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15.12.11

मुठ्ठी भर उम्मीद

सूरज की मानिंद,
आवारगी  हमारी,
ताउम्र चांद को तलाशती रही।

सूरज की चांद से ,
मिलन की,
बस इक आरजू रही।

कभी किसी रोज,
ग्रहण में वह खो जाये मुझमें,
बस मुठ्ठी भर उम्मीद यही रही।


  • रवि कुमार बाबुल



फोटो गूगल से साभार

3 comments:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत ख़ूबसूरती से एक व्यथा को परिभाषित किया ..उम्दा

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत ख़ूबसूरती से एक व्यथा को परिभाषित किया ..उम्दा

babul said...

आदरणीय डॉ. नूतन जी,
यथायोग्य अभिवादन्।

व्यथा में खूबसूरती तलाशने के लिये शुक्रिया? सरहाने के लिये शुक्रिया।

रविकुमार बाबुल
ग्वालियर