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30.11.12

जाल में शिकारी फंस जायेंगे


दो पत्रकारों को कथित धन उगाही के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और दो दिनी पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया ! धन उगाही के आरोप में देश का एक बड़ा इलेक्ट्रोनिक {z news}मिडिया पुलिस के पेंच में फंस गया हैमुझे अमिताभ बच्चन की डान फिल्म के उस गीत की लाइने याद रही है जिसमे किशोर दा ने कहा है......जो है शिकारी उन्हें खेल हम सीखाएँगे,अपने ही जाल में शिकारी फंस जायेंगे ! कुछ ऐसे ही शिकारी निकले नवीन जिंदल !
पत्रकार बिरादरी बँट गई है!आमतौर पर पत्रकारों के संपन्न समुदाय का तर्क है कि ये प्रेस की आज़ादी का मामला है और इसकी जाँच पत्रकारों के ही किसी संगठन को करनी चाहिए. जबकि वंचित पत्रकारों का समुदाय इस मामले में बहुत से सवाल उठा रहा है !कईयों ने सरकार और उसकी उस दादागिरी पर भी सवाल खड़े कर दिए है जिसमे मिडिया की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती दिख रही है !इन दोनों के बीच भी एक वर्ग है वो संपन्न है और वंचित दिखना चाहता है. वो दोनों नावों में सवार है!पत्रकार और उनके संस्थान को इस बात से इनकार नहीं है कि उन्होंने उद्योगपति से मोलभाव किया था! उनका तर्क है कि वे उद्योगपति की पोल खोलना चाहते थे!दिलचस्प है कि जिसे पोल खोलनी था उसने स्टिंग ऑपरेशन नहीं किया. स्टिंग ऑपरेशन किया उसने, जिसकी पोल खुलने वाली थी !ये पेंचदार बात है ! आम लोगों को सिर्फ़ कील का माथा दिख रहा है, कील के भीतर के पेंच नहीं दिख रहे हैं!
ये पूरा मामला औद्योगिक-व्यावसायिक और मीडिया संस्थानों की कार्यप्रणाली से जुड़ा हुआ है!एक अख़बार के मालिक और संपादक ने कहा है कि कंपनियों के जनसंपर्क अधिकारियों और उनके लिए काम करने वाली जनसंपर्क कंपनियों के प्रतिनिधियों का भी स्टिंग ऑपरेशन करना चाहिए जिसमें वे कंपनी की ख़बरें रुकवाने के लिए आते हैं!बात सही है, उम्मीद करनी चाहिए कि वे ऐसा करेंगे क्योंकि वे एक मीडिया संस्थान के मालिक भी हैं !ऐसा करना किसी संपादक के बूते की बात नहीं है ! अख़बार या टीवी कंपनी का मालिक ऐसा करने नहीं देगा ! सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को समझदार व्यक्ति मार ही नहीं सकता!एक संपादक मित्र की सलाह है कि संपादकों और ब्यूरो प्रमुखों के लिए हर साल अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना ज़रुरी कर देना चाहिए !वे ये सलाह देने से चूक गए कि मीडिया संस्थानों के मालिकों को ऐसा करना चाहिए !
'पेड न्यूज़' यानी ख़बरों को अपने पक्ष में छपवाने/चलवाने के लिए भुगतान किए जाने का मामला पिछले कुछ समय से गर्म है. राजनेता कथित रूप से चिंतित हैं ,लेकिन इससे बड़ा मामला ख़बर को ना छापने या रोकने के लिए होने वाले भुगतान का है! जितना मीडिया व्यवसाय दिखता है उससे तो बस रोटी का जुगाड़ होता है, उस रोटी पर घी तो ख़बर रोकने या तोड़ने-मरोड़ने के धंधे से चुपड़ी जाती है !
विज्ञापन से लेकर ज़मीनें सरकारें ख़बर छापने के लिए नहीं, छापने के लिए देती हैं !ये आपराधिक सांठगांठ है. उद्योग-व्यवसाय और मीडिया के बीच. राजनीतिक वर्ग और मीडिया के बीच !दरअसल जो ख़बर दिखती हैं, वो तीन तरह की होती हैं !एक वो जिसमें मीडिया संस्थान की लाभ-हानि का सवाल ही नहीं होता, दूसरी वो जिससे मीडिया संस्थान का कोई राजनीतिक या आर्थिक हित सधता है और तीसरी वो जो राजनीतिक-आर्थिक लाभ सधने की आस टूटने के बाद प्रकाशित-प्रसारित होती है !
यक़ीन मानिए कि असल में जो ख़बर है, वो नदारद है. कुछ अपवाद हो सकते हैं. लेकिन वो सिर्फ़ अपवाद हैं !मीडिया पर समाज अब भी बहुत भरोसा करता है, लेकिन मीडिया क्या इसको बरकरार रख पा रहा है? यक़ीनन नही,मै ये मानता हूँ की जब तक मिडिया के ऊपर उद्योगपतियों या बड़े कारोबारियों का कब्ज़ा रहेगा तब तक समाज में जरूरत मंदों के बीच विश्वास लम्बे समय तक कायम रखना कठिन होगा ! हकीकत तो ये भी है हम उन ख़बरों को दिखा ही नही पाते जिससे समाज को सरोकार होता है,वजह फिर वही मिडिया के मालिकों {व्यापारियों} का सीधा हस्तक्षेप ! समाज की समस्या की वजह बहुत हद तक वो ही लोग है जिनके मुठ्ठी में निष्पक्ष ख़बरें दिखाने,लिखने का दंभ भरने वाले हम जैसे कलमकार है ! खैर देश में एक इलेक्ट्रोनिक मिडिया के साथ जो हुआ वो नीरा राडिया टेप काण्ड की याद ताजा कर देता है ! इस समय तो इक़बाल के एक शेर का एक मिसरा याद आता है, "यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ऐतबार होगा" !

मनमोहन पर भारी “M”

एफडीआई पर सरकार भले ही अपनी सुविधानुसार अपने सहयोगियों का नरम रूख देखते हुए दोनों सदनों में बहस के साथ ही वोटिंग के लिए तैयार हो गई हो...लेकिन मनमोहन सिंह पर एक बार फिर से एम फैक्टर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है। एम फैक्टर में सरकार से अलग हो चुकी ममता बनर्जी के साथ ही सरकार की बैसाखी बने मुलायम सिंह और मायावती का पल पल बदलता रूख मनमोहन सिंह की बेचैनी बढ़ाने के लिए काफी है। एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने से पहले तक किसी भी नियम के तहत वोटिंग के लिए तैयार होने की बात करने वाली सपा और बसपा का रूख बदलने से सरकार की मुश्किल बढ़ गई है। मुलायम सिंह की सपा ने जहां राज्यसभा में एफडीआई पर नियम 168 के तहत बहस के बाद वोटिंग में जहां सरकार के खिलाफ वोट करने का ऐलान कर दिया है तो लोकसभा में अपना रूख अभी तक स्पष्ट नहीं किया है। ऐसा ही कुछ हाल बसपा का भी है। सरकार से अलग हो चुकी एक और एम यानि ममता बनर्जी एफडीआई का पहले ही खुलकर विरोध कर रही है। ऐसे में सरकार के पास राहत के नाम पर सिर्फ एक ही एम मौजूद है...ये हैं सरकार के सबसे बड़े सहयोगी एम करूणनिधि...जिनके 18 सांसद ही फिलहाल सदन में सरकार की इज्जत बचाने के लिए सामने आते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार के सहयोगियों के दोहरे चेहरे का दावा करने वाली भाजपा की बात एफडीआई पर वोटिंग के दौरान सामने आ जाएगी या फिर फिलहाल मनमोहन सरकार की मुश्किल बने एम फैक्टर मुलायम और मायावती सरकार के लिए एक बार फिर से संकटमोचक की भूमिका निभाएंगे...हालांकि इसकी उम्मीद कम है...लेकिन अगर ऐसा हो भी जाता है तो बड़ा सवाल ये है कि लोकसभा में तो सरकार की लाज बच जाएगी...लेकिन राज्यसभा में सरकार का क्या होगा ?

