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15.2.13

स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !

स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !

बजट 2013 से लगायी जा रही बहुत सी आशाओं में से एक यह भी है कि सरकार काले धन को बाहर लाने के लिये किसी क्षमादान योजना की घोषणा कर सकती है । ऐसी एक योजना 1997 में वी.डी.आई.एस. (Voluntary Disclosure of Income Scheme - 1997) के नाम से आयी थी । इस बात को अगर फिल्म स्पेशल - 26 की रिलीज की टाइमिंग के साथ जोड़कर देखा जाये तो इसकी टाइमिंग बहुत ही सटीक है ।

फिल्म की टाईमलाइन 1987 की है । समाजिक परिपेक्ष में कहें तो काले धन के आगे सरकारें जितनी बेबस 1987 में थी उतनी ही 1997 में और उतनी ही 2013 में । अगर कहूँ कि सरकारों की बेबसता इतनी बढ़ती नजर आती है कि वे इसके सामने घुटने टेकने में ही समझदारी मानती हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात को फिल्म एक रोचक अन्दाज में प्रस्तुत करती है । काला धन आशातीत रफतार से बढ़ा वही उसकी निगरानी करने वाली सी.बी.आई. (CBI) नामक एक संस्था की असलियत उसके अधिकारी के रूप में मनोज बाजपेयी के किरदार वसीम खान खोलते दिखे । वसीम खान अपनी तन्खवाह में इजाफे और प्रमोशन के लिये अपने उच्च अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते दिखतें हैं और ऐसा न होने पर रिश्वत लेना शुरू करने की धमकी देते हैं । किसी प्रकार उच्च अधिकारी उनको टालता है । और फिर वही काम । जबकि नकली सी.बी.आई. से मिलकर दिल्ली का इन्सपेक्टर और शान्ती जी ’असली काम’ कर गये जबकि बाकि तो अपनी नौकरी .. ...

तो इस प्रकार की समाजिक सेटिंग में अगर कोई फर्जी सी.बी.आई. अधिकारी बन कर किसी भ्रष्ट राजनेता या व्यापारी को लूट ले तो उन्हे समाजवाद का पहरुआ कहना भी गलत नहीं होगा । जहाँ फिल्म ’पान सिंह तोमर’ में फर्जी पुलिस बनकर अपहरण किया जाना दिखाया गया, वहीं स्पेशल 26 कुछ आगे बढ़ते हुये फर्जी इनकम टैक्स और सी.बी.आई. की रेड (छापा) दिखाकर अकूत संपदा की लूट दिखाने में कामयाब रही । इस फिल्म से देश के युवाओं को सन्देश मिलाता है कि ज्यादा पैसा कमाने के लिये ’डान’ बनकर खून- खराबा करने की जरूरत नहीं हैं । वरन बकौल मुख्य किरदार अजय बने अक्षय खन्ना, पैसा दिमाग से कमाया जा सकता है ।

इस फिल्म के कुछ दृश्यों में लूय्टयन की दिल्ली, खासकर सफेद पुति कनाट प्लेस, उसकी खाली - खाली सड़कों और उन पर दौड़ती इक्का - दुक्का मारुती - 800 कारें भी इस अहसास को गहराती है कि अब भारत तरक्की कर चुका है । आज सड़कों पर हमर, मर्सडीज और फोक्स वैगन की भरमार के साथ ही पार्किंग को रत्ती भर भी जगह नहीं मिलेगी ।

फिल्म की टाइमलाइन के अनुसार कुछ बातें जो खटकी वो हैं कि दिल्ली के आटो में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटील की किसी फिल्म का एक पोस्टर चिपका था वो प्लास्टिक (फैल्क्स) पर छपा था । कलकत्ता से एक दृश्य में सी.पी.ई. - एम की झण्डियाँ भी प्लास्टिक की दिखीं । उस समय तक फैल्क्स एवं प्लास्टिक की झडियों का चलन नहीं आया था । दिल्ली से चण्डीगढ़ वाली ट्रेन का ईन्जन (प्रबल) भी 1987 बाद ही सेवा में लिया गया था । बम्बई के ज्वेलरी शोरूम में सी.सी.टी.वी. कैमरे का प्रयोग दिखायी गया है जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 1987 में इसका प्रयोग होना शुरू हो गया था कि नहीं । पर यह मेरे सन्देह के घेरे में है ।

कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा दर्जन भर जबरदस्ती ठूंसे गये गानों के युग से बाहर आ चुका है । स्पेशल 26 भी एक थीम में चली जहाँ एक गाना फिल्म के लिये वाजिब होता है । इसके प्रोमों में दिखाया जाना वाला गाना (धर पकड़) कास्टिंग के समय प्रयोग किया गया है । काजल अग्रवाल हिन्दी फिल्मों के लिये लम्बी रेस की घोड़ी साबित हो सकती हैं पर उन्हे अपने बोलने के तमिल अन्दाज को बदलना चाहिये ।

वसीम खान को फिल्म में परिचित कराने के लिये, गुप्ता नामक किसी किरदार को पकड़ने के लिये एक उबाऊ भागा - दौड़ी का सीन जबरदस्ती डाला गया सा लगता है । इसकी कोई जरूरत कथानक के साथ मेल खाते हुये नहीं दिखी । दर्शक बिना इसके भी वसीम खान को असली सी.बी.आई. अफसर मान लेते । मेरे विचार में फिल्म ज्यादा कम्पलीट सी दिखती अगर राजनेता और व्यापारी के साथ - साथ किसी सरकारी अफसर के घर भी रेड डालते दिखाया जाता ।

असली सी.बी.आई. अफसर वसीम को जब अहसास होता है कि खुद उसे और उसकी पूरी टीम को ही स्पेशल 26 की तरह इस्तेमाल किया जा चुका है और वे फर्जी सी.बी.आई के हाथों काले धन की चोरी को पकड़ पाने में असफल रहे तो उनका चुल्लू भर पानी (डूबने के लिये) मंगाना भी छू गया । पर जल्द ही असली और फर्जी सी.बी.आई. की और मुठभेड़ों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि फिल्म इस नोट पर खत्म होती है कि इसका सीक्वेल भी आ सकता है ।

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