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4.12.12

हमाम में सब नंगे !


एफडीआई पर आखिर बहस शुरु हो ही गयी...बहस में पक्ष और विपक्ष के तर्कों के बाद ये सामने आने लगा है कि वास्तव में हर कोई राजनीतिक दल सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे को ही देख रहा है। भाजपा ने जहां एनडीए सरकार में मनमोहन सिंह के राज्यसभा के नेता के तौर पर एफडीआई का विरोध करने की बात कहते हुए मनमोहन सिंह पर सवाल उठाए तो कांग्रेस जवाब देती है कि 2004 में एफडीआई का भाजपा समर्थन कर रही थी और अब भाजपा पलट गयी है। सरकार का पक्ष रख रहे कपिल सिब्बल एफडीआई पर बहस के औचित्य पर ही सवाल उठा देते हैं तो भाजपा सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करते हुए कहती है कि कांग्रेस के ही प्रियरंजन दास मुंशी ने इसे देश के खिलाफ बताया था। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के तो भाषण में भी पीएम की कुर्सी को पाने की चाहत साफ दिखाई दी...मुलायम सिंह सोनिया गांधी से ये निवेदन करते हुए साल-दो साल के लिए फैसला वापस लेने की बात करते हैं कि इस फैसले का फायदा 2014 के चुनाव में उठा ले जाएगी...और आप(कांग्रेस) और हम(सपा) हाथ मलते रह जाएंगे। मुलायम ये भी कहना नहीं भूले कि मौका मिला तो हम(सपा) फिर आपको(कांग्रेस) समर्थन दे देंगे...वर्ना आप हमें समर्थन दे देना। मुलायम सांप्रदायिक ताकतों(भाजपा) को रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने की बात करते हैं...क्योंकि मुलायम को तो लगता है कि भाजपा से तो उसका गठजोड़ हो नहीं सकता। बसपा के दारा सिंह भी कुछ ऐसी ही दलील देते हुए नजर आते हैं...वे वोटिंग के वक्त फैसला लेने की बात तो करते हैं लेकिन बसपा का क्या फैसला होगा ये सबको पता है क्योंकि मायावती को अपनी गर्दन सीबीआई के हाथों में नहीं देनी है। कल तक सरकार से कंधा से कंधा मिलाने वाली टीएमसी को अब सरकार ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन लगती है और टीएमसी मनमोहन सिंह पर अंडर अचीवर का खिताब धोने के लिए औऱ अमेरिका के दबाव में एफडीआई पर फैसला लेने की बात करती है...लेकिन ये वही टीएमसी है जो कुछ दिनों पहले तक सरकार के हर फैसले पर उसके साथ थी। बड़ी विडंबना है राजनीतिक दलों को हर तरफ मैनेज करके चलना पड़ता है सत्ता में रहो तो बैशाखी के सहारे खड़ी सरकार को बचाने की चिंता और विपक्ष में रहो तो अगले चुनाव में सत्ता पाने की चाहत...अब इसके लिए अपनी बात से पलटना पड़े या फिर किसी दूसरे को सत्ता में आने से रोकने के लिए दुश्मन का भी हाथ क्यों न थामने पड़े...राजनीतिक दल इससे गुरेज नहीं करते...आखिर राजनीति में आए ही सत्ता पाने थे...सत्ता का स्वाद न चख पाए तो फिर बेकार है राजनीति करना।

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