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28.3.12

लॉयल्टी


लॉयल्टी
ज़माना जरूर बेईमानी का है...लेकिन बेईमाने के धंधे में भी लॉयलटी की ही कदर है...जो लॉयल नहीं है वो किसी काम के नहीं...फिर चाहे धंधा बेईमानी का हो...या फिर...राजनीति। कहते भी हैं कि लॉयल्टी में बड़ी ताकत होती है...अपने काम के प्रति हमेशा लॉयल रहो...जिसके लिए काम कर रहे हो...जिसके साथ काम कर रहे हो उसके लिए हमेशा लॉयल रहो...देर सबेर लॉयल्टी का ईनाम आपको जरूर मिलेगा...लेकिन ज़रा सोचो तब किसी पर क्या गुजरती होगी...जब लॉयल रहने के बाद आपको किनारे कर दिया जाए। आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर ये लॉयल्टी का बात आखिर उठी क्यों है...दरअसल उत्तराखंड में चुनाव के नतीजे क्या आए...मानो कांग्रेस के विधायकों औऱ नेताओं ने दिखाना शुरू कर दिया कि वे अपने नेताओं के प्रति कितने लॉयल हैं। सवाल मुख्यमंत्री की कुर्सी का था...लेकिन कुर्सी एक थी औऱ दावेदार कई...ऐसे में दावेदारों में ही जंग छिड़ गयी कि पार्टी के लिए किसने कितनी सेवा की है...पार्टी के लिए कौन कितना लॉयल है। कसर तो किसी ने नहीं छोड़ी थी...चाहे हरीश रावत हों...विजय बहुगुणा हों...सतपाल महाराज हों...हरक सिंह रावत हों...इंदिरा हृद्येश हों या फिर यशपाल आर्य...लेकिन सबको चौंकाते हुए बाजी मार ले गये विजय बहुगुणा...औऱ मिल गयी मुख्यमंत्री की कुर्सी...ऐसे में दूसरे दावेदारों इसे कैसे बर्दाश्त करते...उनके समर्थक विधायकों को मिल गया मौका...अपने पसंदीदा नेता के लॉयल्टी टेस्ट में पास होने का...फिर उन्होंने देर कहां करनी थी...खोल दिया आलाकमान के फैसले के खिलाफ मोर्चा...आखिर ऐसे मौके बार – बार तो आते नहीं...यहां जो दौड़ में पीछे थे...उन्होंने तो आलाकमान के फैसले को ही नियति मान लिया...लेकिन जो दौड़ में आगे रहने के बाद पिछड़ गये थे...उन्होंने हार नहीं मानी औऱ अपना लिए बगावती तेवर। आलाकमान पर फैसला बदलने के लिए खूब जोर डाला...लेकिन जब लगा दाल नहीं गलने वाली तो समझौता का रास्ता तो था ही...कुर्सी न मिली न सही समझौते के बहाने कुछ तो हाथ लगेगा...सीधा मतलब है भागते भूत की लंगोटी ही सही। चुनाव में खंडित जनादेश मिला था...निर्दलीय, यूकेडी पी ऱऔ बसपा विधायकों के समर्थन की बैसाखी से सरकार खडी थी...तो दस जनपथ भी बेबस था...समझौते के बिंदुओं पर लगा दी मुहर। अब समझौते के बहाने हरीश रावत एंड कंपनी को तो मिल गयी सरकार में बड़ी हिस्सेदारी...लेकिन जो बहुगुणा के लॉयल रहे...पार्टी के लॉयल रहे वे रह गये खाली हाथ...यानि कि लॉयल्टी टेस्ट में पास होने के बाद भी उम्मीद के विपरित सौगात तो मिली नहीं दरकिनार कर दिए गये...यानि की लॉयल्टी...राजनीति से मात खा गयी...कहते भी हैं राजनीति में सब चलता है...सब कुछ होता है...या कहें कुछ भी हो सकता है...इसलिए जनाब जब राजनीति के मैदान में हो...तो हर चीज के लिए तैयार रहो...राजनीति में लॉयल्टी से कुछ नहीं होता...होता है तो सही समय पर सही फैसला लेने से...यानि मौका देखो के चौका मारो...यही राजनीति है...औऱ कुर्सी पानी है तो सिर्फ लॉयल्टी से काम नहीं चलने वाला।
दीपक तिवारी

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