं। दर्द इतना होता कि वे कराह उठते हैं। वैसे भी जेल, किसी को भी रास नहीं आती, यही कारण है कि जेल जाते ही ‘अस्पताल’ याद आ जाता है और भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद बरसों तक इलाज कराने के तैयार नहीं रहने वाला भी ‘अस्पताल’ पहुंचने को आतुर हो जाता है। अस्पताल में इलाज भी ऐसे जारी रहता है, जैसे वह ऐसी बीमारी से ग्रस्त है, जिसका इलाज संभव ही नहीं। जाहिर सी बात है कि अस्पताल के सुख और जेल की चारदीवारी, दोनों में अंतर है। इलाज के नाम पर कुछ भी खाया जा सकता है, जेल में मनचाहा स्वाद कहां नसीब होता है। जेल में महज कुछ फीट जमीं पर गुजारा होता है, जो व्यक्ति जीवन पर यायावर की तरह घूमने का आदी हो, उसका मन कैसे एक जगह पर लग सकता है ? इसी के चलते जेल जाते ही, ‘अस्पताल’, मंदिर की तरह याद आता है। जेल तो नरक ही लगती है, क्योंकि सारे जहां का सुख यहां नहीं होता।
इतना जरूर है कि जेल से अस्पताल पहुंचते ही, नरक का माहौल स्वर्ग में बदल जाता है। दो-चार दिनों की बीमारी के इलाज में महीने भर लग जाते हैं। गरीबों की नब्ज को महज हाथ देखकर समझ लिया जाता है, लेकिन सफेदपोशों की बीमारी को मशीन भी समझ नहीं पाती। कई दिनों तक जांच के बाद भी बीमारी का मर्ज पता नहीं चलता। लिहाजा, अस्पताल में सुख को कैश करने का पूरा मौका मिलता है, यह सब जेल में मुमकिन ही नहीं होता।
जब भी कोई सफेदपोश जेल पहुंचता है, उसके बाद आप तय मानिए, उसकी ‘अस्पताल’ जाने की चाहत जरूर सामने आती है। महीनों-महीनों बीमार नहीं पड़ने वाले सफेदपोश को, जैसे ही जेल की हवा खानी पड़ती है। एसी कमरे में दिन गुजारने वाले को जेल की गर्मी बर्दास्त नहीं होती, मगर ‘नोट की गरमी’ बर्दास्त करने के लिए हर पर दो पांव पर खड़े नजर आते हैं।
मेरा तो यही कहना है कि जब बीमारी को हाथ लगाने से डर नहीं लगता कि कहीं यह संक्रामक साबित न हो जाए और कभी भी चपेट में ले सकती है। इस बात के बिना गुमान किए ‘भ्रष्टाचार’ की गहराई में कूद पड़ते हैं। उन्हें जेल के सुख का भी मजा लेना चाहिए। वे अस्पताल के मनमोहक सुख के आगे नतमस्तक नजर आते हैं। मैंने कभी नहीं सुना कि किसी गरीब को जेल होने के बाद उसकी तबियत बिगड़ी हो और वह अस्पताल के सुख का इच्छा जताता हो। जेल की चारदीवारी में चाहे-अनचाहे उन्हें रहनी पड़ती है, अस्पताल की मौज गरीबों को कहां नसीब होती, क्योंकि उसके लिए खुद का जेब गर्म होना जरूरी होता है। इस मामले में सफेदपोश दसियों कदम आगे होते हैं, तभी उनका ‘जेल’ से लेकर ‘अस्पताल’ तक सिक्का चलता है। भला, मनमोहक सुख कौन पाना नहीं चाहता। ये अलग बात है कि अपना-अपना नसीब होता है।

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