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25.12.12

क्या भगवान भी रिश्वतखोर हो गया है?-ब्रज की दुनिया

मित्रों,कुछ ही दिन पहले 19 दिसंबर को उद्योगपति विजय माल्या का जन्मदिन था। विजय माल्या ठहरे धनाभिमानी और उन्होंने इसे साबित किया भी। उन्होंने अपना 58वाँ जन्मदिन मनाया भगवान वेंकटेश्वर तिरूपति को तीन किलो सोना दान करके। ऐसा उन भगवद्भक्त ने तब किया जबकि उनकी किंगफिशर एयरलाइन्स के कर्मचारियों व अधिकारियों को पिछले कई महीनों से वे वेतन नहीं दे सके हैं और इसके चलते वे बेचारे भूखे-प्यासे हड़ताल पर भी हैं। यह कैसी भक्ति-भावना है विजय माल्या जी की जो ईश्वर की सर्वश्रेष्ट अनुकृति को तो उन्होंने महीनों से भूखा-सूखा रखा है और भगवान वेंकटेश्वर की प्रस्तर-प्रतिमा पर चढ़ा रहे हैं तीन किलो सोना! प्रश्न उठता है कि क्या इन मंदिरों में या मूर्तियों में सचमुच भगवान रहते हैं? मैं समझता हूँ कि भगवान मंदिरों में या मूर्तियों में नहीं बल्कि विश्वास में निवास करते हैं,वे विश्वास की पवित्रता में रहते हैं। यह सोंचने की बात है कि जो भगवान सबका पालनहार है उसको क्या जरूरत है सोने,हीरे और पैसे की? वह तो ब्रह्मांड के कण-कण में निवास करता है। पूरी दुनिया उसका ही ऐश्वर्य़ है फिर धनी लोग क्यों चढ़ाते हैं उसकी मूर्ति पर सोना-हीरा? क्या ऐसा करते समय उनके मन में श्रद्धा या भक्ति होती भी है या वे ऐसा अभिमानवश अपने धन-प्रदर्शन के लिए करते हैं? या वे समझते हैं कि भगवान भी रिश्वतखोर हो गया है और धन देने से खुश हो जाएगा? क्या वह सोना-चांदी भगवान तक पहुँचता भी है या फिर वह पुजारियों के काम आता है या यूँ ही अनुपयोगी पड़ा रहता है? शास्त्र कहते हैं कि समस्त जड़-चेतन ईश्वर से,ईश्वर द्वारा और ईश्वर में निर्मित है। ईश्वर जड़ से ज्यादा प्रकट रूप में चेतन में और उससे भी ज्यादा प्रकट रूप में इन्सानों में दृष्टिगोचर होता है। इन्सान ही ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि या प्रतिकृति है। मूर्तियों में भगवान है लेकिन जड़ रूप में। जैसे हमारी तस्वीरों में हम होते हैं फिर भी हम तस्वीर नहीं हो जाते वैसे ही मूर्तियाँ ईश्वर का प्रतीक मात्र हैं वे भगवान नहीं हैं। फिर इन्सानों को भूखा रखकर जड़ मूर्तियों पर धन न्योछावर करने की मूर्खता क्यों? क्या वह धन ईश्वर तक पहुँचेगा या कहीं किसी तिजोरी की शोभा बनकर अनुपयोगी रह जाएगा? अगर अनुपयोगी धन कालाधन होता है तो ये प्रस्तर-मूर्तियों को दान में दिए गए हीरे-मोती कैसे कालाधन नहीं हुए? जो धन चेतन-ईश्वर की जरुरतों को पूरा करने में खर्च होना चाहिए उसको जड़-प्रतिमा या मंदिर के खजाने में कैद करने से क्या लाभ? मैं नहीं समझता कि ऐसे धन से वह दयासागर/सर्वकारण थोड़ा भी खुश होता होगा क्योंकि वह तो अपने बंदों के दुःख से दुःखी और अपने बंदों के सुख से ही सुखी होता है।
