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23.9.12

राजनीति,वेश्या और धोखा-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वेश्याओं के बारे में कहा जाता है कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। वे कभी किसी की गोद में जा बैठती हैं तो कभी किसी और की गोद में। परन्तु हम अपने उन नेताओं के लिए सही विशेषण कहाँ से लाएँ जो इन वेश्याओं से भी गए बीते हैं? शायद संसार की किसी भी भाषा में इनके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। कभी भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालक राम के चेहरे की तुलना के लिए भाषा और साहित्य की सारी उपमाओं को कमतर मानते हुए उनके चेहरे की तुलना उनके चेहरे से ही की थी। हमारे समक्ष भी फिर से वही स्थिति है लेकिन इस बार उसका स्वरूप दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल हमारे कई नेताओं के चरित्र की तुलना दुनिया में सिर्फ हमारे नेताओं के चरित्र से ही की जा सकती है। वेश्या का चरित्र एक विकल्प हो सकता था परन्तु यहाँ तो वह भी अपर्याप्त है। हमारे नेताओं के बोल बच्चन की कोई गारंटी नहीं है। अब अपने नेताजी सुभाष बाबू की नहीं भैया मैं मुलायम सिंह यादव की बात कर रहा हूँ,को ही लीजिए। अब जिसकी तुलना वेश्या से हो सकती है उसकी तुलना सुभाष चन्द्र बोस से थोड़े ही हो सकती है। तो मैं कह रहा था कि श्रीमान् एक दिन तो केंद्र सरकार के खिलाफ रहते हैं तो दूसरे दिन ही उसके साथ खड़े नजर आते हैं। वे ईधर भी हैं और उधर भी। जो जनता भारत बंद में उनके आह्वान पर एक दिन पहले रेल-सड़क जाम करती है अगले ही दिन खुद को ठगाया हुआ पाती है जब नेताजी अपने उसी मुख से कहते हैं कि वे तो केंद्र सरकार के साथ ही हैं मगर वे अब भी पेट्रो उत्पादों की मूल्य-वृद्धि और खुदरा-व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करते रहेंगे। ऐसा कैसे संभव हो सकता है? क्या कोई एकसाथ गाल फुला सकता है और हँस सकता है परन्तु अपने नेताजी न केवल ऐसा कर सकते हैं बल्कि कर भी रहे हैं। वे एक साथ केंद्र सरकार से खुश भी हैं और नाराज भी। एक क्षण में कुछ और कहते हैं तो दूसरे ही पल में पहले से एकदम विपरीत कुछ और। पता ही नहीं चलता कि उनके कई-कई मुँह हैं या कई-कई जुबानें। उनके बार-बार और रोज-रोज पाला बदलने के पीछे का रहस्य तो वही जानें मगर उनके बार-बार इस तरह गुलाटी खाने और गोद बदलने को जनता के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है और इससे जनता के मन में राजनीतिज्ञों के प्रति संदेह और घृणा के भाव में बढ़ोतरी ही हो रही है। इस तरह किसी से एक साथ खुश और नाराज तो शायद अतिअभिनयकुशल वेश्या भी नहीं हो सकती। धन्य हैं हमारे हमारे उत्तर प्रदेश के उत्तम नेताजी!
                                                 मित्रों,मुलायम सिंह यादव जी वाली चरित्र-स्खलन वाली बीमारी बिल्कुल भी असंक्रामक नहीं है बल्कि इसने कई अन्य नेता बंधुओं को भी ऑलरेडी अपनी चपेट में ले लिया है तो कुछ को अपने लपेटे में लेने की ताक में है। लालू-रामविलास-करुणानिधि-शरद पवार आदि (इस आदि में आदि से अंत तक लगभग सारे नेता समाहित हैं) पहले से ही वारांगनाओं की तरह निष्ठा-परिवर्तन में माहिर हैं तो अब इन सबकी अपेक्षा स्थिरमति माने जानेवाले नीतीश कुमार का मन भी चंचल होने लगा है। जनाब कभी कांग्रेसी पाले में जाने की बात करते हैं तो कभी कहते हैं कि अभी तो मैं जवान हूँ और जो मेरे मन की मानेगा मैं तो उसी का साथ दूंगा। जनाब यह भूल गए हैं कि बिहार में उनकी भाजपा के साथ बहुप्रशंसित साझा सरकार है और भाजपा ने भूतकाल में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए क्या-क्या पाप किए हैं। यह भाजपा ही थी जिसकी केंद्र सरकार ने उन्हें वर्ष 2000 ई. में 3 मार्च से 10 मार्च तक 7 दिनों के लिए जबर्दस्ती मुख्यमंत्री बनवा दिया था जबकि वाजपेया सरकार को यह अच्छी तरह से पता था कि नीतीश कुमार के पास बहुमत नहीं है। उस समय तत्कालीन केंद्र सरकार की इसके लिए कितनी किरकिरी हुई थी इसके गवाह आज भी उस समय की पत्र-पत्रिकाएँ हैं जिनका अवलोकन किसी भी पुस्तकालय में आकर आसानी से किया जा सकता है। नीतीश कुमार यह भी भूल गए हैं कि पिछले विधानसभी चुनावों में भाजपा उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत उनकी पार्टी के उम्मीदवारों से कहीं ज्यादा था। पिछले 7 सालों में बिहार का जो भी थोड़ा-बहुत विकास हुआ है वह अकेले नीतीश कुमार या जदयू की उपलब्धि नहीं है बल्कि भाजपा के कोटे के मंत्री अपेक्षाकृत ज्यादा कुशल,साहसी और ईमानदार हैं। फिर नीतीश कुमार इस तथ्य को भूलकर कैसे भूल से भी ऐसी भूल कर सकते हैं? यह आरोप तो हम आम जनता पर लगता रहा है कि हम बहुत जल्दी सबकुछ भूल जाते हैं और भ्रष्टों को दोबारा जिता देते हैं परन्तु यहाँ तो नेताजी ही सबकुछ भूल रहे हैं।
                   मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले ही बिहार के एक अन्य दिग्गज नेता जिनका जिक्र हम इस आलेख में पहले भी अलग संदर्भ में कर चुके हैं,.रामविलास पासवान जी ने अपनी जि़न्दगी के पुराने काले पन्नों को पलटते हुए कहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए तैयार थे परन्तु तब इन्हीं नीतीश कुमार ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था क्योंकि उनको लगता था कि अगर ऐसा हुआ तो इसका सारा फायदा और श्रेय लालू प्रसाद यादव ले उड़ेंगे। नीतीश जी ने अभी तक भी इसका खंडन नहीं किया है जिससे ऐसा लगता है कि रामविलास जी इस बार सच में सच बोल रहे हैं। क्या नाटक है कि जब विशेष राज्य का दर्जा स्वतः मिल रहा था तब तो उन्होंने इसे लिया ही नहीं और अब जब यह सिर फोड़ लेने पर भी नहीं मिलनेवाला है तो इसके लिए वे अधिकार-यात्रा पर निकले हुए हैं और इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी पार्टी या गठबंधन की गोद में बैठने को तैयार होने की बात करते हैं। और हद तो यह है कि जब कांग्रेस की ओर से फिर भी कोई आश्वासन नहीं मिलता है तो मन मसोसकर कहते हैं कि उन्होंने तो यह बात 2014 के चुनाव के संदर्भ में कही थी। तो क्या उन्हें अभी विशेष राज्य का दर्जा नहीं चाहिए फिर इतना ड्रामा क्यों? अगर सचमुच में वर्तमान केंद्र सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देती है तो क्या नीतीश सचमुच एनडीए को छोड़कर यूपीए में शामिल हो जाएंगे और तब उनके नेतृत्ववाली बिहार सरकार का क्या होगा? कांग्रेस तो बिहार में है ही नहीं फिर क्या नीतीश या उनके दल में इतनी ताकत है कि वह अकेले अपने बलबूते पर चुनाव जीत सके?
                मित्रों,नेताजी के ध्यान में अगर 2014 का चुनाव ही था तो फिर उनको तब तक मन-बेमन से गठबंधन-धर्म का पालन करते हुए इंतजार करना चाहिए था खुद अपने मुखचंद्र पर अपने ही करकमलों से कृतघ्नता की कालिख पोतने की जरूरत ही क्या थी?  हो सकता है कि चुनावों के बाद उनके गठबंधन की ही केंद्र में सरकार बन जाए और वे याचक से दाता बन जाएँ। जाहिर है कि नीतीश जी सफेद झूठ बोल रहे हैं। दरअसल उनका मन भाजपा से भर गया है और अब वे उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं लेकिन उनको इसका कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। शायद वे मुलायम की तरह ही अपनी छवि कथित विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष नेता की बनानी चाहते हैं भले ही इसके लिए उनको खुद को शून्य से शिखर तर पहुँचानेवाली सहयोगी पार्टी को धोखा ही क्यों न देना पड़े या फिर वे भाजपा से नाराज होने का झूठा नाटक करके खुद को भी धोखा दे रहे हैं।
                   मित्रों,वैसे अपने प्रेमियों को धोखा तो वेश्याएँ भी खूब देती हैं लेकिन उनकी संख्या तो फिर भी सीमित होती है हमारे नेता तो एकसाथ करोड़ों दिलों से खेलते और तोड़ते हैं और इस तरह इस मामले में भी उनका चरित्र अद्वितीय है। कुल मिलाकर इस पूरे ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई दूसरी वस्तु या ऐसा कोई दूसरा मानव-दानव-देव-गन्धर्व जीवित नहीं नहीं है जिसके चरित्र की तुलना हमारे भारत के नेताओं के चरित्र से की जा सके। आईए नेता-चरित्र अतिघिनौनी चर्चा के बाद अंत में प्रभु के पतित-पावन चरित्र का स्मरण करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि-तुलसीदास अति अनंद देखी के मुखारविंद,रघुबर छबि के समान रघुबर छबि बनिया; ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया, ठुमक चलत रामचंद्र.............।

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