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बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो......


श्रीगंगानगर-माँ कहा करती थी, बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो,छाया पेड़ की चाहे कैर क्यूँ ना हो। कौन जाने माँ का यह अपना अनुभव था या उन्होने अपने किसी बुजुर्ग से यह बात सुनी थी। जब यह बात बनी तब कई कई भाई हुआ करते थे।उनमें खूब बनती भी होगी। इतनी गहरी बात कोई यूं ही तो नहीं बनती। तब  किस को पता था कि  कभी ऐसा वक्त भी आएगा जब भाइयों का साथ बैठना तो क्या उनमें आपसी संवाद भी नहीं रहेगा। उससे भी आगे, ऐसा समय भी देखना पड़ेगा जब इस गहरी,सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण बात पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। क्योंकि भाई हुआ ही नहीं करेगा। एक लड़का एक लड़की,बस। तो! बात बहुत पुरानी है। तस्वीर काफी बदल चुकी है। इस बदलाव की स्पीड भी काफी है। रिश्तों की  गरिमा खंड खंड हो रही है। रिश्तों में स्नेह का रस कम होता दिखता है। मर्यादा तो रिश्तों में अब रही ही कहां है। खून के रिश्ते पानी पानी होने लगे हैं। अपवाद की बात ना करें तो यह किसी एक की नहीं घर घर की कहानी है। कहीं थोड़ा कम कहीं अधिक। व्यक्तिवादी सोच ने दिलो दिमाग पर इस कदर कब्जा जमा लिया कि किसी को अपने अलावा कुछ दिखता ही नहीं। रिश्तों में टंटे उस समय भी होते होंगे जब उक्त बात बनी। परंतु तब उन टंटों को सुलझाने  के लिए रिश्तेदारी में  रिश्तों की गरमाहट को जानने और महसूस करने वाले व्यक्ति होते थे। जिनकी परिवारों में मान्यता थी। उनकी बात को मोड़ना मुश्किल होता था। व्यक्ति तो अब भी  हैं। परंतु वे टंटे मिटाने की बजाए बढ़ा और देते हैं।  एक दूसरे के सामने एक की दो कर। रिश्तों में ऐसी दरार करेंगे की दीवार बन जाती है दोनों के बीच। किसी को दीवार के उस पार क्या हो रहा है ना दिखाई देता है ना सुनाई। फिर कोई किसी अपने को मनाने की पहल भी क्यों करने लगा! उसके बिना क्या काम नहीं चलता। इस प्रकार के बोल सभी प्रकार की संभावनाओं पर विराम और लगा देते हैं। सुना करते थे कि खुशी-गमी में रूठे हुए परिजन मानते और मनाए जाते हैं। पहले खुशी के मौके पर आने वाले रिश्तेदार सबसे पहले यही काम करते थे। अब तो किसी कौने में खड़े हो कर बात तो बना लेंगे लेकिन बिखरे घर को एक करने की कोशिश नहीं करेंगे। इसकी वजह रिश्तों में आया खोखलापन भी है। समाज में किसी का किसी के बिना काम नहीं चलता। सबका साथ जरूरी है। किसी की कहीं जरूरत है किसी और की किसी दूसरी जगह। कोई ये साबित करना चाहे कि उसका तो काम अकेले ही चल जाएगा तो कोई क्या करे? काम चल भी जाता है लेकिन मजा नहीं आता। मन में टीस  रहती है। अंदर से मन उदास होता है। ऊपर बनावटी हंसी। क्योंकि सब जानते हैं कि मजा तो सब के साथ ही आता है।

29.11.12

सुनो सचिन...ये आलोचक नहीं प्रशंसक हैं


इसमें कोई शक नहीं कि ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान रिकी पॉन्टिंग एक बेहतरीन खिलाड़ी हैं। पॉन्टिंग के वन डे क्रिकेट के बाद अब टेस्ट क्रिकेट से भी संन्यास की घोषणा के बाद ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के एक सुनहर युग का अंत हो गया है। 1999 में स्टीव वॉ की कप्तानी में विश्व कप जीतने के बाद पॉन्टिंग की कप्तानी में ही ऑस्ट्रेलिया ने 2003 और 2007 का विश्व कप खिताब अपनी झोली में डालकर विश्व कप खिताब जीतने की हैट्रिक पूरी की थी। लेकिन रिकी पॉन्टिंग के संन्यास को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी भारत के सचिन तेंदुलकर के संन्यास से जोडना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता। ये बात सही है कि सचिन का बल्ला जिसने अनगिनत रिकार्ड उगले हैं...बीते कुछ समय से शांत है...ऐसे में इसका ये मतलब तो नहीं कि सचिन अब वो सचिन नहीं रहे...जिसके आगे गेंदबाजी करने में बड़े से बड़ा गेंदबाज भी कांपता था। सचिन ने हर बार अपने आलोचकों को अपने बल्ले से कड़ा जवाब दिया है...और पूरी उम्मीद है कि एक बार सचिन फिर से अपने बल्ले से करारा जवाब अपने आलोचकों को देंगे। वैसे आलोचक चाहें किसी के भी हों...लेकिन असल में आलोचक ही वे लोग होते हैं जो आपको आगे बढ़ने के लिए अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं....वे आपको याद दिलाते रहते हैं कि आप का लक्ष्य क्या है...यानि कि वे आपके आलोचक होते हुए भी आपके सबसे बड़े शुभचिंतक और प्रशंसक हैं। सिर्फ इसलिए सचिन के संन्यास पर हो हल्ला मचा है क्योंकि ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी पॉन्टिंग ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है तो ये गलत है। रिकी पॉन्टिंग खुद इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि वे बल्ले से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन टीम के लिए नहीं कर पा रहे हैं...और इसलिए वे क्रिकेट को अलविदा कह रहे है...यानि की पॉन्टिंग ये मान चुके हैं कि वे उनके अंदर अब और ज्यादा क्रिकेट नहीं बचा है। सचिन की अगर बात करें तो माना सचिन का बल्ला बीते कुछ समय से शांत रहा है लेकिन मैदान पर आज भी सचिन का आत्मविश्वास गजब का रहता है और सचिन की मौजूदगी टीम के बाकी सदस्यों के लिए ऊर्जा का काम करती है तो विपक्षी कप्तान और गेंदबाजों की मुश्किल। वैसे में सचिन कई मौके पर संन्यास की बात को नकारते हुए अभी और क्रिकेट खेलने की ईच्छा जाहिर कर चुके हैं और तो और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के सर्वश्रेष्ठ सम्मान ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया सम्मान से सम्मानित होने के दौरान सचिन ने फिर से ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाने की इच्छा जतायी थी...यानि कि सचिन को पता है कि अभी उनके अंदर क्रिकेट बची है और वे शारीरिक रूप से फिट और मानसिक रूप से इसके लिए तैयार भी हैं। क्या लगता है सचिन जैसा खिलाड़ी जिसे क्रिकेट के खेल में भगवान का दर्जा दिया जाता है...वो खुद कभी चाहेगा कि क्रिकेट से उसकी विदाई निराशाजनक हो...शायद नहीं न...फिर चिंता किस बात कि खेलने दीजिए सचिन को और खेलते हुए देखिए सचिन को...सचिन का बल्ला बोलेगा और अपने बल्ले से सचिन एक बार फिर अपने आलोचकों को माफ करना प्रशंसकों को करारा जवाब देंगे।

deepaktiwari555@gmail.com



अफसोस...फिर हंगामे की भेंट चढ़ेंगे करोड़ों !