                मित्रों,इसलिए सरकार को चाहिए कि चाहे भारत का कोई भी मंदिर हो उसमें जमा धन-संपत्ति को जब्त कर ले और इसको गरीब हिन्दुओं के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने पर खर्च करे लेकिन खर्च पूरी पारदर्शिता के साथ होना चाहिए। इसमें बिल्कुल भी घोटाला नहीं होना चाहिए।
                  मित्रों,ये तो हुई मंदिरों के खजाने की बात अब कुछ बात कर लेते हैं मंदिरों में रहनेवाले बिचौलियों यानि पुजारियों की। हम गरीब भक्त जो भी छोटा-मोटा चढ़ावा चढ़ाते हैं या दान करते हैं उनका ज्यादा बड़ा हिस्सा इनकी ही भेंट चढ़ते हैं। मैंने ऐसे कई महंतों को देखा है जिन्होंने अपने घरवालों को करोड़पति तक बना दिया। ये श्री-श्री 1008 से युक्त या रहित कथित भगवद्भक्तों का जीवन काफी ऐश्वर्यपूर्ण होता है। इनमें से कुछ तो हमारे दान के बल पर सोने की पालकियों तक की सवारी गाँठते हैं। हम दान करते हैं कथित भगवान को और उससे गुलछर्रे उड़ाते हैं ये पाखंडी भूदेव या तथाकथित संन्यासी। संन्यास तो सर्वस्व-त्याग सिखाता है फिर ये कैसे संन्यासी या भक्त हैं जिनको हम गृहस्थों से भी कहीं ज्यादा शारीरिक सुख चाहिए?  कई मंदिरों में तो विधिवत देवदासियाँ रखने की भी प्रथा है। ये देवदासियाँ पुजारियों की यौन-जरुरतों को पूरा करती हैं,एकसाथ उनको कई-कई पुजारियों की हवस को शांत करना पड़ता है और वो भी धर्म और ईश्वर के नाम पर। छिः,क्या इसी को भगवद्भक्ति कहते हैं? इससे तो अच्छा रहता कि ये लोग संन्यासी के बदले गृहस्थ ही बने रहते। तब दोनों आश्रमों की प्रतिष्ठा बनी और बची रहती। जब ये बिचौलिये हम गृहस्थों से भी ज्यादा माया “कामिनी और कंचन” के प्रति आसक्त हैं तो फिर इनकी विलासिता की पूर्ति में या पाप में समाज क्यों भागीदार बने? क्या आवश्यकता है इनकी हिन्दू समाज को? मैं यह नहीं कहता कि इनमें से सारे-के-सारे इसी तरह के हैं लेकिन कम-से-कम 80-90%  तो ऐसे हैं ही।
              मित्रों,कुल मिलाकर हमारे हिन्दू धर्म का संस्थागत हिस्सा लगभग पूरी तरह से भ्रष्ट और बर्बाद हो चुका है और इसमें तत्काल बृहत् सुधार की आवश्यकता है। परन्तु लाख टके का प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा होगा कैसे? इसके लिए भगवान तो अवतार लेने से रहे इसलिए जो कुछ भी करना है हमें ही करना है,हम हिन्दुओं को ही करना है। हमें करना बस इतना ही है कि हम दान देते समय सावधानी बरतें और यथासंभव अपने विवेकानुसार केवल सत्पात्र को ही दान करें। चाहे वह राशि 5 रूपए की हो या 5000 रूपए की। इसके साथ ही अगर हमारे इलाके में कहीं देवदासी प्रथा किसी भी रूप में चलन में हो तो उसका विरोध करें और उस संन्यासी को बिल्कुल भी दान न करें। दान करना बहुत अच्छी बात है इसलिए दान देना बंद न करें लेकिन दान करें तो भगवान के साक्षात चेतन स्वरूप जरुरतमंद मानवों की मदद करके करें। इसमें न तो संकोच ही करें और न ही लज्जा। इति शुभम्। 

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