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23.9.12

अकर्मण्य और कर्मशील


अकर्मण्य और कर्मशील 

एक पत्थर नदी के बहाव में बहता हुआ समुद्र की चट्टान के पास रुक गया। चट्टान ने उसे
उपहास के भाव से देखा और कहा - मित्र , तू सैंकड़ों मील से पानी के बहाव  के साथ बहता
रहा,पानी में बहते-बहते तू  अपना  यथा रूप भी नही बचा पाया। तू घुड़ता -पड़ता बहता रहा
और लम्बा गोल पिंड जैसा बन गया।मुझे देख मैं बरसों से एक ही जगह ताकत के साथ खड़ी
हूँ और पानी की लहरों से मुकाबला करती हूँ। तू मिलो लम्बी यात्रा करके भी आज तक क्या
कुछ पा सका है?

       छोटे पिंड रूपी पत्थर ने जबाब दिया- यह सच है की मैं पानी के साथ सैंकड़ो मील की
यात्रा करता रहा और अपना मूल स्वरूप भी नही बचा सका लेकिन मुझे ख़ुशी है कि मैं
तेरी तरह एक जगह पड़ा नही रहा।तुम वर्षो से यही पड़ी-पड़ी पानी से टकरा रही हो और
व्यर्थ पानी से टकरा कर अकर्मण्य जीवन गुजार रही हो जबकि मैं पानी के बहाव  के साथ
सदा गतिशील रहा हूँ  तेरी तरह व्यर्थ पानी से टकराता नहीं रहा और अकर्मण्य नही रहा।

  चट्टान छोटे से पत्थर की बात पर उपहास से मुस्करा उठी तभी एक राहगीर उधर से
गुजरा उसने चट्टान के पास पड़े बेलनाकार पिंड रूपी पत्थर को उठाया और उसे चट्टान
पर रख दिया। उस राहगीर ने आस-पास से कुछ फूल इकट्टे किये और श्रद्धा के साथ
उस पिंडी रूपी पत्थर पर अर्पित कर दिए  और उस पिंडी को हाथ जोड़कर उसकी शिव रूप
से स्तुति की और माथे पर चढा कर उसे ले जाने लगा।

  छोटी पिंडी ने चट्टान से कहा -हे निरर्थक चट्टान ,तुझे अब तो समझ आ गया होगा कि
गतिशील रहना कितना आवश्यक है। मेरी पानी के साथ गतिशीलता ने मुझे पूज्य बना
दिया और तेरी अकर्मण्यता के कारण तू सदियों से पानी की थपेड़े खा रही है और खाती
रहेगी।

सार - अकर्मण्य जीवन जीने का कुछ भी महत्व नही है        

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