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28.2.13

जिंदगी की जंग जीत लेंगे हम

  • स्नेहलता उर्फ़ इंदुरानी 
मुजफ्फरपुर जिला अंतर्गत मीनापुर प्रखंड के मानिकपुर गाँव की साहसी, बहादूर महिला बच्ची देवी पर यह उक्ति चरितार्थ होती है। बच्ची देवी उस व्यक्तित्व का नाम है, जिसने विषम परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी। समय के क्रूर थपेड़े ने भी उसे नहीं डिगाया। तीन-तीन मासूमों को उसके गोद में डाल पति काल के गाल में समा गए। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा। पति  द्वारा छोड़े गए बंजर जमीन और लीची की बागवानी को उसने पूंजी बनाई और चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर। आज वह स्वयं खेतों में काम करती है, अनाज उपजाती हैं, सब्जियों की खेती करती हैं। आज वह झोपड़ी में नहीं, ईंट का पक्का मकान उसके पास है। अनाजों से भरा पूरा भंडार है। उसके बच्चे निजी स्कूल में पढ़ने जाते हैं। उसके पास सब कुछ है केवल घमंड छोड़कर। उसने अपने काम को कभी प्रतिष्ठा नहीं बनाया। वह सब्जी लेकर हाट-बाजार स्वयं जाती हैं। सभी प्रकार के लेन -देन का काम स्वयं करती है। समाज के लोग भी उसकी हिम्मत की दाद देते हैं। उसके द्वारा उठाये गए कदमों की प्रशंसा करते हैं। सच ! वह शक्तिस्वरूपा देवी है। हम कमजोर नारियों के लिए आदर्श हैं। जिंदगी के जंग में सफल होनेवाली इस देवी को शत-शत नमन!  

(स्नेहलता केजीबीवी में शिक्षिका हैं। हमने इनके लिखे लेख को हूबहू प्रकाशित किया है। अप्पन समाचार की ओर से इन्हें एवं स्कूल की छात्राओं को लगातार मीडिया का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। )

ब्लॉगिंग एक सामाजिक जिम्मेदारी-ब्रज की दुनिया

मित्रों,सफलता किसे अच्छी नहीं लगती और कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो बार-बार असफलता का कड़वा-तीखा स्वाद चखना चाहता हो? दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति सफल होना चाहता है। इसके लिए कुछ लोग शॉर्ट-कट (लघु-मार्ग) का सहारा भी लेते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि सफलता का कोई शॉर्ट-कट होता ही नहीं है। गलत तरीके से सफल होनेवालों की खुशी स्थायी नहीं होती और वे कालान्तर में दीर्घकाल तक दुःख भोगते हैं।
               मित्रों,प्रत्येक युग में सफलता की परिभाषा बदलती रही है। आजकल सिर्फ आर्थिक-सफलता को ही सफलता मान लिया जाता है जो कि बिल्कुल भी उचित नहीं है। आर्थिक-विकास तो संपूर्ण विकास का एक अंग मात्र है। जीवन में पैसे के महत्त्व से ईन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन भौतिक उन्नति के साथ-साथ मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति भी होनी आवश्यक है। नैतिकविहीन धनपति असल में यह भी भूल जाता है कि वह एक मशीन नहीं है बल्कि भावनाओं से युक्त संवेदनशील मनुष्य है। वह यह भी भूल जाता है कि उस दुनिया से बदले में वही मिलेगा जो वह दुनिया को दे रहा है।
          मित्रों,इन दिनों हमारे बहुत-से भाई-बहन हिन्दी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं। उनमें-से कुछ का लेखन तो वाकई उत्कृष्ट है कथ्य के दृष्टिकोण से भी,शिल्प की दृष्टि से भी और विषय-चयन के खयाल से भी। उनका कथ्य लाजवाब होता है,विषय समाजोपयोगी और शैली अद्भुत। परन्तु हमारे कुछ ब्लॉगर-बंधु ऐसे भी हैं जो बराबर या तो देश में नफरत फैलानेवाले आलेख लिखते हैं या फिर सेक्स से भरपुर अश्लील लेख। जाहिर है वे पाठकों में उत्सुकता पैदा कर जल्द-से-जल्द ज्यादा-से-ज्यादा पाठक बटोर लेना चाहते हैं। इन दोनों कैटगरी (कृपया वे बंधु खुद को इसमें शामिल न समझें जिनकी नीति और नीयत साफ है और जो स्वस्थ आलोचना और विवेचना में विश्वास करते हैं) में आ सकनेवाले लेखकों की रचनात्मकता विध्वंसात्मक है जिससे देश टूटता है,देशवासियों के दिलों के बीच की दूरियाँ बढ़ती हैं और समाज में अनियंत्रित भोगवाद को बढ़ावा मिलता है। जहाँ तक
मैं समझता हूँ कि इस तरह के लेखक यह भूल रहे हैं कि उनका लेखन बहुत-कुछ मसाला फिल्मों के समान हो जो तत्काल सुपरहिट भले ही हो जाएँ दीर्घकाल तक याद नहीं की जातीं। कहना न होगा कि हमारे कई ब्लॉगरों की रचनाएँ इतनी अश्लील होती हैं जितनी शायद फुटपाथ पर बिकनेवाली अश्लील डाइजेस्ट भी नहीं होता होगा। अंत में मैं सभी ब्लॉगर-बंधुओं से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वे जो भी लिखें समाजोपयोगी लिखें,देश और विश्व के कल्याण के लिए लिखें क्योंकि इसी में आपका भी कल्याण निहित है। ईश्वर ने आपको समुचित सुविधाएँ और माहौल देकर इसलिए ज्ञानी और विद्वान नहीं बनाया कि आप उसका सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग करें। याद रखिए समाज तो जानबूझकर पथभ्रष्ट करना या उसमें फूट डालना एक आपराधिक कृत्य है और यह भी याद रखिए कि आप चाहे आस्तिक हों या नास्तिक आप कर्मफल के सार्वकालिक और सार्वदेशिक सिद्धांत से हमेशा बंधे हुए हैं।

