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4.12.12

"रिश्वतखोरी" गुनाह या मजबूरी ?



देखो......सर मैंने कुछ नहीं किया!
रे भाई तो फिर क्या मैंने किया है, अब तो जो दंड बनता है वो तो तन्ने भरना ही पड़ेगा।

ऐसा क्यों सर जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो मैं क्यों भरू सर ये दंड!!!
देख छोरे मैं तन्ने ना जाने दू तू चाहे तो अपने आपको बचा सकता है और इस दंड से भी बच सके है।।।

एक मन तो किया की वही छोड़ के अपनी गाडी घर को लौट आऊ पर घर वालो ने पूछा तो क्या जवाब दूंगा। क्या बोलूँगा की मैंने अपनी बाईक किसी ठुल्ले को थमा दी और चला आया। फिर सोचा की दोस्त की धौस जमा के देखू शायद मैं निकल पाऊ  इन सब झमेलों से।
सर, मैं एक कॉल कर सकता हु अपने भाई को ?
क्यों रे छोरे तेरा भाई कोई तोप  हैं क्या कही का, जा करले जो करना है अब तो तेरी गाड़ी जब्त होगी!!

क्या जब्त!!!
पर क्यूँ आप मेरा चालान तो बनाओ और मुझे कही और भी जाना है।

देख छोरे इब  तो तेरा कोई चालन ना कट सके है। चाहे तू जो करले, इब तो अपनी गद्दी थाने से छुडवा लियो और करले कॉल जिसे कर रहा था। उसने जबरन मुझसे चाभिया मांगी और मैंने उसे पकड़ा दी।

फिर क्या था वो ठुल्ला मेरी बाईक ले गया और ठाणे में जमा करवा दी। मैंने भी मन ही मन सोचा हुआ था कुछ भी हो जाए इसे घूस तो बिलकुल भी नहीं देनी। हम लोगो ने ही इसे इतना बढावा दिया है हमें ही इसे रोकना चाहिए। ऐसे ही कुछ अछे विचारो का जैसे सैलाब सा उमड़ आया मेरे मन में।

सोचा घर जाके सबको बोल दूंगा की मैंने ठुल्ले को घूस ना दे कर कितना अच्छा काम किया हैं। घर पंहुचा और माँ से बोला माँ मेरी मोटर साईकिल एक ठुल्ले ने जब्त कर ली क्योंकि मेरे पास बाईक के बीमा के कागजात नहीं थे। और उसके घूस मांगने पर मैंने उसे घूस ना देकर देखो समझ पे कितना बड़ा उपकार किया हैं।

माँ चीखते हुए......ये क्या किया अभी गाडी कहाँ हैं?
गाड़ी तो ठाने में बंद हैं।
तू पागल तो नहीं हैं तुझे क्या जरूरत थी उसे गाडी की चाभी दने की, दे देता उसे 50, 100 रुपये और मामला रफा दफा करता।
मैं थोडा रुवाब झाड़ते हुए क्या माँ आप भी ऐसा क्यों बोल रहे हो? आपको तो बल्कि मुझे शाबाशी और मेरा हौसला बढाना चाहिए. आपके लड़के ने गलत का साथ नहीं दिया बल्कि सही का साथ देते हुए इस रिश्वतखोरी के खिलाफ अपना पहला कदम बढाया हैं।

बेटा जी ये जो बाते तू बोल रहा हैं न आज के समय में सिर्फ फिल्मो में या सिर्फ सुनने में ही अच्छी लगती हैं क्यूंकि असल जीवन में ये तार्किक बाते नहीं काम आती।  और रही बात समाज में फैली बुराईयों से लड़ने की बात तो बेटा उसके लिए तो वो अरविन्द केजरीवाल और अन्ना हजारे जी जैसे समाज सेवी बैठे ही हैं न, फिर तू क्यूँ इन्हें अपना काम करने से रोक रहा हैं?

क्या माँ आप भी और लोगो की तरह सिर्फ अपने बारे में सोच रहे हो मैंने तो सिर्फ रिश्वतखोरी की बात ही की थी आपने तो पता नहीं कहा अरविन्द केजरीवाल और अन्ना हजारे जी जैसे महान समाज सेवियों तक बात पंहुचा दी। मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हु की समाज को शुधारने की शुरुवात तो सबसे पहले पहल तो हमें ही करनी पड़ेगी न। और रही बात बाईक की वो तो एक माफ़ी पत्र थाने में SHO के हस्ताक्षर करवा के जमा करवा देना हैं बस उसी दिन बाईक मुझे मिल जायेगी। बस इतना ही तो करना है और गलती तो मेरी ही थी न जो मैंने ध्यान नहीं दिया की बाईक का बिमा ख़त्म हुए सप्ताह बीत गया हैं। अब दूसरा बीमा भी बाईक लाते ही करवा लूँगा।

बेटा अभी तू इन थाने के चक्करों में नहीं पड़ा न, तो ऐसी बाते कर रहा हैं। चल देखते है तेरी बाईक कब छूटती हैं।
मन में मैं यही सोच रहा था की आखिर माँ ने ऐसा क्यूँ बोला। क्या इतना मुश्किल हैं इस समाज में अपने सभी दायित्वों के प्रति जागरूक होकर रहना?