देर से ही सही आखिर संसद में एफडीआई पर बना गतिरोध समाप्त हो ही गया। लोकसभा में जहां नियम 184 के तहत एफडीआई पर विपक्ष की मांग को स्पीकर ने स्वीकार कर लिया है तो वहीं राज्यसभा में बहस के साथ ही वोटिंग के प्रावधान वाले नियम 168 के तहत एफडीआई पर चर्चा के लिए सरकार ने सहमति जता दी है। एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने के बाद भी सदन के दोनों सदनों में कार्यवाही सुचारु रूप से चल पाएगी इस पर संशय बरकरार है। हालांकि भाजपा ने सदन को सुचारु रूप से चलने देने का भरोसा तो दिलाया है...लेकिन सरकार के खार खाए बैठी तृणमूल कांग्रेस क्या सदन में चुप बैठेगी ये बड़ा सवाल है...जो आज गुरुवार को देखने को भी मिला जब लोकसभा में नियम 184 के तहत चर्चा के स्पीकर के निर्देश क बाद भी टीएमसी ने जमकर हंगामा किया और सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। ठीक इसी तरह यूपी में कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर बसपा का हंगामा तो गैस सिलेंडर पर सपा का हंगामा एफडीआई के मुद्दे से अलग सामने आ चुका है...ऐसे में शीतकालीन सत्र आगे भी सुचारु रूप से चल पाएगा इस पर सवाल बने हुए हैं। वैसे नियम लोकसभा में नियम 184 के तहत और राज्यसभा में नियम 168 के तहत एफडीआई पर बहस और वोटिंग के बाद की स्थिति पर भी काफी कुछ सदन की कार्यवाही निर्भर करेगी। अगर वोटिंग में सरकार को पर्याप्त समर्थन मिलता है...जैसी कि उम्मीद है तो क्या उसके बाद विपक्षी दलों की बौखलाहट बाहर निकल कर नहीं आएगी...?  ऐसे में क्या वे सदन में एफडीआई पर फिर हंगामा नहीं करेंगे इसकी क्या गारंटी है…? यानि की विपक्ष की मांग भले ही स्वीकार कर ली गई हो...लेकिन इसके बाद भी शीतकालीन सत्र के आगे सुचारु रूप से चलने के आसार बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रहे हैं। एफडीआई के अलावा कई और ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिनको लेकर सरकार को घेरने की तैयारी में विपक्ष हैं तो सरकार लोकपाल बिल, भूमि अधिग्रहण बिल, खाद्य सुरक्षा कानून और बीमा और पेंशन सुधार बिल समेत कई अहम बिल सरकार इस सत्र में पास कराना चाहती है...लेकिन सरकार की ये हसरत तभी पूरी होगी जब सदन में हंगामा न हो और सरकार पहली और सबसे बड़ी बाधा एफडीआई से संसद में पार पा ले। बीते मानसून सत्र हंगामे का एक दौर सदन में हम देख चुके हैं...ऐसे में शीतकालीन सत्र में एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने के बाद भी सत्र के सुचारु रूप से चलने की उम्मीद बहुत कम ही है...जिससे एक बार फिर से सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाले करोड़ों रूपए की बर्बादी साफ नजर आ रही है...लेकिन अफसोस न तो सरकार और न ही विपक्ष को इसकी कोई चिंता है।   

deepaktiwari555@gmail.com

सचिन बनाम शेन वार्न

 SACHIN VS AUS.. 1998 SHARJHAN VIDEO

विशेषज्ञ मानते हैं कि सचिन तेंदुलकर एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने भारतीय क्रिकेट टीम को नई दिशा दी है. आज कुछ पारियों के खराब प्रदर्शन की वजह से लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं लेकिन क्या यह लोग उस सचिन को भूल गए हैं जिन्होंने भारत को ना जानें कितनी यादगार यादें प्रदान की है. ऐसी ही एक यादगार शाम वह थी जब भारत और आस्ट्रेलिया शारजहां के मैदान में आमने-सामने थे और लोग भारत की हार को लगभग तय मान रहे थे.





और वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करे: 
http://videos.jagranjunction.com/2012/11/29/sachin-best-inning-video-%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B/

हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

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                          शिखा कौशिक 'नूतन '
                                    





नस पकडिये और दबाइये!!


नस पकडिये और दबाइये!!

नस पकड़ना भी एक विद्या है ,यह कला स्कुल या कॉलेज में नहीं पढाई जाती है।इसको सिखने
के लिए कई शातिर या घाघ लोगों के चरित्र पर PHD करनी पडती है।नस दबाने से जीवन
में सफलता बिना कुछ करे कराये मिल जाती है।जो लोग कहते हैं कि सफलता का बाई पास
नहीं होता उसे नस पकड़ने और उचित समय पर दबाना सीखना चाहिए।

                  हमारे पहचान वाले एक दुस्साहसी ने एक आम आदमी की नस पकड़ी।बेचारा आम
आदमी उसके चरण पखारने लगा और उसकी चरण रज को माथे चढाने लगा।दुस्साहसी को
आम आदमी धीरे-धीरे भेंट चढाने लगा अब तो द्स्साह्सी के मजे हो गए।उसके मजे एक कोतवाल
की आँखों की किरकिरी बन गये और कोतवाल ने उस दुस्साह्सी की नस पकड ली और दबाई।
नस दबाते ही दुस्साहसी घबराया और टें -टें  करने लगा।अब कोतवाल के भी मजे हो गए।जब
मन करा नस दबा दी और सेवा पूजा कराने लगता।

                   कोतवाल की नस विद्या अफसर को समझ पड़ी तो अफसर ने भी विद्या सिख ली और
कोतवाल की नस दबा दी।कोतवाल इशारे पर नाचने लगा और अफसर के मजे हो गये।अफसर की
राजाशाही से उपरी अफसर जल उठा ,मैं बडासाहेब होकर भी मजे नहीं और ये अफसर मजे लूट
रहा है ,बड़े अफसर ने खोज की , नस विद्या की जानकारी हासिल की तो उसका प्रयोग भी कर
दिया छोटे अफसर पर।विद्या ने असर दिखाया और बड़े साहेब के भी ऐश हो गयी।

                 बड़े साहेब की ऐश नेताजी को मालुम पड़ी तो नेताजी ने जांच बैठा दी।जांच से जो रिपोर्ट
आई उसे पढ़कर नेताजी भोंच्चके रह गए।उन्होंने भी जन सेवा का काम दूर करके नस पकड़ने की
विद्या सिख ली,अब तो सब कुछ व्यवस्थित हो गया,सब एक दूजे की नस पकडे थे।सबके मौज थी.
सबको मजे में देख पराये पक्ष के नेता का पेट दर्द करने लगा उन्होंने सबको मस्त देखा तो गहन
छानबीन में लग गए और नस विद्या के कोर्स को सिख गए।अब तो वो भी नस पकड के दबाते रहते
हैं और सुख भोग रहे हैं।

                   नोट:- इस विद्या में सज्जन कहलाने वाले सरल लोग नापास होते रहे हैं और होते रहेंगे।              

कोशिश- इक नई सुबह.....

