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17.4.13

शिक्षा की भिक्षा और हमारा समाज

आरपी सिंह
अब पत्रकारिता में भी पत्रकारों की योग्यता पर सवाल उठा रहे हैं हमारे काटजू जी। समझ में नहीं आता की जहां 90 प्रतिशत लोग मूर्ख हों वहाँ पत्रकार शिक्षित रहकर क्या कर लेगा ? इस देश की दुर्दशा तभी से शुरू हुई जब से शिक्षा को अत्यंत जरूरी बताया गया और उसका सरकारीकारण किया गया। पहले अल्प शिक्षित लोग होते थे तो वे ईमानदार और सद्गुणों से युक्त होते थे। पूरे समाज में मातृशक्ति का सम्मान किया जाता था। लोग घूंस जैसी चीजों से घृणा करते थे। जब से देश में तथाकथित उच्च शिक्षित लोगों की बाढ़ आई रंगीन डिग्रियों को ही सबकुछ समझा जाने लगा तब से देश ही नहीं समाज की भी दुर्दशा होनी शुरू हो गई। आलम ये है की शिक्षा का स्तर जितना ही ऊपर गया आदमीं का नैतिक चरित्र नीचे गिरता गया। प्रशासनिक बहानेबाजी ने भी जोर पकड़ लिया। न्यायाधीश महोदय भी फैसले से जयादा तारीखें देने में विस्वास करने लगे। आयोग बैठाए तो गए मगर कितने आयोगों की रपट पर कार्यवाही हुयी ये पूरादेश जनता है। बस एक ही रटा -रटाया जुमला चलता जा रहा है की हम जांच कर रहे हैं न? सांच को जांच की आंच पर चढ़कर चमकने की बजाय उसपर लेट लतीफी की कालिख पोतकर लोग अपनी किस्मत चमकाने में लगे हैं। ऐसे लोग अतिउच्च शिक्षित और सभ्य बताये जाते हैं। हर युग में द्रोणाचार्य हमारे समाज में रहे हैं। जो मेहनत करके आगे बढ़ानेवाले एकलव्य का अंगूठा कटाने को तत्पर दिखाई देते हैं। हमारे समाज में एक खून की सजा तो फांसी या फिर उम्र कैद होती है मगर जो तीस-तीस लोगों को सरेआम गोलियों से भूनती है उसको हमीं चुनकर संसद में बैठाते हैं? उसदिन कहाँ थे ये सभ्य समाज के लोग? दुर्भाग्य का विषय है कि एक डकैत को सांसद बनाया तो जा सकता है मगर एक गरीब जो किसी तरह कलम के सहारे अपनी रोजी रोटी जुगाड़ करना चाहता है उसको अयोग्य बताकर और कमजोर बनाया जा रहा है। तो क्या ये मानलिया जाये की अब इन शिक्षितों और सभ्य समाज के देश में गरीब और लचर व बेबस लोगों के लिए कोई जगह नहीं है? काटजू जैसे लोग ये क्यों नहीं मानते की जितनी भी अच्छी रचनाएँ हमारे कवियों संतों और महात्माओं ने रची थी उनके पास आपके इस भारत सरकार की रंगीन और चमकीली डिग्रियां नहीं थीं। आज कबीर दास जी को एम ए में पढाया जाता है उन्हों ने खुद लिखा है की मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहि हाथ। अच्छ तो तब होता की इस शिक्षा का बाजारीकरण रोका जाये। जो मीडिया हाउसेस बड़े-बड़े कालेज खोलकर धड़ल्ले से चला रहे हैं जाहाँ मोटी फीस वसूली जा रही है पहले उसको बंद कराएँ। अगर गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना शुरू कर देंगे तो बहुत जल्दी एक अच्छी और योग्य पत्रकारों की बैच आपको चुनौती देने के लिए खादी मिलेगी। यही हाल चिकित्सा और दूसरे क्षेत्रों में भी लागू होती है। धन्वन्तरि वैद्य को किसी मेडिकल काउन्सिल ने पंजीकृत नहीं किया था। हेनीमैन भी एलोपैथिक डॉक्टर होते हुए भी होम्योपैथी ईजाद की , लुकमान हकीम को भी किसी यूनानी कौंसिल या फिर किसी सरकार ने डिग्री नहीं दी थी मगर ये आज के चिकित्सकों से ज्यादा योग्य थे। चोरी की थीसिस खरीद कर जो डॉक्टर बनाये जा रहे हैं उनको रोकना होगा। जो डॉक्टर गरीबों का खून चूस रहे हैं उनको रोकना होगा। जो न्यायाधीश महोदय मुकदमें के फैसलों से ज्यादा तारीखें दे कर वेतन बटोर रहे हैं उनको सुधरन होगा। इसके साथ ही साथ बयानबाजी से ज्यादा कामकाजी होने पर जोर दिया जाये। वादों से ज्यादा काम को अंजाम तक पहुँचाने की कवायद करनी होगी। बयानवीरों को समाज जबतक धकियाकर बाहर का रास्ता नहीं दिखाएगा तब तक भारत में सुधार होना संभव नहीं दिखाई देता। यहाँ खाली उपाय बतानेवालों की तादाद जयादा है मगर जैसे ही धरातल पर काम करने की बात आती है तो अच्छे-अच्छों को सांप सूंघ जाता है। माइक पकड़कर लम्बी हांकना और बात है और उसको जमीनी स्तर पर खरा उतारन दूसरी बात। अगर हम सच्चे देश भक्त हैं तो हमें बयां से ज्यादा अपने कर्म के मर्म को समझाना होगा वरना ऐसे लोगों को शर्म कैसे आयेगी? जो सिर्फ सस्ती प्रसिद्धि के लिए कुछ भी अनाप-शनाप बोलकर सुर्ख़ियों में रहने के आदी होते जा रहे हैं।

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