ये है पगडंडी की पत्रकारिता

रिपोर्टिंग के लिए निकलतीं छात्राएं 
दलित महिला से पूछताछ करतीं गाँव की रिपोर्टर  
योजनाओं के बारे में जानकारी लेतीं कविता व नीतू  
दलित, महादलित, अल्पसंख्यक व पिछड़े समुदाय की लड़कियां पगडंडी की पत्रकारिता को नया आयाम दे रही हैं। मुजफ्फरपुर जिले के सरैया प्रखंड स्थित केजीबीवी की दर्जनों छात्राएं २७ फ़रवरी को पढ़ाई करने के बाद  आसपास के गांवों गोपालपुर नेउरा, छितरी माधोपुर के गरीब-गुरबों का दुःख-दर्द जानने निकलीं। हांथों में डीवी कैमरा, कलम लेकर निकलीं तो देखने वाले देखते ही रह गये. चार समूह में बंट कर चार स्टोरी तैयार करने के लिए लोगों से मिलकर उनकी आर्थिक व सामजिक स्थिति की पड़ताल की। कविता, नीतू, अंजलि, रीमा, सविता, काजल, लक्ष्मी, रानी, प्रियंका, सरिता, अन्नू, शोभा, उषा, सोनी, रूबी, गुड्डी, विभा आदि छात्राओं को खबरों की समझ बनाने के लिए अप्पन समाचार अमृतांज इंदीवर साथ-साथ चल रहे थे। बता दें कि अप्पन समाचार इन लड़कियों को नागरिक पत्रकारिता का प्रशिक्षण दे रहा है. इस फिल्ड रिपोर्टिंग के दौरान इन लड़कियों के माथे पर पसीने जरूर थे, पर शिकन व थकावट थोड़ी-सी भी नहीं दिख रही थी। इन लड़कियों की टीम ने फिल्ड में निकलने से पहले गाँव की समस्यायों पर समूह चर्चा की। फिर स्टोरी के लिए विषय का चयन किया। फिल्ड में जाकर समूह चर्चा में तय बिन्दुओं पर विस्तार से लोगों से बातचीत की। आंकड़े इकट्ठे किये। स्थानीय जनप्रतिनिधियो एवं गाँव के प्रबुद्ध लोगों से उनके संबंधित समस्याओं पर जानकारी इक्ट्ठा की। फिल्ड रिपोर्टिंग से लौटने के बाद टीम की लड़कियों ने कार्डबोर्ड पर समाचार लिखा। इसके बाद सभी समूह की लड़कियों ने अपना-अपना प्रेजेंटेशन दिया।  
फिल्ड से लौट कर टीम के साथ समाचार लिखतीं कविता 
हम त अछूत हैं 
माधोपुर छितरी स्थित डॉम बिरादरी की एक महिला राजकुमारी देवी व वदंता देवी ने बताया कि हमारे यहाँ आजतक कोई भी पत्रकार हमारी स्थिति जानने नहीं आया। लोग हमें अछूत समझते हैं। इस टोले में करीब ५० लोग हैं, पर सभी के सभी अशिक्षित हैं। इनकी रोजी-रोटी बॉस की टोकरियाँ, डगरा, सूप आदि बनाकर चलती है।