 हम  नहीं जानतें जो हम  करने की सोच रहे हैं,उसमे हमारा  लोग कितना साथ देंगे जब 31 दिसंबर 2012 को सम्पूर्ण विश्व के लोग अपने अपने नशे में चूर होंगे (नशे कई तरह के हो सकते हैं इस पहलू को आप मुझसे अच्छी तरह जानते हैं ) या आप यूँ समझ ले की सब अपने अपने तरीके से नए वर्ष की प्रभात बेला का स्वागत कर रहे होंगें तब हम (कोशिश वेलफेयर सोसायिटी ) के  चंद  लोग शहर के अँधेरे गलियारों में ठण्ड में कपकपाते हुए गरीब लोगों की सर्दी को दूर करने के लिए गर्म कपड़े बाँटकर ठंडी को दूर करने की छोटी सी कोशिश कर रहें होंगे . 

क्या आप लोग हमारा  इस नेक काम में  साथ देगें ?

नोट - जो लोग इस नेक  काम  में नए या पुराने कपड़े देकर हमारा साथ देना चाहतें हो वो लोग हमें इन नंबरों में काल करके  करें ,

1- शाहिद अजनबी -9044510836
2-आनन्द पाण्डेय -9161113444
3-संजीव सिंह      -9161112444
4-कौशल किशोर  श्रीवास्तव -96959400015 
हमारी टीम आपके पास आकर वो नए या पुराने कपड़े एकत्रित कर लेगी .

निवेदक -कोशिश वेलफेयर सोसाईटी ,कानपुर .उत्तर प्रदेश .भारत .  

28.11.12

"जय बोलो बेईमान की"

मित्रों, आजकल के फिल्मों में संगीत देना कितना आसान है। है न ! बस किसी पुराने गाने का स्थायी लिया और उसपर अपने बोल डाल दिए,  किसी पुरानी फ़िल्म के गीत की कुछ धुनें लीं और अपने संगीत में पिरो दिए। फिर किसी और गीत  के अन्तरा की धुन ली और अपना अन्तरा बना लिया। किसी की मजाल जो कोई आँख उठा सके। अभी-अभी एक ऐसा ही गीत सुना। आपने भी सुना होगा। क्या कहा - नहीं ! तो मैं आप को बता देता हूँ।
आप ने मुहम्मद रफी का एक गीत सुना होगा-
"तुमसे इज़हारे हाल कर बैठे।
बेखुदी में कमाल कर बैठे रे.....।"

अब आजकल गुनगुनाइए- "तेरे नैना बड़े दगाबाज़ रे।"
बीच की धुन में आप को रफी के ही एक मशहूर गीत-"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया"  की झलक दिखाई देगी।
अन्तरा का भी लगभग यही हाल है, मगर ये खोज आपको करनी है।
मगर साथ में आप मुकेश का ये जरूर गाइयेगा "जय बोलो बेईमान की।"
एक प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं मिलता- क्या वास्तव मे पूरे भारत में मौलिक रचनात्मक व्यक्तित्वों का लोप हो गया है ?
( और कोई नहीं मिलता तो मुझे ही याद कर लेते.........हा...हा...हा...)

मौत पर जश्न सही या गलत ???


कसाब को फांसी से ज्यादा ये जानना जरूरी है कि कसाब को फांसी क्यों दी गई? 26 नवंबर 2008 के पाकिस्तान से समुद्र के रास्ते सवार होकर मुंबई पहुंचे जिन 10 आतंकियों ने हिंदुस्तान को जो जख़्म दिया उसमें से एकमात्र जिंदा बचा आतंकी कसाब ही था। 166 लोगों की मौत के दोषी इस नरसंहार में जीवित पकड़े गए आतंकी ने पकड़े जाने के बाद ये कहने में कोई संकोच नहीं किया कि अगर उसके पास और गोला बारूद होता तो वह और कत्लेआम मचाता और ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान ले लेता। अब अगर ऐसे क्रूर हत्यारे की मौत पर अगर इस हमले से पीड़ित और इस हमले में अपनो को खो चुके लोग जश्न मना रहे हैं तो ये इंसानियत पर आघात कैसे हो गया। बड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने के योग्य है…? अगर ये मनुष्य होता तो ऐसा अमानवीय काम कभी नहीं करता और सिर्फ अपने आकाओं के एक ऐसे मकसद के लिए कत्लेआम न मचाता...जिस मकसद का रास्ता निर्दोष इंसानों की लाशों से होकर गुजरता है। और ये बात कहां तक जायज है कि निर्दोष लोगों को मारकर मानवता के ये क्रूर दुश्मन तो जमकर जश्न मनाते हैं...लेकिन जब इनकी मौत पर जश्न होता है तो इसे इंसानियत पर आघात कैसे कहा जा सकता है !!! ऐसा तो नहीं था कि कसाब को गिरफ्त में लेने के बाद सीधे मौत की सजा सुना दी गई। कसाब को तो हिंदुस्तान के कानून के मुताबिक अपने बचाव का पूरा मौका दिया गया...इसके बाद दोषी पाए जाने पर ही उसे फांसी पर लटकाया गया। ऐसे दुर्दांत अपराधी की मौत पर गम करना उन पीडितों के साथ निश्चित तौर पर अन्याय कहलाएगा...जिन्होंने इस आतंकी हमले में अपनों को खोया है...किसी ने अपने माता- पिता को खोया तो किसी ने अपने भाई- बहिन को...जिसकी कमी शायद ही कभी पूरी हो पाएगी...असमय ही किसी अपने को खोने का गम क्या होता है ये तो वही बता सकता है जिस पर बीतती है। जहां तक इंसानियत के नाम पर व्यक्तिगत भावनाओं को दरकिनार करने की बात है...तो पहली चीज तो ये है कि इंसानियत से बड़ा धर्म कोई नहीं है....जो व्यक्ति दूसरों के सुख दुख को न समझे...और बेवजह एक ऐसे मकसद के लिए कत्लेआम कर जो अमानवीय हो और निर्दोष लोगों की लाशों से होकर गुजरता है तो ऐसे व्यक्ति की भावनाएं व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि ये भावनाएं एक अविकसित दिमाग से होकर उपजती हैं...और ये भावनाएं जब किसी के आंगन का सुख चैन छीनने में आमादा हो तो इंसानियत के नाम पर इन्हें दरकिनार करना ही समस्या का समाधान है। लेकिन अगर ये व्यक्तिगत भावनाएं मुंबई हमले जैसे किसी पीड़ित परिवार के सदस्य या राष्ट्र की हैं...जो कसाब जैसे गुनहगारों की फांसी की वकालत करते हैं तो और उसकी फांसी पर जश्न मनाते हैं तो इसे इंसिनायत पर न तो आघात कहा जएगा औऱ न ही इंसानियत के  खिलाफ क्योंकि कसाब जैसे लोगों को इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है...और जिसे इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है उसकी व्यक्तिगत भावनाएं को दरकिनार करना ही समझदारी है क्योंकि ये भावनाएं किसी का अहित ही करेंगी।