सोचा की पहले पत्र  लिख लू बस फिर क्या पत्र  लिखते ही थाने पंहुचा और सीधे ही SHO साहब के कक्ष की और तेजी से चल पड़ा।  जाकर पता चला की साहब तो हैं ही नहीं वो अगले दो दिन के लिए किसी दुसरे राज्य में कोई सेमिनार में सिरकत करने हेतु गए हुए हैं। सोचा चलो कोई नहीं पत्र तो लिख ही लिया हैं दो दिन बाद फिर आ जाऊंगा और उनके हस्ताक्षर ले ही लूँगा और इसी बहाने थोडा पैदल चलने का मौका भी मिल जाएगा।

दो दिन बाद फिर से साहब के कक्ष की और गया तो पता चला साहब दौरे पर निकले हुए हैं। मैंने एक साहब से पूछा की कब तक आयेंगे तो पता चला की उनके घर पे कोई पारिवारिक त्यौहार हैं वो सीधे ही घर की और निकल जायेंगे। थोड़ी झल्लाहट हुई मन में पर उसे नकारता हुआ सोचा की चलो कोई नहीं जहा 2 दिन इन्तेजार किया वह 1 दिन और सही।

अगले दिन फिर मैं साहब के कक्ष की और बड़ा तस्सली हुई देखकर की साहब आज बैठे हुए हैं और वह आये कई लोगो के पत्रों पे पाने हस्ताक्षर करने में थोड़े व्यस्त हैं। मैं भी अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठ गया। करीबन डेढ़ घंटे बाद जब मेरी बारी आई तो वह गेट पर खड़े एक व्यक्ति ने जो की सादे लिबास में था, ने मुझे रोका और काम पूछा की क्यूँ मिलना चाहता हु मैं SHO  साहब से?

मैंने उसे बताया की मेरी बाईक बंद हैं और इसी सिलसिले में मैंने एक माफीनामा पत्र लिखा हैं और उसी पत्र पे साहब के हस्ताक्षर लेने हैं और इसे थाने में जमा करवा कर अपनी बाईक छुडानी हैं।

उस आदमी ने मेरी तरफ देखा और बोला की भाई मैं तुम्हारे इस पात्र पे साहब के हस्ताक्षर करवा सकता हु बशर्ते मैं उसे कुछ बक्शीश या ये कहूँ की वो अप्रत्यक्ष रूप से मुझसे रिश्वत की मांग कर रहा था। मन तो मेरा ऐसा किया की उसकी शिकायत साहब को जाकर अभी कर दू पर वो कम्बखत वही दरवाजे पे अड़ा खड़ा हुआ था और उन्ही को अन्दर जाने दे रहा था जो उसकी बात मानकर उसे बक्शीश/रिश्वत दे रहे थे।

मैंने सोचा क्यूँ न सीधे ही अन्दर घूस जाऊं और साहब को इसकी शिकायत लगा दू और अपने पत्र पे उनके हस्ताक्षर करवा लूँ।

मैंने उसे थोडा पीछे की और धकेलकर आगे बढकर सीधे ही साहब की मेज की और बड़ा और साहब को अपना पत्र देते हुए कहा सर इस माफीनामे पत्र पर आपके हस्ताक्षर की जरूरत हैं। कृपया करके आप इस पर हस्ताक्षर कर दे। वही पीछे से भागता हुआ उनका चमचा आया और साहब को बोला साहब ये छोरा जबरन अन्दर आया हैं। साहब मुझे घूर के थोड़े गुस्से वाले मुद्रा में निहारने लगे।

सर मैं पंक्ति में ही था और जब मेरा नंबर आया तो ये जनाब मुझे बक्शीश की मांग करने लगे और कहने लगे की बक्शीश दो और अपना काम आराम से करवा लो। सर मैं इस बक्शीश के बिलकुल खिलाप हूँ और इसका मैं पुरजोर विरोध करता हूँ। और तो और इसने ये मांग मुझसे ही नहीं अपितु सभी से की हैं और जो लोग इसकी मांग को पूरा कर रहे हैं वो ही आपके पास तक पहुच रहे हैं।

इतना ही बोला था की साहब ने पहले तो मुझे बड़े ही अजीब ढंग से देखा और दुसरे लोगो की तरफ भी और पूछा की क्या ये लड़का सच बोल रहा हैं?
सभी ने एक साथ ही बोला जी सर ये बिलकुल सही बोल रहा हैं और ये बंद हर किसी से बक्शीश ले कर ही आप तक पहुचने दे रहा हैं।

