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28.8.13

गलत उपाय से राष्ट्र का बदहाल

गलत उपाय से राष्ट्र का बदहाल 

आचार्य चाणक्य ने सूत्र दिया था कि-" जैसे भूख मिटाने के लिए बालुका रेत को
उबालना निरर्थक होता है उसी प्रकार गलत उपायों से राष्ट्र की उन्नती का
सपना सच नहीं होता है।"

"राजा का कर्तव्य है कि वह राजलक्ष्मी की सुरक्षा चोरो और राजसेवकों से करता
रहे।"

अगर देश की सरकार ने इन सूत्रों का पालन किया होता तो आज हमारे राष्ट्र की
यह आर्थिक दुर्दशा नहीं हुई होती ,मगर राष्ट्र की जगह राजा अपने समूह का हित
साधने लग जाए तो स्थिति विकट होनी ही थी और हुई भी। …

पिछले सालों में अर्थशास्त्री गलत नीतियाँ लाते ही गए ,उधारवाद की कुनीति से
सब बंटाधार हो गया ,हम उधार के पैसों से अपने को चमकता हुआ दिखलाना
चाहते थे ,चाणक्य ने ऋण,शत्रु और रोग को पूर्णतया खत्म करने की नीति बताई
और हमने ऋण लेकर उसको चोरों के, लुटेरों के हवाले कर दिया ,नतीजा देश का
धन विदेशी बैंको में काला होकर सड़ रहा है और हम बेबस हैं।

हमने अपने ही सरकारी उद्योगों को ठन्डे कलेजे से नीजी हाथों में बेचा और अपनी
पीठ ठोकते रहे ,अब जब सब कुछ कोडियों के मोल बिक गया तो असल तस्वीर
नंगी हो गयी और हम फकीर नजर आने लगे ,जिन महापुरुषों ने जो सम्पति बनायी
उसे बेचकर हम राष्ट्र निर्माण का सपना देखने लगे ! अजीब मुर्खता थी यह  …

हमने गुलाम रहकर उसके दुष्परिणाम भोग कर भी कुछ नहीं सिखा ,जिस ईस्ट इण्डिया
कम्पनी के कारण हम गुलाम हुए ,हमने उसके पुरे कबिले को न्योता दे दिया कि
वह भारत में आयें वे निवेशक के रूप में आये भी और भारतीय कम्पनियों के शेयरों
को सस्ते में खरीद कर रख लिया ,हमने उस समय कहा की देखो ,देश की तिजोरी
डॉलर से छलका दी है … हम अपनी मुर्खता का ढोल पीट कर गुणगान करते रहे
और देशवासियों को बरगलाते रहे। कुछ साल बाद वे विदेशी निवेशक कम दाम में
ख़रीदे शेयर ऊँचे दाम में हमको ही बेचकर उड़ने लगे और हम वापिस वहीँ आ गये 
जहाँ थे और जेब कब खाली हो गई ,पता ही नहीं चला।

हमने रिटेल में भी विदेशी लुटेरों को निवेशक बनाकर न्योता दिया ,वो अभी नहीं आ रहे
हैं क्योंकि वो जानते हैं कंगाल से दोस्ती करने पर बुरा हश्र होता है मगर वो उस
समय जरुर आयेंगे जब हम भारतीय पसीना बहा कर सम्पन्न हो जायेंगे और वो हमें
पुन: लूट कर चल पड़ेंगे।

हमने मुक्त व्यापार की नीति को अपनाया जबकि हमने अपनी ताकत और कमजोरियों
को नहीं जाँचा और नतीजा ये हुआ कि हम जिनको निर्यात करना चाहते थे वे देश
हमें निर्यात करके चले गए ,नतीजा देश का कुटीर ,लघु,मध्यम उद्योग लकवाग्रस्त
हो गया, सब कुछ ढेर  … और हम कहते हैं कि इसे ही प्रतिस्पर्धा कहते हैं ।

हमने वितरण क्षेत्र में लीकेज वाली नीतियाँ बनायी ,जानबूझ कर।  तब के प्रधान
कहते थे दिल्ली से चला रुपया गरीब के पास दो आन्ने बन कर पहुँचता है ,जब यह
सब जानते थे तो क्यों लीकेज बंद नहीं किये गए ,शायद गरीबों के नाम को आगे
रख कर कुछ स्वार्थी तत्वों के पेट भरने का मकसद रहा होगा ,और उन नीतियों का
परिणाम यह रहा कि गरीब और गरीब हो गया और धन को जोंक और साँपों ने डस
लिया।

सरकार भूखी, लाचार, निराश, महंगाई से त्रस्त जनता के सामने भारत निर्माण के
सपने परोस रही है। जनता यह समझ ही नहीं पा रही है कि निर्माण किसका हो रहा
है ,उसकी थाली में रोटी की संख्या हर दिन कम होती जा रही है  …। 

सरकार अपनी गलत नीतियों का दोष दुसरो पर थोपना चाहती है ताकि भेड़ें उसका
अनुकरण करती रहे और जो दोषी नहीं है उसे ही अपराधी मानती रहे  …. मगर
त्रस्त प्रजा का रोष कितना भयंकर होगा यह भविष्य में छिपा है …।  

1 comment:

Darshan jangra said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार 30/08/2013 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः9 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra