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28.5.12

हम भारत के लोग

                    केजरीवाल हो या अन्ना या फिर बाबा रामदेव या उनकी तरह सत्ता-प्रतिस्ठानों की नीति और नियत पर सवाल खड़ा करने वाला कोई ओर आम आदमी सत्ता-प्रतिष्ठानों की सर्वोच्चता के दंभ का शिकार हो रहा है ! इन लोगों की भाषा-शैली पर सवाल खड़े किये जा सकतें है पर केवल इस कारण से मूल-मुद्दों को दरकिनार नहीं किया जा सकता !
               आज मूल्यों, नैतिकता और उसूलों की सिर्फ बातें ही होती है पर हकीकत में तो तमाम नेता घटिया परम्पराओं को ही बढ़ावा दे रहें है ! दागी लोगों को दरकिनार कर दाग मिटाने के बजाय सवाल खड़े करने वालों को ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा है मानों वे ही दागी हो! यह मात्र दंभ है ! 'सर्वोच्चता का दंभ' ! सोचने की बात है की एक आदमी के कहे को इतनी अहमियत क्यों ? जाहिर है सर्वोच्च-संस्था के दंभ में भी कहीं कुण्ठा है, टीस है, आत्म-स्वीकृति है - सर्वोच्च न होने की !
               समूह में होने पर सर्वोच्च होने और सर्वोच्चता  बनाये रखने का ढोल पीटने वाले वही जन-प्रतिनिधि जन-सभाओं में जनता-जनार्दन के सामने 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' की मुद्रा में साष्टांग करते नज़र आतें है ! इतना ही नहीं महामना भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में सविंधान सभा  द्वारा बनाये गए  सविंधान की उद्देशिका में ही कहा गया है - "हम,  भारत के लोग ............इस सविंधान को अंगीकृत, अधिनियमित और  आत्मार्पित करते है" इस प्रकार यह  'restatement of social compact' हुवा  और इस संविधान से ही सत्ता-प्रतिष्ठान का सारा ताना-बना बुना गया है ! 
                   माननीय न्यायपालिका ने भी 'सविंधान की उद्देशिका'को सविंधान की आत्मा करार देते हुवे बार-बार निर्णित किया है की कोई भी सविंधान संशोधन इस के विपरीत होने पर असंवैधानिक होगा ! तो फिर बड़ा कौन ? 
                  इतना ही नहीं विधायिका, कार्यपालिका और माननीय न्यायपालिका ही नहीं केंद्र और राज्य सरकारों और यहाँ तक की महामहिम राष्ट्रपति  और महामहिम राज्यपाल महोदय तक में बड़ा कोन का प्रश्न बार-बार उठ खड़ा होता है ! मात्र  विधिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो ये सभी सत्ता-प्रतिष्ठान अपने-अपने दायरे में  सर्वोच्च है  पर ये सर्वोच्चता स्वीकार्यता से है ! प्रजा जब चाहे अपनी सर्वोपरिता साबित कर देती है  यह तो  लोकतंत्र है लोक-शक्ति के आगे तो सैन्य-तंत्र और तानाशाही भी धुल-धूसरित हो जाती है फिर भी सर्वोच्चता का दंभ ? कुलमिलाकर सर्वोच्च संस्थाओं में सुधार की न इच्छा-शक्ति है और न कोई स्पस्ट रणनीति ! अब तो नीति ही नहीं नीयत में ही खोट नज़र आने लगा है ! ऊपर से सर्वोच्चता का दंभ आमजन को ही चेतना होगा !       
                     यह दंभ राजनेताओं में ही नहीं सत्ता-प्रतिष्ठानों में भी हावी होता जा रहा है ! 'अधीनस्थ संस्थाओं को सर्वोच्च संस्था की अधीनता स्वीकार करनी ही होगी'! केंद्र आये दिन राज्यों को और राज्य स्थानीय निकायों को हड़काते रहतें है ! किसी भी राजनितिक पार्टी का अध्यक्ष अपनी तो, क्षत्रप अपनी धोंसपट्टी दिखाते नज़र आते है ! इसी मजबूरी में  इतना बड़ा मंत्रिपरिषद घोषित होता है की स्वयं मुखिया को भी अपने मंत्री और उसके पद तक  अपने पूरे कार्यकाल में याद नहीं हो पाते  और इस बन्दर-बाँट में इसको या उसको पटाने या किसी को हटाने के चक्कर में ४-६ माह में ही मंत्रिमंडल का नए सिरे से गठन हो जाता है !अन्दर और बाहर के समर्थन की बेचारी सरकारें विकास न कर पाने का रोना ही रोती रहती है,पर पैसा और पद देकर संतुष्ट तो सभी को करना पड़ता है
केद्रीय या राज्य मंत्री हो , स्वतंत्र प्रभार हो या राष्ट्र पर भार 
मुलायम ममता हो या माया,सत्ता सुख चाहे सबकी काया !
एक वस्त्र धारी बाबा को, लेन-देन का अस्त्र बनाया !
दिल से निकला बापू, जेबों में न समाया !
छोटा पड़ा भारत, स्वित्ज़रलेंद है भाया ! 
दागी हमको न बोलो, हमने दाग छुड़ाया ! (अपनी गरीबी और ईमानदारी का दाग)
दागी तो तुम हो, दाग पोंछना नहीं आया !
आलतू जलालतू, पड़े चिल्ला रहे फालतू (PCRF)!
सीधा उलझो मत, पहले सीखो आई बला को टाल तूं !

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