जरा-जरा तुमसे हैं कहना से राकेश को काफी उम्मीदें  
टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप , टाइम्स  म्युज़िक ने वेलेनटीन दिवस पे  ''ज़रा-ज़रा
तुमसे है कहना'' ऑडियो ग्रीटिंग्स लौंच किया है ..ग्रीटिंग्स  शब्द से साफ
ज़ाहिर है की यह केवल खुद सुना ही नहीं जा सकता  अपने प्रिये साथी को उपहार
स्वरूप दिया भी जा सकता है . इस अलबम की एक और खासियत यह है कि इसके अन्दर एक बुकलेट भी डाला गया है, जिसमें  सभी की मेहनत को सम्मान देते हुए पूरी मयुज़िक टीम  की तस्वीर के साथ परिचय भी
छापा गया है. गीत संगीत रचते वक्त इस बात का ख्याल रखा गया है की सभी प्यार
करनेवाले इस अल्बम के माध्यम से अपने दिल की बात कह सकें. जैसे-१ खाबों में
भी आजकल तेरा ही ख्याल है २ न जाने क्या बात है तुझमें ?
३ ऐ चाँद माह-ए-रू ,हो जा तू रूबरू ४ जहाँ से तुझे चुरा लेंगे हम ५ कैसे होगा
मिलन? ६. सावन बरसे ..७ कैसे ये कह दिया भूल जाना मुझे ? [अंत में अगर साथी
नाराज़ हो जाये तो ?. संगीत की रेटिंग पाँच में से साढ़े चार स्टार आंकी गई है. आज फेसबुक, ट्यूटर  का ज़माना है. फेसबुक पर ''ज़रा-ज़रा तुसे है कहना'' के पेज़
पर दिनोंदिन पसंद करनेवालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है आप
www.facebook.com/zzthk पर खुद देख सकते हैं. वहां जाते ही आपको इटरनेट
पर रिलीज़ हुए मुख्य-मुख्य वेवसाईट के लिंक खुद मिल जायेंगे.
राकेश निराला के गीत - 
पिया बसंती अलबम से सुर्ख़ियों में आये मुजफ्फरपुर जिले के सरैया प्रखंड अंतर्गत हरिहरपुर गाँव के रहनेवाले राकेश निराला के अबतक दर्जनों एलबम आ चुके है। भोजपुरी फिल्मों में भी इनके गीतों ने धूम मचा चुके हैं। इनके गीतों को आशा भोंसले, उस्ताद सुल्तान खान, उदित नारायण, विनोद राठौड़, अलका याग्निक, साधना सरगम, चित्रा, श्रेया घोषाल सरीखे नामचीन गायकों ने गाया हैं। जरा-जरा तुमसे हैं कहना से राकेश निराला को काफी उम्मीदें हैं. अनछुई, यूँ ही कभी, मद्धम-मद्धम, मोहब्बतें, दीवानापन, आलिया, लाल दुपट्टा, नजरें  आदि एलबम से राकेश काफी चर्चित हुए।

27.2.13

शराब पियो मस्त रहो..!


जैसे तैसे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा भी अपने जैसे तैसे कारनामों को लेकर ही चर्चा में हैं..! चाटुकारिता की हदें पार करने पर पहले ही दिल्ली में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की फटकार खा चुके बहुगुणा को लगता है राज्य की जनता से कोई सरोकार नहीं है..! है। राहुल गांधी की नसीहत का भी लगता है विजय बहुगुणा पर कोई असर नहीं हुआ जिसमें राहुल ने बहुगुणा को अपने काम में ज्यादा ध्यान लगाने को कहा था..!
तभी तो बहुगुणा सरकार एक तरफ रसोई गैस पर दी जा रही 5 प्रतिशत वैट की छूट को वापस लेकर राज्य की जनता पर महंगाई का अतिरिक्त बोझ डालती है लेकिन शराब के दामों पर 20 प्रतिशत की वैट पर छूट दे देती है। बहुगुणा सरकार के इस फैसले से तो ऐसा लगता है जैसे उत्तराखंड की जनता के लिए रसोई गैस से ज्यादा जरूरी शराब है..! रसोई गैस के मुद्दे पर ही मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा को टिहरी उपचुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा लेकिन इसके बाद भी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को शायद ये बात समझ में नहीं आई..!
दरअसल बहुगुणा कैबिनेट ने 26 फरवरी 2013 को कैबिनेट की बैठक में नई आबकारी नीति 2013-14 को मंजूरी दे दी। इसके तहत बहुगुणा सरकार ने बीते साल के मुकाबले शराब की बिक्री से 150 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व जुटाने का लक्ष्य रखा है। देखा जाए तो वैट में छूट से सरकार को राजस्व में नुकसान झेलना पड़ेगा लेकिन सरकार के तारणहारों ने शराब को सस्ती कर कम कीमत, ज्यादा बिक्री का फार्मूला अपनाया है। इनका सोचना है की शराब सस्ती होगी तो शराब की ज्यादा बिक्री होगी और सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी होगी..!
बहुगुणा सरकार का ये फैसला सीधे तौर पर राज्य की जनता के साथ मजाक नहीं तो और क्या है..?
एक तरफ शराब के श्राप से त्रस्त खासकर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की महिलाएं शराबबंदी के खिलाफ लामबंद होकर आंदोलन करती हैं तो दूसरी तरफ सरकार शराब सस्ती कर इसे बढ़ावा देने का काम कर रही है..! सरकार को महंगाई के बोझ तले दबी जनता की फिक्र नहीं लेकिन शराब माफियाओं और शराबियों की खूब फिक्र है..!
लोगों के घर में रसोई गैस न होने से चूल्हा जले न जले लेकिन सरकार को फिक्र है कि लोगों को सस्ती शराब कैसे उपलब्ध कराई जाए..!
सरकार रसोई गैस में वैट में 5 प्रतिशत की छूट सिर्फ इसलिए वापस ले लेती है कि सरकार को नुकसान उठाना पड़ रहा है लेकिन शराब में वैट में 20 प्रतिशत की छूट देने में सरकार को कोई परेशानी नहीं है।
बहुगुणा साहब को पहाड़ के लोगों की पहाड़ सी दिक्कतें नहीं दिखाई देतीं..! टूटी हुई सड़कें नहीं दिखाई देती..! पेयजल किल्लत नहीं दिखाई देती..! रोजगार की तलाश में वीरान होते गांव के गांव नहीं दिखाई देते लेकिन शराब माफियाओं के हित सरकार को खूब दिखाई देते हैं।
वैसे भी एक साल के कार्यकाल में राज्य के विकास के लिए..राज्य के लोगों के विकास के लिए कुछ कर पाने में नाकाम रहे बहुगुणा साहब शायद यही चाहते हैं कि शराब पियो और मस्त रहो..! वाह रे बहुगुणा..!

