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20.4.13

बलात्कार कानून की नहीं मानसिक सोच की लड़ाई

ये इंसान ही है जो सृष्टि पर सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। इस उत्कृष्टता की पराकाष्ठा अब इस स्तर पर उतर आई है कि मासूम बच्चियां हवस का शिकार हो दम तोडऩे लगी हैं। मासूमों के साथ होने वाले ये दर्दनाक और वीभत्स हादसे कुछ कहते हैं... सजग हो जा ऐ इंसान की मातृशक्ति पर चलने वाली इस सृष्टि पर ये कहर अब और नहीं। मासूमों के देह से होता ये खिलवाड़ उस कुत्सित मानसिकता का भौंडा स्वरूप है जहां पुरुष की मानसिकता स्त्री को केवल यौन संतुष्टि का साधन समझती है। जब-तक नारी जाति का अस्तित्व उसके शरीर को लेकर तोला और मापा जाएगा, तब -तक हमारी बच्चियां हमारे खुद के घरों में भी महफूज नहीं होंगी। किसी भी कानून या प्रदर्शन से ये हादसे तब-तक नहीं रूक सकते, जब-तक  स्त्री को केवल और केवल वासना और उपभोग का पर्याय मानने की सोच नहीं बदलेगी। उसे केवल और केवल इंसान की तरह से देखने और समझने का नजरिया नहीं विकसित होगा। केवल शारीरिक भिन्नता से एक स्त्री इस दुनिया में किसी भी दिल और दिमाग रखने वाले इंसान की प्रताडऩा का शिकार कैसे हो सकती है। गर्भ धारण कर जीवन के नए अंकुर में जान फूंक कर उसे मानव का आकार देने वाली यही है, फिर आखिर क्यों उसी की कोख से जन्मा मानव रूपी पुरुष उसे हीन या मांस का एक लोथड़ा भर मान बैठता है। क्यों उसकी सोच उसे शारीरिक संबंध बनाकर पा लेने की सोच पर आकर खत्म हो जाती है। देश में ही नहीं पूरे विश्व में क्योंकर कोई स्त्री दामिनी, निर्भया का दर्द अनगिनत बार सहने को मजबूर हो। प्रत्येक घर में पत्नी के इतर मां, भाभी, बहन और बेटी जैसे पवित्र रिश्ते हैं और क्या ये रिश्ते घर की चारदीवारी पर ही सिमट जाते हैं। मौजूदा दौर में दिल यही सब मानने को मजबूर होता है,क्योंकि जिस भी घर में मां और बेटी है शायद ही उस घर का पुरुष किसी पराई स्त्री को गलत नजर से दिखने की कल्पना भी कर पाएं। कोई भी धर्म या समाज किसी भी पुरुष को ये सोच रखने की इजाजत नहीं देता, कानूनों के बल पर नहीं बल्कि ये लड़ाई सोच और मानसिक स्तर पर लड़कर जीतने की है। सरकार, राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर आरोप लगाने से पहले समाज को स्वंय भी अपने अंदर झांककर देखना जरूरी है, हमारी सोच इस दिशा तक गिर गई है कि वासना शांत करने के लिए मासूम बच्चियों की तरफ नजर उठाने से भी इंसानी दिल को धिक्कारना गंवारा नहीं समझती। अब कोई गुडिय़ा रूसवा न हो और सिसकियों में अपना दर्द संभाले, इससे पहले ही संस्कारों के बीज हमको और आपको अपने घरों से बोने होंगे और समाज में इस पौधों को वृक्ष बनाकर छांव के लिए तैयार करना होगा। 

1 comment:

Kedar Malviya said...

Yahan har cheej baazar niyantrit hai
culture ki baat karne valo ko dakiyanoosi kaha jaata hai
Sapne hum America Britain jaisa banane ke dekhate hai lekin Bharat aur India ki doori nahi mita paate samasya vahin se shuru hoti hai.