साहब ने उसे खूब डाटा  और कहा की आगे से उसने किसी से भी बक्शीश की मांग की तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा।मैं मन ही मन खुश हो रहा था की चलो कुछ तो अच्छे लोग बचे हुए हैं जो आज भी जागरूक है अपने कर्तव्यो के प्रति। साहब ने मुझसे मेरा पत्र माँगा और थोडा उसमे कुछ पढने के बाद बोले की इस पर मैं अपने हस्ताक्षर नहीं कर सकता क्योंकि इस पर टिकट नहीं लगी हैं पहले वो लगा के लाओ फिर मुझसे हस्ताक्षर करवाओ।

मैं ये सब सुनकर दंग रह गया और जल्द ही टिकट लगा कर दुबारा आया और साहब की डेस्क की और बड़ा और अपना पत्र साहब की और लपकाया। साहब ने सीधे ही बिना मेरी तरफ देखे ही कहा बेटा ऑफिस बंद होने का समय हो चला हैं, अब सोमवार को आना अपनी बाईक को छुडवाने। मैंने काफी विनम्रता से अपनी मजबूरी जाहिर की साहब के सामने की सर मैं एक स्टूडेंट हूँ और मुझे बहुत दूर-दूर अपनी पढाई के सिलसिले में जाना होता है। इसलिए कृपया करके आप इस माफ़ी पत्र पर अपने हस्तांतरण कर दे। पर साहब मेरी बाते अनसुनी करते हुए चलते बने। वो बंदा जिसकी शिकायत मैंने साहब से की थी वो बड़ी ही मंद मंद हसी लिए हुए मुझे घूर रहा था मानो कह रहा हो "और कर ले शिकायत अब तो तेरी बाईक कभी नहीं तुझे मिलने वाली"।

मेरे मन में काफी झल्लाहट हुई इतना सब कुछ करने के बाद भी काम नहीं हुआ क्या फायदा हुआ शायद मुझे उसे थोड़ी सी बक्शीश दे कर अपना काम करवा लेना चाहिए था। फिर निकल कर बाहर आने लगा तो वो बंदा  मुझे देख कर मुस्कुराया और बोला भाई मेरे साहब से माफ़ी मांग ले और मुझसे भी और फिर तेरा काम हो सकता है और फिर तेरी बाईक छूट जायेगी।

मैं मन ही मन मुझे आत्मग्लानी का अनुभव सा हुआ की क्यों मैंने बेकार में ही पंगे ले लिए। कहने के लिए ही भारत एक लोकतान्त्रिक देश रह गया हैं क्यूंकि यहाँ तो मैंने सिर्फ रिश्वतखोरी के विरोध में अपनी आवाज भर बुलंद की थी। यहाँ तो क़ानून के दो मामूली नुमाईन्दे ही उसे दबाने में एकजुट हो गए। अब मुझे समझ में आया की इतने दिनों से अरविन्द केजरीवाल साहब और अन्ना हजारे जी जैसे समाज सेवी द्वारा चलाये गए मुहीम को अभी तक मंजूरी क्यूँ नहीं मिली। इनकी लडाई तो पुरे भ्रष्ट सिस्टम से हैं। खैर मुझे एक आखरी फैसला लेना ही पड़ा की मुझे आगे क्या करना चाहिए अपनी बाईक छुड़ाने के लिए।


मैंने अपने अन्दर जागे हुए जिम्मेदार नागरिक को दबाते हुए उस बन्दे की बात मानी और उसे सॉरी बोला और बोला की भाई कृपया करके वो मेरा काम करवा दे और मैं साहब से माफ़ी भी मांग लूँगा। उसने मुझसे अपनी बक्शीश ली और कहा की कल सुबह सुबह वो साहब से मेरे बारे में जरूर बात करेगा और मेरा काम करवा देगा।

मैं घर पंहुचा और माँ को सब हाल सुनाया। माँ ने मेरी तरफ देखा और कहा बेटा मैंने तो तुझे पहले ही कहा था की इन समाज सेवा वाले चक्करों में न पड देखा आखिर में थक हार कर तुझे ही झुकना पड़ा। क्यूंकि तू एक आम आदमी है जिसे कोई भी औधे पर बैठे सरकारी अधिकारी के आगे झुकना ही पड़ता है। वरना अंत में परिणाम ऐसा ही निकलता हैं।

माँ आप शायद ठीक बोल रहे हो आगे से मैं भी इस भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा बनने में देरी नहीं करूँगा। कल ही जाकर अपनी बाईक छुडवाता  हूँ। बस इतना कहते ही अपने कमरे में जाते हुए मैं बस एक ही बात सोच रहा था की सभी लोग ऐसी परिस्थिति में आते होंगे और वो क्या करते होंगे? क्या वो भी झुकने को मजबूर हो जाते होंगे इस भ्रष्ट सिस्टम के आगे।

खैर मैं अभी भी थोडा सा भ्रमित हूँ की "रिश्वतखोरी" एक गुनाह हैं या मजबूरी हैं? अब आप ही बताये? ये कहानी एक काल्पनिक कहानी है जिसकी प्रेणना मुझे एक मित्र के साथ हुई आप-बीती से मिली। अगर किसी व्यक्ति विशेष को मेरी किसी बात का बुरा लगा हो तो मैं माफ़ी चाहूँगा।



via : Pawan Mall