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ऊंची उड़ान- झुलस न जाएं पंख..!


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए...रेल मंत्री पवन बंसल साहब ने इस शेर के जरिए रल बजट में भारतीय रेल की सूरत बदलने की बात तो कही लेकिन बंसल साहब के रेल बजट का दूर दूर तक इस शेर से कोई वास्ता दिखाई नहीं दिया। इतना जरूर हुआ कि बंसल साहब ने बिना रेल किराए में बढ़ोतरी किए रेल सफर जरूर महंगा कर दिया। बंसल साहब ने फ्यूल सरचार्ज के साथ ही तत्काल टिकट और आरक्षण रद्द कराने के शुल्क में भी बढोतरी करते हुए पिछले दरवाजे से जनता की जेब काटने का इंतजाम जरूर कर दिया। रेल की सूरत बदले न बदले लेकिन बंसल साहब का शेर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली पर एकदम सटीक बैठता है। रायबरेली में तीन नई ट्रेनें देने के साथ ही रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री के बाद अब पहिए बनाने की फैक्ट्री लगाने का एलान तो कम से कम यही कहानी कह रहा है..!
न बहारों की बात करनी है न सितारों की बात करनी है, तैर पर दरिया पार करना है किनारों की बात करनी है...जाहिर है पवन बंसल इस शेर के जरिए 2014 के आम चुनाव का दरिया पार कर यूपीए सरकार की हैट्रिक लगाने की ओर ईशारा कर रहे थे। इसके लिए बकायदा केन्द्र की सत्ता का रास्ता कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब औऱ हरियाणा को भी कई योजनाएं देकर रेल मंत्री ने 2014 के लिए सियासी संतुलन साधने की भी कोशिश भी की। लेकिन चुनावी साल में रेल मुसाफिरों को रेल बजट से पहले जनवरी में यात्री किराये में ईजाफे का झटका देने के बाद रेल बजट में पिछले दरवाजे से जेब काटना और मालभाड़े में 5 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी करना रेल मंत्री के दरिया पार करने के ख्वाब पर कहीं पानी न फेर दे..!
पेड़ पर बैठे परिदों को गिरने का भय नहीं, उसे विश्वास है खुद के पंखों पर...इस शेर के जरिए रेल मंत्री पवन बंसल ने यूपीए सरकार के फैसलों पर रेल बजट को लेकर खुद के फैसलों पर पूरा विश्वास होने की बात कहते हुए ईशारों ईशारों में 2014 की चुनावी वैतरणी बिना किसी भय के पार करने का भी दावा किया लेकिन रेल मंत्री शायद ये भूल गए कि ज्यादा ऊंची उड़ान परिदों के परों को झुलसा भी देती है और ऐसे परिदें फिर कभी उड़ान नहीं भर पाते हैं। वैसे भी यूपीए सरकार तो पहले से ही भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई की ऊंची उड़ान भर रही है ऐसे में रेल बजट में पिछले दरवाजे से महंगाई की एक और बेफ्रिक उड़ान कहीं चुनावी साल में यूपीए सरकार के पंखों को न झुलसा दे..!

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जान मथाई ने पेश किया था पहला रेल बजट

आजादी के बाद पहला रेल बजट पहले रेलमंत्री के तौर पर 1948-49 में डॉ. जॉन मथाई की ओर से पेश किया गया था। इस तरह अब तक अंतरिम और फाइनल कुल मिलाकर 80 रेल बजट पेश किए जा चुके हैं। वर्ष 2012-13 का रेल बजट 81वां बजट है, जिसे ममता बनर्जी, दिनेश त्रिवेदी के बाद रेल मंत्री बने पवन बंसल ने पेश किया...
देश का पहला रेल बजट आजादी के बाद पेश हुआ भारतीय राजनीति के इतिहास में वो पल आज भी संसद की कार्यवाही में धरोहर के तौर पर दर्ज है। संसद में जब पहला रेल बजट पेश हुआ था, उस समय ना तो आज की राजनीति थी और ना ही माहौल देश के राजनेता सुचिता की राजनीति किया करते थे, लेकिन रेल के हालत और संगठन आज बड़ा है भारतीय रेल आज रोजाना करीब ढाई लाख यात्रियों को उनके गन्तव्य तक पहुंचाती है। करीब 115,000 किलोमीटर के लम्बे ट्रैक और 7500 स्टेशन वाली भारतीय रेल विश्व की सबसे बड़ी रेल नेटवर्क है।
भारतीय रेल का पहला रेल बजट वर्ष 1948 में रेल मंत्री एवं वित्तमंत्री जॉन मथाई ने पेश किया था। मथाई मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएट थे। उन्होंने देश के दो बजट पेश किये और फिर 1950 में इस्तीफा दे दिया, क्योंकि उस दौरान प्लानिंग कमीशन का दबाव बढ़ गया था। जॉन मथाई 1955 में स्थापित स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के पहले चेयरमैन भी बने। 1955 से 1957 तक वो मुंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे और फिर केरल विश्वविद्यालय के पहले वाइस चांसलर। जान मथाई के बेटे रवि जॉन मथाई ने भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद की स्थापना की, और पहले निदेशक बने। जॉन मथाई को भारत सरकार ने पद्मविभूषण से भी नवाजा है।