deepaktiwari555@gmail.com

कमांडो और कंडोम-ब्रज की दुनिया

मित्रों,मैं नहीं जानता कि आपने कभी कंडोम का सदुपयोग या दुरूपयोग किया है या नहीं लेकिन मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि आपको यह पता होगा कि एक कंडोम का दोबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता। एक बार उपयोग में लाने के बाद उसे फेंक देना पड़ता है। लेकिन इसके साथ ही मुझे इस बात का भी पक्का यकीन है कि आपने कभी सोंचा नहीं होगा कि 26-11 के आतंकवादियों की गोलियों को अपने जिस्म पर झेलकर देश का माथा गर्वोन्नत करनेवाले कमांडो की इन कंडोमों के साथ कोई समानता भी हो सकती है। परन्तु सच तो यही है कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन परमवीरों को कंडोमों से ज्यादा मूल्य नहीं देती। संकट के समय यूज किया और फिर छोड़ दिया अपने हाल पर जीने और मरने के लिए। एनएसजी में भर्ती होने या 26-11 को कार्रवाई के लिए जाते समय कमांडो सुरेंद्र सिंह या अन्य ने यह सोंचा भी नहीं होगा कि मुठभेड़ में अपंग होने के बाद उनके साथ उनकी केंद्र सरकार और सेना उनके साथ इस तरह का व्यवहार करेगी।
                 मित्रों,गत 23 नवंबर को एन.एस.जी. के घायल कमांडो सुरेन्द्र ने आरोप लगाया है कि उन्हें सरकार की ओर से आज तक मदद के नाम पर एक रुपया भी नहीं मिला। सरकार ने उनके इलाज के लिए भी कोई पैसा नहीं दिया। उसे 13 महीनों से कोई पेंशन भी नहीं मिली है। इस बीच सुरेन्द्र सिंह के आरोप का जवाब देते हुए सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने इस आरोप को झूठा बताते हुए कहा कि सरकार द्वारा सुरेंद्र सिंह को 31 लाख रुपए दिए जा चुके हैं और हर माह 25  हजार रुपए पैंशन के तौर पर दिए जा रहे हैं। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने साफ किया है कि कमांडो का मामला रक्षा मंत्रालय से जुड़ा है और वह इस मामले की जांच करेंगे। रक्षा मंत्रालय ने भी एनएसजी कमांडो की शिकायतों पर  गौर  करने  की बात कही है। मंत्रालय के सूत्रों ने कहा है कि कमांडो सुरेंद्र सिंह को इसी 16 नवम्बर को ही सूचित कर दिया था उनकी 31 लाख रुपए की पैंशन राशि उनके खाते में जमा हो रही है और 25 रुपए प्रतिमाह पैंशन भी स्वीकृत हो गई है। ऑपरेशन को अंजाम देते वक्त आतंकियों के ग्रेनेड से सुरेन्द्र बुरी तरह से घायल हो गए। धमाके की वजह से वह दोनों कानों से बहरे हो गए। साथ ही उनके कंधे और पांव में भी गहरी चोटें आईं। इसके बाद सुरेन्द्र को पता चला कि सेना के अफसरों ने अपने बहादुर सिपाहियों के हिस्से की आर्थिक मदद को डकार लिया है। सुरेन्द्र सिंह के मुताबिक ऑपरेशन मुंबई हमले में आतंकियों से मुकाबला करने वाले एनएसजी कमांडोज़ को 26 जनवरी, 2009 को वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया जाना था, लेकिन इसमें उनका और 8 ऐसे कमांडोज़ का नाम नहीं था, जो ऑपरेशन के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस बारे में जब इन 9 कमांडोज़ ने सीनियर ऑफिसर्स से पूछा कि अवॉर्ड लिस्ट में उनका नाम शामिल क्यों नहीं है, तो अधिकारियों ने बताया कि आपने आर-पार की लड़ाई में हिस्सा लिया है। इसलिए आपको बाद में बड़े अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा। उन्हें बताया गया कि 15 अगस्त, 2009 को राष्ट्रपति के हाथों उन्हें अवॉर्ड मिलेगा। ये कमांडो इंतजार करते रहे, 15 अगस्त को भी इन्हें अवॉर्ड नहीं मिला। दोबारा पूछने बताया गया कि अगले साल जनवरी में सम्मान दिया जाएगा, लेकिन उन्हें तब भी नहीं मिला। सुरेन्द्र का कहना है कि इसके बाद जब उनके एक साथी ने आरटीआई के माध्यम से अवॉर्ड्स के बारे में जानकारी ली, तो पता चला कि उन सभी 9 कमांडोज़ के नाम की सिफारिश ही नहीं की गई थी। साफ था कि सेना के ऑफिसर टाल-मटोल करके झूठे आश्वासन दे रहे थे। यही नहीं, इस दौरान यह भी पता चला कि जवानों के लिए आई आर्थिक मदद में भी हेराफेरी की गई है। कुछ रकम का हिसाब नहीं था, तो कुछ को 3-4 कमांडोज़ में ही आवंटित करके औपचारिकता निभा दी गई थी। सुरेन्द्र का आरोप है कि इन सब बातों का विरोध करने पर उन्हें मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर सेना में काम करने के लिए पूरी तरह से अयोग्य घोषित कर दिया गया। सुरेन्द्र का कहना है कि उन्हें जानबूझकर नौकरी के 15 साल पूरा करने से पहले ही रिटायर कर दिया गया। उन्हें तब सेवा मुक्त किया गया, जब उन्हें सर्विस में 14 साल, 3 महीने और 10 दिन हो चुके थे। रिटायरमेंट के बाद जब उन्होंने सेना के ग्रेनेडियर्स रेकॉर्ड्स में पेंशन के लिए अर्जी दी, तब तो उसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उन्होंने 15 साल की नौकरी पूरी नहीं की है। इस बात को 2 साल बीत गए हैं लेकिन अभी तक उन्हें पेंशन नहीं दी गई। वह अपनी जमा पूंजी से ही इलाज करा रहे हैं। अभी तक 1 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। सुरेन्द्र का आरोप है कि उन्होंने अपने हक के लिए आवाज उठाई, इसीलिए उसे 15 साल पूरा करने से पहले ही नौकरी से निकाल दिया गया। सुरेन्द्र ने कहा कि जेल में बिरयानी खाने वाला कसाब लोगों को याद है, लेकिन अपनी जान दांव पर लगाने वाले NSG कमांडो किसी को याद नहीं। उनके मुताबिक ऑफिसर्स की गड़बड़ी और रवैये से नाराज कुछ लोगों ने या तो नौकरी छोड़ दी, या फिर उन्हें मजबूर कर दिया गया।
                     मित्रों,उसी आपरेशन 'ब्लैक टार्नेडो' में शामिल रहे कमांडो सुनील जोधा को आतंकियों से आमने-सामने की लड़ाई के दौरान सात गोलियां लगीं थी। यहाँ तक कि अब भी उसके सीने में एक गोली मौजूद है। डॉक्टरों की टीम ने उन्हें छह महीने और अपनी निगरानी में रखे जाने की सिफारिश की थी। इसके बावजूद उन्हें एनएसजी से वापस मूल यूनिट में भेज दिया गया। इसी प्रकार कमांडो दिनेश साहू के पैर में कई गोलियां लगी थीं लेकिन सम्मान की बजाय उन्हें मीडिया में जाने पर गोली मार देने की धमकी दी गई। कमांडो सूबेदार फायरचंद को पैर में गोलियाँ लगीं। कोई सम्मान नहीं मिला तो हार कर वीआरएस ले लिया। कमांडो राजबीर गंभीर रूप से घायल हुए लेकिन जब उन्होंने पदक की बात की तो एनएसजी ने उन्हें भगोड़ा दिखा कर आठ-नौ महीने का वेतन रोक दिया और उनका सर्विस रिकार्ड भी खराब कर दिया गया। क्या देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देनेवालों के साथ दुनिया के किसी भी अन्य देश में ऐसा सलूक किया जाता है?
                               मित्रों,सवाल हजारों हैं और जवाब है कि है ही नहीं। अगर जवाब है भी तो इस सरकार के कहे पर यूँ तो विश्वास करना ही मुश्किल है फिर भी अगर यह विश्वास कर भी लिया जाए कि वह सच बोल रही है तो प्रश्न यह उठता है कि मुआवजा या अवकाश-प्राप्ति लाभ देने और पेंशन निर्धारित करने में इतनी देरी क्यों हुई? क्यों कुछ ही दिन या महीने के भीतर पैसा नहीं दे दिया गया? देश के लिए जान पर खेलने और अपंग हो गए इन जांबाजों को क्यों वीरता पुरस्कार नहीं दिए गए? क्या सरकार या सेना को इनकी वीरता पर संदेह था या है? क्या वीरता पुरस्कारों पर पहला हक इनका नहीं था या है? क्या इनकी वीरता सेना या सरकार द्वारा स्थापित वीरता की परिभाषा में नहीं आती? अगर इसी कारण से ऐसा हुआ है तो क्या सेना या सरकार बतायेगी कि उनके अनुसार वीरता की क्या परिभाषा होती है? क्या भ्रष्टाचार के कैंसर ने हमारी सेना को भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले लिया है? क्या वीरता पुरस्कारों में भी अधिकारी हिस्सा बाँटते हैं? कुछ भी संभव है वर्तमान परिवेश में,कुछ भी असंभव या अनहोनी नहीं। क्या सुरेंद्र सिंह को इसलिए एक भी पैसा देने में 4 साल नहीं लग गए क्योंकि उनके मामले को देखनेवाले सेना के अधिकारियों को उस राशि में से कुछ हिस्सेदारी चाहिए थी? सवाल तो यह भी है कि हर तरह से योग्य होने पर भी क्यों सेना में जवानों को बिना घूस दिए नौकरी नहीं मिलती? कम-से-कम बिहार में ऐसी ही हो रहा है। आज के बिहार में क्यों लगभग प्रत्येक गाँव में एक ऐसा दलाल मौजूद है जो पैसे लेकर सेना में नौकरी दिलवाता है? क्या इस कमांडो प्रकरण से यह स्पष्ट नहीं हो गया है कि वीरता पुरस्कार देने की प्रक्रिया पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं है? क्या सरकार को इसे निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के उपाय नहीं करने चाहिए? हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो समाज और राष्ट्र उसकी रक्षा के लिए जान पर खेलनेवाले वीर सपूतों का सम्मान नहीं करता उसको गुलाम होते देर नहीं लगती।

