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27.9.13

सत्य के आग्रह से कतई परे, सत्याग्रह !

प्रकाश झा कैम्प से गंगाजल और अपहरन जैसी जीवान्त फिल्में देखने के बाद सत्याग्रह देखकर बहुत प्रसन्नता नहीं हुयी । इस बात को शायद इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म देखने के कई दिन बाद उस पर कुछ लिखने का मन बना पाया हूँ । एक बिखरे हुये से कथानक की झलक, जिसमें सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कई घटनाओं की चटनी परोसने का प्रयास ज्यादा दिखा।  सत्येद्र दुबे हत्याकाड़ं, अन्ना का अन्दोलन, केजरीवाल का आन्दोलन से विरचन कर राजनैतिक दल बनाना और गांधी के अन्तिम दिनों की झलक, सबकुछ एक साथ ।

एक बात इस फिल्म में जोरदार तरीके से कह दी, कि अगर आप व्यापार में हैं और तो समाज सेवा और आन्दोलन का ख्वाब मत देखिये क्योंकि राजनीति आपको जीने नहीं देगी । पर राजनीति के उच्चतम शिखर पर भी आपका बड़ा और महा-भ्रष्ट व्यापारी होना काफी मददगार सिद्ध हो सकता है । क्योंकि मानव (अजय देवगन) को अपना 5000 करोड़ का बिजनेस (जो कि वास्तविकता में 6250 करोड़ का था ) छोड़कर ही सत्याग्रह में उतरना पड़ा । । इसके पलट सभी मन्त्री सरकारी बैठकों में अपने - अपने कारोबारी हित साधते नजर आये । यहाँ तक कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का नेता भी अपने कारोबारी हितों के चलते आन्दोलन से अचानक अलग हो गया ।

फिल्म के कुछ पहलुओं पर फिल्म से मेरा प्रश्न है ।  मध्य प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में बिहारी / भोजपुरी बोलने वाले विलेन टाइप नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) की क्या जरूरत थी ? क्या बुन्देलखण्डी बोलने वाला कोई किरदार बेहतर नहीं होता ?  शायद ’गठबंधन की राजनीति ’ की मजबूरी रही होगी ?

मध्य प्रदेश में ’ हिन्दुस्तान ’ अखबार नहीं चलता है । वहाँ ’ नव भारत ’ की धूम है । पर पूरी फिल्म में प्रकाश झा हिन्दुस्तान अखबार दिखाने से बाज नहीं आये । मेरे विचार में यह रियालटी सिनेमा के सिद्धान्तों के विपरीत है । इसे हिन्दुस्तान अखबार के विज्ञापन के रूप में देखा जा सकता है । वैसे हिन्दुस्तान अखबार के अलवा फिल्म में ’ अल्ट्राटेक सीमेन्ट ’, हीरो की पैशन मोटर साईकिल, और किसी चावल के ब्राण्ड तो मुझे याद आ रहा है, जिनके की विज्ञापन दिखाये गये । इसके अलावा और ब्राण्ड भी हो सकते हैं ।

ए.बी.पी. न्यूज की प्रतिनिधि बनी करीना कपूर खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गयी और अम्बिकापुर में ही बस गयी । पत्रकारिता की निश्पक्षता पर यह सवाल खड़ा करता है । क्या वास्तव में ए.बी.पी. न्यूज अपने किसी संवाददाता को ऐसा करने देगा ? कि जब चाहे आन्दोलनकारी बन जाओ और जब चाहे रिपोर्टर ? साथ ही अजय देवगन और करीना का प्रेम प्रसंग (चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो)  कथानक से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता ।  इस पहलू पर भारतीय फिल्म निर्माताओं को हालीवुड से सीखने की जरूरत है । कि काम से काम रखो, बिलावहज का रोमांस मत ठूसो ।

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