26.2.13


इस बार भी कफ्र्यू में नहीं आये हरवंश सिंह
सिवनी। इसी महीने नगर ने सांप्रदायिक सदभाव बिगड़ जाने के कारण नागरिकों ने एक सप्ताह तक कफ्र्यू का दंश भोगा लेकिन विस उपाध्यक्ष एवं जिले के इकलौते इंका विधायक हरवंश सिंह ने इस दौरान नगर में आकर लोगों के हाल जानने की कोई जरूरत नहीं समझी।
छपारा में एक हरिजन युवक के साथ की गयी घृणित एवं अमानवीय घटना के बाद पुलिस ने अपराधियों को तत्काल ही हिरासत में लेकर जेल भेज दिया था। लेकिन इसके बाद भी भाजपा के हम सफर माने जाने वाले विश्व हिन्दू परिषद एवं बजरंग दल ने सिवनी बंद का आव्हान किया और हालात बेकाबू हो जानें के कारण शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया था।
इस कफ्र्यू के दौरान अमन चैन और आपसी भाई चारा बनाये रखने की अपील करने के लिये जिला इंका अध्यक्ष हीरा आसवानी के निवास स्थान पर एक बैठक रखी गयी थी। इस बैठक के दौरान ही शहर में कफ्र्यू लगाने के आदेश जारी कर दिये गये जिसकी जानकारी के आभाव में बैठक समाप्त होने के बाद लोग अपने अपने घरों के लिये रवाना हो गये। इसी बीच रास्ते में बस स्टेन्ड पर जिला इंका प्रवक्ता जे.पी.एस.तिवारी पुलिस की लाठियों के शिकार होकर लहू लुहान हो  गये। लेकिन इसकी निंदा तक किसी इंका पदाधिकारी ने करना जरूरी नहीं समझा और ना ही दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग ही की गयी।    
उल्लेखनीय है कि  6 दिसम्बर 1992 में भी जब अयोध्या मसले को लेकर शहर में 19 दिन का कफ्र्यू लगाया गया था तब भी कफ्र्यू की पूरी अवधि में हरवंश सिंह सिवनी नहीं आये थे। यहां यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि हरवंश सिंह 1990 में सिवनी विधान सभा से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े थे और भाजपा के स्व. महेश शुक्ला से चुनाव हार गये थे। इसलिये उस समय तमाम लोगों को उनसे यह अपेक्षा थी कि वे भाजपा के राज में लोगों को मिले जख्मों पर मरहम लगाने  एवं उनका दुख दर्द बांटने उनके बीच में आये।
यह भी एक महज संयोग ही है या कुछ और कि 1992 और 2013 में जब दोनों बार कफ्र्यू लगा तो प्रदेश में भाजपा की सरकार है और दोनों ही बार, 92 में प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री और अभी विधानसभा उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहते हुये भी, हरवंश सिंह ने नगर में आना जरूरी नहीं समझा।
दर्पण झूठ ना बोले
26 फरवरी 2013 से साभार



थोथा चना बाजे घना ही साबित हुयी शिवराज की मेडिकल काॅलेज की घोषणा
भाजपा के जनप्रतिनिधियों की चुप्पी बनी चर्चा का विषय
सिवनी। प्रदेश भर में घोषणावीर मुख्यमंत्री की छवि बनाने वाले शिवराज सिंह चैहान की जिले में मेडिकल कालेज बनाने की घोषणा भी खोखली साबित हो रही हैं। तत्कालीन कलेक्टर ने तत्काल ही इसके लिये एक समिति का गठन भी कर दिया था लेकिन वो सिर्फ अखबारों तक ही सीमित होकर रह गयी। भाजपा सरकार के इन नौ सालों में जिले को कुछ भी नहीं मिला और सभी जनप्रतिनिधि भी मौन साधकर ही बैठे रहे।
जिले में जब शिवराज सिंह चैहान ने 21 अक्टूबर 2009 को स्थानीय मिशन स्कूल ग्रांउड़ में प्रायवेट सेक्टर में मेडिकल काॅलेज खोलने की घोषणा की थी तो लोगों  के साथ ही मंचासीन जनप्रतिनिधियों ने भी भारी तालियां बजाकर इसका स्वागत किया था। विकास की राह देखते जिले के नागरिकों को यह उम्मीद बंध गयी थी कि चलो एक बड़ी सौगात तो जिले को मिल ही जायेगी। 
मुख्यमंत्री की घोषणा के तत्काल बाद ही तत्कालीन जिला कलेक्टर मनोहर दुबे ने इसके लिये ण्क शासकीय समिति भी गठित कर दी थी। इसके समाचार भी प्रमुखता से अखबारों में प्रकाशित हुये थें। लेकिन अभी तक इस संबंध में कोई भी ठोस कार्यवाही नहीं हो पायी हैं।
सिवनी जिला मुख्यलय में मेडिकल कालेज के लिये आवश्यक 300 बिस्तर वाला शासकीय इंदिरा गांधी चिकित्सालय भी हैं। बीच में यह भी समाचार प्रकाशित हुआ था किे कटनी के पूर्व भाजपा विधायक सुकीर्ति जैन ने सिवनी में मेडिकल कोलज के लिये एम.ओ.यू. साइन कर दिया हैं। लेकिन प्राप्त जानकारी के अनुसार अब वे भी इसमें रुचि नहीं ले रहें तभी आज तक वे सिवनी आये भी नहीं हैं। 
जिले में बालाघाट सिवनी के सांसद के.डी.देशमुख, सिवनी,बरघाट एवं लखनादौन के विधायक नीता पटेरिया, कमल मर्सकोले और शशि ठाकुर एवं नगर पालिका के अध्यक्ष राजेश त्रिवेदी भी भाजपा के ही हैं। इसके बाद भी वे अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री से उनकी घोषणा पूरी नहीं करा पा रहें हैं। भाजपा के ही जनप्रतिनिधियों का इस बारे में मौन रहना समझ से परे हैं।
कुल मिलाकर घोषणा के तीन साल बीत जाने के बाद भी शिवराज सिंह चैहान की मेडिकल कोलेज की घोषणा थोथा चना बाजे घना ही साबित हो रही हैं।   