Ganga ke Kareeb: श्रद्वालुओं की सिद्वियों का केन्द्र...........भैरव मंदिर ऋषिकेश

Ganga ke Kareeb: श्रद्वालुओं की सिद्वियों का केन्द्र...........भैरव मंदिर ऋषिकेश

27.11.12

जब मनमोहन सिंह बने शोले के गब्बर सिंह !


राजनीति में नेताओं का चरित्र इतनी तेजी से बदलता है...जितनी तेजी से शायद गिरगिट भी रंग न बदल पाती हो। संसद के शीतकालीन सत्र का ही उदाहरण सामने है...विपक्ष लगातार नियम 184 के तहत एफडीआई पर चर्चा की मांग कर रहा था तो वोटिंग से घबराई सरकार नियम 193 पर बहस के लिए तैयार थी...जिसमें वोटिंग का प्रावधान नहीं है। तब शायद सरकार को इस बात का डर था कि अपने पत्ते बंद करके बैठे उनके सहयोगी 184 के तहत चर्चा के बाद वोटिंग में अपना पाला न बदल लें...इसलिए ही सरकार नियम 184 से बचना चाह रही थी...लेकिन जैसे ही सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी द्रमुक ने एफडीआई पर सरकार के साथ आने की बात कही और सपा- बसपा ने भी वोटिंग की बजाए सिर्फ चर्चा पर जोर दिया तो सरकार को मानो ऑक्सीजन मिल गई और बदल गई सरकार के मंत्रियों की जुबान। कहने लगे सरकार एफडीआई पर किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए तैयार है। और तो और खामोश रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शोले फिल्म के गब्बर सिंह की तरह दहाड़ते नजर आए- हमारे पास नंबर है अब ये नंबर एक दिन पहले तक होने के बावजूद सरकार के पास नहीं था...या यूं कहें कि सरकार को खुद के साथ ही अपने सहयोगियों पर भरोसा नहीं था...तो नियम 193 पर ही एफडीआई पर संसद में सरकार बहस के लिए तैयार थी...लेकिन जैसे ही सहयोगी दलों के रूख में एफडीआई पर नरमी हुआ सरकार की जुबान के साथ ही बॉडी लेंग्वेज में गर्मी आ गयी...और सरकार पूरे विश्वास के साथ किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए राजी हो गई। सहयोगियों की नरमी से सरकार भले ही किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए तैयार हो गई हो...लेकिन एफडीआई पर सहयोगियों की नाराजगी अभी भी बनी हुई है। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा जहां एफडीआई पर कड़ा रूख अख़्तियार किए हुए है तो सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी द्रमुक सिर्फ इसलिए इस मुद्दे पर सरकार के साथ आई है ताकि भाजपा की ताकत न बढ़े...यानि कि सपा और द्रमुक सदन में वोटिंग की स्थिति में कभी भी अपना पाला बदल सकती हैं...हालांकि इसकी संभावना काफी कम है लेकिन ये राजनीति है...यहां अपने सियासी फायदे के लिए कब कौन किसका दोस्त बन जाए....कब कौन किसका दुश्मन बन जाए...कुछ नहीं कहा जा सकता। अब टीएमसी से बड़ा उदाहरण और क्या होगा...कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली टीएमसी को आज इससे ज्यादा खराब सरकार नजर ही नहीं आती।
deepaktiwari555@gmail.com

Innocent Shayaries by 12 Year old RAJU GUIDE.



Innocent Shayaries by 12 Year old RAJU GUIDE.






http://www.youtube.com/watch?v=9h19PFNbqlc&feature=youtu.be


अगर चाय में पत्ती नहीं तो
पीने का क्या मज़ा और
साथ में गाईड नहीं तो
घूमने का क्या मज़ा ।


चप्पल है छोटी तो
पैर में नहीं आती और
अंकल की बीवी मोटी तो
बग़ल में नहीं आती ।


अगर अत्तर की शीशी को
पत्थर से फोड़ दूँ और
जिन्सवाली मिल जाए तो
साड़ीवाली को छोड़ दूँ ।


अगर फूल को लेंगें तो
काँटा तो लगेगा और
लड़की को छेड़ेगें तो
छांटा तो उड़ेगा ।


अगर किचड़ है, पैर ड़ालोगे,
धोना तो पड़ेगा और
ड्राइवर से शादी करोगे तो
घूमना तो पड़ेगा ।


दिल्ली में घूमता तो
हेमामालिनी मिलती और
जिस की याद में घूमता हूँ
वो घरवाली नहीं मिलती ।


अगर काँच का बंगला है तो,
पत्थर कैसे मारुँ और
अमीर की बेटी है तो
आँख कैसे मारुँ ।


सिंगल बाय सिंगल वाले
नाराज़ मत होना और
अब की बार आयेंगे  तो
टू बाय टू कपल में आना ।


मेहनत  करते  हैं
एन्गल बदल-बदल के
और
उसके बाप ने पिटा
सेन्डल बदल-बदल के ।


जाम पर जाम पीने से,
क्या फायदा,
शाम को पीएगें तो,
सुबह उतर जाएगी,
और हरि नाम का प्याला पीयेंगे
तो
आखी ज़िंदगी सुधर जाएगी ।


शायर - राजू गाइड़ ।

उम्र- क़रीब १२ साल.