दर्पण झूठ ना बोले
26 फरवरी 2013 से साभार




क्र्फयू के लिये जितनी प्रशासनिक खामियां जवाबदार है उतनी ही जनप्रतिनिधियों की उदासीनता और भाजपा की गुटबाजी भी जवाबदार है
 छपारा की एक घटना को लेकर बिगड़े सांप्रदायिक तनाव के कारण सिवनी शहर के आम लोगों ने कफ्र्यू का दंश झेला। कफ्र्यू हटने के बाद झन झन कर आ रही खबरों को यदि सही माना जाये तो आम आदमी को यह भुगतमान भाजपा की स्थानीय गुटबंदी के कारण भोगना पड़ा हैं। नगर में लगे क्र्फयू के लिये जितनी प्रशासनिक  खामियां जिम्मेदार हैं उतनी ही जनप्रतिनिधियों की उदासीनता भी जवाबदार हैं। जिले में हुये मंड़ी चुनावों में कांग्रेस का परचम फहरने के समाचार सुर्खियों में रहे। मंडि़यों में अध्यक्ष उपाघ्यक्ष चुने जाने के बाद कांग्रेस के बड़े बड़े धुरंधर नेताओं के फोटो के साथ अखबारों में विज्ञापन भी प्रकाशित हुये कि इनके कारण कांग्रेस ने जीत का परचम फहराया। लेकिन चुनाव के बाद जो खबरें सियासी हल्कों में चर्चित हैं वे चैंका देने वाली है। बीते दिनों हुयी भीषण ओला वृष्टि ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी हैं। इसमें सिवनी विकास खंड़ के गांव ज्यादा प्रभावित हुये हैं। कई बुजुर्गों का तो यह भी कहना हैं कि उन्होंने इतने बड़े ओले कभी देखे नहीं हैं। जैसे ही यह खबर मिली कि ओले से किसानों का भारी नुकसान हुआ है तो तत्काल ही राजनैतिक दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों ने तत्काल ही प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर सरकार से राहत देने की मांग की है। 
क्या भाजपायी गुटबंदी के कारण क्र्फयू का दंश भोगा शहर ने?-छपारा की एक घटना को लेकर बिगड़े सांप्रदायिक तनाव के कारण सिवनी शहर के आम लोगों ने कफ्र्यू का दंश झेला। लगभग एक सप्ताह तक लोग मानो अपने अपने घरों में नजर बंद से हो गये थे। कफ्र्यू हटने के बाद झन झन कर आ रही खबरों को यदि सही माना जाये तो आम आदमी को यह भुगतमान भाजपा की स्थानीय गुटबंदी के कारण भोगना पड़ा हैं। राजनैतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में व्याप्त चर्चा के अनुसार भाजपा के ही एक गुट ने प्रशासन को यह आश्वासन दे दिया था कि छपारा की घटना के विरोध में विहिप और बजरंग दल का बंद का आव्हान शांति पूर्वक निपट जायेगा इसलिये इस बंद को हो जाने दें। इसे देखते हुये भाजपा के ही एक अन्य गुट ने बंद को सफल बनाने एवं तनाव पैदा करने में अपनी भूमिका खुले आम निभायी। जबकि वास्तविकता यह थी कि जिस हरिजन युवक के साथ दो मुस्लिम युवकों ने घृणित एवं अमानवीय घटना की थी उसे तत्काल ही पुलिस ने हिरासत में लेकर  समुचित धारायें लगाकर उन्हे ना सिर्फ कोर्ट में पेश कर दिया था वरन रिमांड़ पर जेल भी भेज दिया था। ऐसे हालात में होना यह चाहिये था कि जिले के सभी भाजपा नेताओं को एक जुट होकर प्रदेश की भाजपा सरकार का बचाव करना चाहिये था और बंद का आव्हान करने वाले अपने ही अनुशांगिक संगठनों के लोगों  को यह समझाना था कि आखिर विरोध करके आप लोग मांग क्या करोगे जबकि सभी आरोपी जेल में बंद हैं। इस सबकी जवाबदारी यदि देखा जाये तो सिवनी की भाजपा  विधायक नीता पटेरिया और जिला भाजपा अध्यक्ष नरेश दिवाकर की ही प्रमुख रूप से बनती हैं। ऐसा क्यों नहीं हो पाया? इसे लेंकर राजनैतिक हल्कों में कई तरह की चर्चाये चल रहीं हैं। यह खुलासा होना भी महत्वपूर्ण है कि आखिर 7 फरवरी को मस्जिद और मंदिर में जो घटनायें हुयी उनके आरोपी कौन थे? हालाकि इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया हैं। लेकिन इसे लेकर तरह तरह की चर्चायें स्थान और परिस्थितियों को लेकर जारी हैं। इसी साल नवम्बर में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर भी सियासी चर्चायें हो रहीं हैं। राजनैतिक कारणों से यदि सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ने के प्रयास किये जाते तो इसकी निंदा होना स्वभाविक ही हैं। नगर में लगे क्र्फयू के लिये जितनी प्रशासनिक खामियां जिम्मेदार हैं उतनी ही जनप्रतिनिधियों की उदासीनता भी जवाबदार हैं। जो हो गया सो हो गया लेकिन अब जरूरत इस बात की है कि भविष्य में ऐसा कुछ ना हो जिससे जिले का अमन चैन दांव पर लगें और निर्दोष आम लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़े इसके लिये सभी जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अमले को कारगर प्रयास करना चाहिये। 
क्या जिले में कहीं कांग्रेस बची है?-जिले में हुये मंड़ी चुनावों में कांग्रेस का परचम फहरने के समाचार सुर्खियों में रहे। जिले की छः में से 5 मंडि़यों में कांग्रेस का कब्जा हुआ हैं। मंडि़यों में अध्यक्ष उपाघ्यक्ष चुने जाने के बाद कांग्रेस के बड़े बड़े धुरंधर नेताओं के फोटो के साथ अखबारों में विज्ञापन भी प्रकाशित हुये कि इनके कारण कांग्रेस ने जीत का परचम फहराया। लेकिन चुनाव के बाद जो खबरें सियासी हल्कों में चर्चित हैं वे चैंका देने वाली है। जिन मंडि़यों में कांग्रेस समर्थित उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी उन मंडि़यों में खुले आम सौदेबाजी हुयी। सौदागर भी इतने माहिर थे कि एक ही माल के कई खरीददार एक साथ तैयार कर रखे थे और वो भी ऐसे ही नहीं वरन पूरी कीमत एडवांस के रूप में जमा करवा कर। लेकिन इसमें भी इतना फर्क जरूर था कि कांग्रेस और भाजपा के लिये कीमत अलग अलग थी। अब यदि मंड़ी के चुनाव में मंड़ी के सदस्यों की भी यदि बोली लग जाये तो कौन सी बड़ी बात है? कहा जाता है कि मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है और जो जीता वही सिकन्दर माना जाता हैं। राजनीति में मोहब्बत तो अब कहीं दिखती नहीं नहीं हैं। रही बात जंग की तो उसमें तो तरकश के सारे तीरों को आजमाने को गलत नहीं कहा जा सकता। जिले की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंड़ी में भी कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार अपना कब्जा बरकरार रखा हैं। पिछले दो चुनावों में किसान सीधे अध्यक्ष चुनते थे लेकिन इस बार अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव सदस्यों के माध्यम से हुआ था। इस महत्वपूर्ण मंड़ी में कांग्रेस के रणनीतकारों के रूप में राहुल गांधी के करीबी युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय समन्वयक राजा बघेल और जिला पंचायत के अध्यक्ष मोहन चंदेल उभर कर सामने आये थे। कांग्रेस की इस उपलब्धि के लिये वे बधायी के पात्र हैं। लेकिन इन चुनावों में एक सवाल जरूर उभर कर सामने आया है कि जिले में आखिर कांग्रेस रह कहां गयी है? जहां कांग्रेस समर्थित सदस्यों के बहुमत के बाद भी धन बल के आधार पर चुनाव जीता जाये। शायद यही कारण है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को उन क्षेत्रों में हार का सामना करना पड़ता है जिन क्षेत्रों में धनबल या बाहुबल के आधार के अधार पर इतने बड़े पैमाने पर यह सब कुछ मेनेज नहीं किया जा सकता है। 
किसानों के लिये संवेदना या ओला महोत्सव?-बीते दिनों हुयी भीषण ओला वृष्टि ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी हैं। इसमें सिवनी विकास खंड़ के गांव ज्यादा प्रभावित हुये हैं। कई बुजुर्गों का तो यह भी कहना हैं कि उन्होंने इतने बड़े ओले कभी देखे नहीं हैं। जैसे ही यह खबर मिली कि ओले से किसानों का भारी नुकसान हुआ है तो तत्काल ही राजनैतिक दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों ने तत्काल ही प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर सरकार से राहत देने की मांग की है। यह स्वभाविक भी है कि जब जनता मुसीबत में हो तो राजनैतिक नेताओं को उनकी मदद में आगे आना चाहिये। इसमें भाजपा और कांग्रेस के नेता भी शामिल है जिन्होंने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। लेकिन इस सबकी चर्चाये होना जब शुरू हुयी तब नेताओं के फोटों साथ अखबारों में समाचार प्रकाशित होना चालू हुये कि फलां नेता फंला गांव पहुचा और किसानों के प्रति संवेदना व्यक्त की। ऐसा लगता था कि मानेा नेता लोग फोटोग्राफर से लैस होकर ही दौरे पर गयें हों। प्रशासनिक स्तर पर फसलों सहित किसानों की हुयी क्षति का आंकलन ठीक ढंग से हो और उन्हें अधिकतम राहत मिल सके इसके लिये संयुक्त प्रयास होने चाहिये। अक्सर यह शिकायत रह जाती हैं वास्तविक पीडि़त किसान तो रह जाते है और जुगाड़ लगाने वाले कामयाब हो जाते हैं। जयरत इस बात की भी है कि आर.बी.सी. में ऐसे बहुत से संशोधन कराना जरूरी है जिनसे किसानों को वास्तव में राहत मिल सके। वर्तमान में सिंचित भूमि में 5 हजार और असिंचित में 32 सौ 50 रु. प्रति हेक्टेयर अधिकतम देने का प्रावधान हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि यदि सरकार के ही बीज निगम से बीज लेकर किसान  बोनी करता है तो आधे का तो बीज ही हो जाता है और खाद,डीजल और बिजली तथा लेबर चार्ज अतिरिक्त लगता हैं। इस लिये नियम में ऐसा संशोधन होना चाहिये कि किसान को कम से कम लागत की राशि तो राहत के रूप में मिल सके। यदि नेता किसानों को अधिकतम मुआवजा नहीं दिला पाये और संशोधन की दिशा में कारगर कदम नहीं उठा पाये तो उनके द्वारा व्यक्त की गयी संवेदनाये बेकार रहेंगी और ऐसा लगेगा मानों वे ओला महोत्सव में भाग लेने गयें हों और अखबारों में अपने समाचार और फोटो छपवाकर अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर ली हो। “मुसाफिर”       