स्थान- अचल गढ़ - माउन्ट आबु पर्वत -राजस्थान.


मार्कण्ड दवे। (एम.के.टीवी फिल्म्स ।)

जेठमलानी ने क्या गलत कहा ?


भाजपा के राम यानि राम जेठमलानी के तेवर फिलहाल ढीले पड़ते नहीं दिखाई दे रहे हैं। भाजपा की तरफ से कारण बताओ नोटिस जारी होने के बाद जेठमलानी के तेवर और उग्र हो गए हैं और अब जेठमलानी ने ये कहकर खुद की भाजपा से विदाई पर मुहर लगा दी है कि वे नोटिस का...अगर उन्हें वाजिब लगेगा तो जवाब देंगे नहीं तो नोटिस को कूड़ेदान में फेंक देंगे। वहीं भाजपा ने गडकरी को लिखे जेठमलानी के पत्र को भी जवाब न देने लायक कहते हुए इससे पल्ला झाड़ने की कोशिश की है। गौरतलब है कि जेठमलानी ने कहा था कि उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी को एक पत्र लिखा है...और गडकरी चाहें तो खत का मजमून सार्वजनिक करें...जेठमलानी ने खत में क्या लिखा था इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया। खैर जेठमलानी के तेवरों में कोई बदलाव न होने के बाद अब ये लगभग तय माना जा रहा है कि नोटिस की अवधि समाप्त होने के बाद भाजपा जेठमलानी को पार्टी से बर्खास्त कर देगी। वैसे देखा जाए तो राम जेठमलानी ने वही बातें कही जो आरोपों से घिरे किसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से कही जानी चाहिए...लेकिन जब खुद की ही पार्टी के अध्यक्ष इन आरोपों के घेरे में हों तो राजनीति और पार्टी का अनुशासन कहता है कि आप अपने नेता का बचाव करो और उन पर लगे आरोपों को झूठा साबित कर दो, भले ही वे आरोप कितने ही गंभीर क्यों न हों...बस जेठमलानी यही नहीं कर पाए...वर्ना दम तो जेठमलानी की बातों में था। इसका मतलब कहीं न कहीं जेठमलानी को सच बोलने का साहस करने की ही सजा मिली...और ये सच इसलिए भी ज्यादा अहम हो जाता है क्योंकि ये सच जेठमलानी ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ बोल दिया...औऱ अमूमन सच बोलने का साहस नेता नहीं जुटा पाते हैं...वो भी अपनी ही पार्ट के खिलाफ। सच बोलने के बाद जिस तरह जेठमलानी ने भाजपा की चेतावनी और कार्रवाई की धमकी के बाद भी अपने तेवरों में कोई बदलाव नहीं किया उससे ये जाहिर होता है कि जेठमलानी भी कहीं न कहीं जान गए हैं कि वे अब बहुत आगे निकल गए हैं और अब इस राह पर वापस लौटना उनके बस से बाहर है। वैसे भी जेठमलानी के तेवरों को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अगर भाजपा जेठमलानी की बातों को तूल देगी तो कहीं न कहीं फजीहत भाजपा की ही होगी...शायद भाजपा भी अब नोटिस अवधि समाप्त होने का इंतजार कर रही है ताकि जेठमलानी की पार्टी से बर्खास्तगी की कार्रवाई को पूरा किया जा सके। बहरहाल अब देखना ये होगा कि जेठमलानी नोटिस अवधि के दौरान यू टर्न लेते हैं या फिर भाजपा वर्सेस राम जेठमलानी का चैप्टर जेठमलानी की बर्खास्तगी के साथ क्लोज हो जाएगा।
deepaktiwari555@gmail.com


किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने की चाहत पड़ी मंहगी नरेश को स्वयं ही बनना पड़ा जिला भाजपा का किंग
 किंगमेकर इज बेटर देन किंग “ लेकिन बार बार यदि यही प्रयोग दोहराने को प्रयास किया जाये तो खेल बिगड़ भी जाता हैं। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों जिला भाजपा के चुनाव के दौरान देखने को मिला। किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने के चक्कर में किंग मेकर को खुद ही किंग बनना पड़ गया। अब किंग मेकर से किंग बने नरेश दिवाकर, जो कि प्रदेश सरकार द्वारा महाकौशल विकास प्राधिकरण के केबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त अध्यक्ष है, अपनी इस नयी ताजपोशी को किस रूप में लेते हैं? इसका खुलासा तो वक्त आने पर ही होगा। इन दिनों जिले में मंड़ी चुनावों को लेकर राजनैतिक हल चल मची हुयी हैं। इंका और भाजपा दोनों ही पार्टियां अपने अपने तरीके से जीत की बिसात बिछाने में लगी हुयी हैं। पूर्व जिला भाजपा अध्यक्ष सुजीत जैन के कार्यकाल में हुये लखनादौन नपं के चुनाव में भाजपा की हुयी करारी हार का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और पूरी संभावनाओं के बाद भी वे दोबारा अध्यक्ष नहीं पाये। चुनाव नजदीक आने की संभावनाओं को देखते हुये जिले में भी तीसरे मोर्चे के गठन पर प्रयास प्रारंभ हो गये हैं। युवा सपा नेता एवं एडवोकेट याहया कुरैशी की पहल पर मिशन प्रारंभ हुआ हैं। इसमें वाम दलों सहित नागरिक मोर्चे के भी शामिल होने की संभावना हैं। 
हेट्रिक बनाने की कोशिश आखिर पड़ी महंगी-एक कहावत राजनीति के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रचलित हैं।     “ किंगमेकर इज बेटर देन किंग “ लेकिन बार बार यदि यही प्रयोग दोहराने को प्रयास किया जाये तो खेल बिगड़ भी जाता हैं। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों जिला भाजपा के चुनाव के दौरान देखने को मिला। किंग मेकर बनने की हेट्रिक बनाने के चक्कर में किंग मेकर को खुद ही किंग बनना पड़ गया। जी हां हम बात कर रहें हैं नवनियुक्त जिला भाजपा अध्यक्ष नरेश दिवाकर की। यह तो सर्वविदित ही है कि पिछले दो बार से नरेश दिवाकर किंग मेकर बने हुये थे। पहले उन्होंने सुदर्शन बाझल को जिला भाजपा का अध्यक्ष बनवाया और फिर सुजीत जैन को। लगातार दोनों ही बार जब उनका यह खेल सफल रहा तो फिर उनके मन में हेट्रिक बनाने की मंशा जाग गयी। इसके लिये उन्होंने बिसात भी बहुत ही सोच समझ कर बिछायी थी। इस हेतु दिवाकर ने जातिगत और क्षेत्रीय आधार पर अपने प्रत्याशी तैयार किये थे। इस पद के लिये भाजपा में 12 उम्मीदवारों के नाम सामने आये थे। इनमें सुजीत जैन,सुदर्शन बाझल, अशोक टेकाम,अजय त्रिवेदी,गोमती ठाकुर,देवी सिंह बघेल,राजेन्द्र सिंह बघेल,वेद सिंह ठाकुर,सुदामा गुप्ता,भुवन अवधिया,संतोष अग्रवाल और ज्ञानचंद सनोड़िया के नाम प्रमुख थे। इनमें से प्रथम सात नेताओं को नरेश समर्थक माना जाता हें। इनमें ब्राम्हण, आदिवासी, पंवार,बागरी और जैन समाज के नाम थे जो कि जिले के अलग अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन इस बार प्रदेश आला कमान का यह स्पष्ट निर्देश था कि चुनावी साल होने के कारण वोटिंग नहीं होना चाहिये। चुनाव के एक दिन पहले से जब आम सहमति बनाने की कवायत चालू हुयी तो यह समझ में आ गया था कि अधिकांश दावेदार नरेश दिवाकर के ही हैं। इसी बीच जिले के एक जनप्रतिनिधि ने, जिसका सीधे प्रदेश संगठन में दखल है, ने प्रदेश नेतृत्व को इस बात से अवगत करा दिया कि अधिकांश दावेदार तो भले ही नरेश दिवाकर के समर्थक हैं लेकिन अब उनके ही बीच में आम सहमति बना पाना नरेश के लिये ही संभव नहीं रह गया हैं इसलिये किसी ऐसे वजनदार नेता को जिले की कमान सौंपी जाये जिसे सभी स्वीकार करने को बाध्य हो जायें। इस खबर के मिलने के बाद प्रदेश नेतृत्व ने यह कर लिया कि नरेश दिवाकर को ही कमान सौंप दी जाये। भाजपा नेताओं का दावा तो यह भी है कि अगला चुनाव लड़ने की इच्छा प्रगट करते हुये शुरू में नरेश ने आना कानी की लेकिन बाद में उन्हें यह स्वीकार करना ही पड़ा। बताया जाता है कि सब कुछ तय हो जाने के बाद विधायक कमल मर्सकोले ने नरेश का नाम प्रस्तावित किया और उनके नाम की घोषणा जिला निर्वाचन अधिकारी ने कर दी। बताया तो यह भी जा रहा हैं कि आम सहमति बनाने जैसी कोई कवायत भी इसके बाद नहीं की गयी। अब किंग मेकर से किंग बने नरेश दिवाकर, जो कि प्रदेश सरकार द्वारा महाकौशल विकास प्राधिकरण के केबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त अध्यक्ष है, अपनी इस नयी ताजपोशी को वे किस रूप में लेते हैं? इसका खुलासा तो वक्त आने पर ही होगा। 
भाजपा और इंका के लिये परीक्षा होगी मंड़ी चुनाव -इन दिनों जिले में मंड़ी चुनावों को लेकर राजनैतिक हल चल मची हुयी हैं। इंका और भाजपा दोनों ही पार्टियां अपने अपने तरीके से जीत की बिसात बिछाने में लगी हुयी हैं। पद भार ग्रहण करते ही नव नियुक्त जिला भाजपा अध्यक्ष के लिये ये एक राजनैतिक चुनौती सामने आ गयी हैं। पूर्व जिला भाजपा अध्यक्ष सुजीत जैन के कार्यकाल में हुये लखनादौन नपं के चुनाव में भाजपा की हुयी करारी हार का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और पूरी संभावनाओं के बाद भी वे दोबारा अध्यक्ष नहीं पाये। वैसे तो जिला कांग्रेस अध्यक्ष हीरा आसवानी के कार्यकाल का भी यही पहला चुनाव था जहां कांग्रेस का अध्यक्ष पद का प्रत्याशी ही नदारत हो गया था लेकिन पार्षदों के चुनावों में मिली सफलता को आधार बनाकर कांग्रेस के किंग मेकर हरवंश सिंह ने किंग को बचा लिया। इस तरह मंड़ी चुनाव ना सिर्फ दोनों पार्टियों के लिये वरन उनके अध्यक्षों के लिये भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयें हैं। वैसे तो प्रदेश की शिवराज सरकार यह नहीं चाहती थी कि 2013 के विस चुनाव के पहले ग्रामीण क्षेत्र के मतदाताओं का रुझान उजागर हो। इसलिये पिछले दो साल से किसी ना किसी बहाने मंड़ी चुनाव टाले जा रहे थे। लेकिन हाई कोर्ट के आदेश पर जब मंड़ी चुनाव अनिवार्य हो गया तब प्रदेश सरकार ने अध्यक्ष के प्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रणाली को ही बदल दिया और सदस्यों के    माध्यम से अध्यक्ष निर्वाचित करने का प्रावधान कर दिया। कांग्रेस के पास यह एक बहुत बड़ा मुद्दा हैं। यदि इसे पूरे जोर शोर से मतदाताओं के बीच उठाया जाता हैं तो इसका लाभ मिल सकता हैं। वैसे भी प्रत्यक्ष निर्वाचन ना होने के कारण अध्यक्ष पद का पूरा दारोमदार जन समर्थन पर कम और “चुनाव     प्रबंधन“ पर अधिक निर्भर करेगा। इसमें हरवंश सिंह और नरेश दिवाकर दोनो ही माहिर हैं। फिर दोनों के बीच समन्वय से राजनीति करने का पिछले 15 सालों से जो खेल चल रहा हैं उसे देखते हुये राजनैतिक क्षेत्रों में यह कयास लगाया जा रहा हैं कि अपने अपने राजनैतिक लाभ के हिसाब से मंड़ी चुनावों में मिले जुले परिणाम सामने आयेंगें। 
जिले में तीसरे मोर्चे के गठन के प्रयास प्रारंभ -चुनाव नजदीक आने की संभावनाओं को देखते हुये जिले में भी तीसरे मोर्चे के गठन पर प्रयास प्रारंभ हो गये हैं। युवा सपा नेता एवं एडवोकेट याहया कुरैशी की पहल पर मिशन प्रारंभ हुआ हैं। इसमें वाम दलों सहित नागरिक मोर्चे के भी शामिल होने की संभावना हैं। बसपा तो इसमें शामिल होने से रही लेकिन यदि गौगपा इसमें शामिल हो जाती हैं तो तो यह चुनावी संभावनाओं पर असर डाल सकता हैं। वैसे तो पूरे प्रदेश सहित जिले में भी राजनैतिक ध्रुवीकरण इंका और भाजपा के बीच में ही है लेकिन ऐसे मोर्चे किसी की हार और किसी की जीत में निर्णायक साबित हो सकते हैं। सियासी हल्कों में यह जरूर माना जा रहा हैं कि जिले में इंका और भाजपा में व्याप्त गुट बाजी का यदि कोई मोहरा बन जायेगा तो उसकी मारक क्षमता कम हो जायेगी क्योंकि आज कल आम मतदाता इतना जागरूक हो गया हैं कि वो इन सब हथकंड़ों को को बखूबी समझने लगा हैं और यह भी समझ चुका हैं कि चुनावी समीकरण अपने पक्ष में करने के लिये जिले के कौन कौन महारथी ऐसे कारनामें करते रहते हैं। वैसे याहया कुरैशी का नाम एक ऐसा नाम है जिस पर अभी कोई ब्रांड़ चस्पा नहीं हैं। इसलिये उनकी अगुवायी में यदि ऐसा कोई प्रयास होता है तो उन्हें बहुत सावधानी से कदम उठाने पड़ेंगें और अतीत के प्रयोंगों से सबक भी लेना पड़ेगा। वरना नतीजा वही ढाक के तीन पात के समान हो जायेगा। “मुसाफिर“