दर्पण झूठ ना बोले
26 फरवरी 2013 से साभार

सेक्स एजुकेशन- कितनी कारगर..?


देश की राजधानी में गैंगरेप के बाद जस्टिस जे एस वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल किया जाए ताकि बच्चों को सही गलत जैसे व्यवहार और आपसी संबंधों के बारे में जानकारी हो।
सिफारिशों पर गौर करते हुए केन्द्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री एम एल पल्लम राजू ने इन सिफारिशों पर सभी राज्यों से बातचीत के बाद इसे अमल में लाने के संकेत भी दिए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल करने को लेकर सवालों की फेरहिस्त काफी लंबी है। मसलन यौन अपराधों पर लगाम कसने के लिए सेक्स एजुकेशन कहां तक सही है...?
सेक्स भारत जैसे देश के लिहाज से आज भी एक तरह से सामान्य बातचीत में न होते हुए भी एक वर्जित शब्द की तरह है और लोग इस पर बात करने से चर्चा करने में संकोच करते हैं..! आज भी देश की बड़ी आबादी ऐसी है जिन्हें इस विषय पर बात करना किसी अपराध करने की तरह लगता है शायद यही वजह है कि स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल करने को लेकर इसके विरोधियों की तादाद अधिक है जबकि शहरीकरण की जद में आए खुले विचारों के लोग या कहें कि बुद्धिजीवी वर्ग इसके पक्ष में दिखाई देते हैं।
जहां तक बात है कि क्या वाकई में सेक्स एजुकेशन से यौन अपराधों में नकेल कस पाएगी तो ये थोड़ा मुश्किल सवाल लगता है क्योंकि जब तक अपराध करने वाले की सोच में मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा इस पर रोक लग पाना संभव नहीं लगता।(पढ़ें-दिल्ली गैंगरेप- यार ये लड़की ऐसी ही होगी !)।
हां, इसका इतना फायदा जरूर हो सकता है कि जानकारी के अभाव में जो मामले अब तक सामने नहीं आ पाते थे उन पर से पर्दा हटने में इससे मदद मिलेगी। जो शायद एक वजह बन सकती है कि अपराधी अगर बेनकाब होगा तो वो दोबारा किसी के साथ ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा क्योंकि यौन अपराध के पीड़ित की चुप्पी कहीं न कहीं अपराधी का हौसला बढ़ाती हैं। जानकारी होने के बाद जब ज्यादा से ज्यादा मामलों पर से पर्दा हटेगा तो शुरुआत में ऐसा दिखाई देगा कि यौन अपराध के मामले बढ़े हैं। कुल मिलाकर दूरदर्शी परिणाम सकारात्मक होंगे और कुछ हद तक इस पर लगाम कसी जा सकेगी हालांकि सोच और मानसिकता का पैमाना यहां पर भी लागू होता है।
जहां तक सवाल है कि क्या सेक्स एजुकेशन के जरिए भटकते युवा सही मार्ग पर आ सकते हैं तो मुझे नहीं लगता कि सिर्फ सेक्स एजुकेशन से युवाओं का भटकाव कम होगा या खत्म हो जाएगा क्योंकि सेक्स एजुकेशन के साथ ही युवा किस माहौल में...किस परिवेश में रह रहे हैं ये फेक्टर भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। (पढ़ें- बलात्कार- 1971 से 2012 तक !)
तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम से ज्यादा दिन तक दूर रखना आसान नहीं है...देर सबरे इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शमिल करना ही पड़ेगा लेकिन सरकार सिर्फ सेक्स एजुकेशन के लॉलीपाप से महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। इसके साथ भी सरकार को महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संजीदगी से कदम उठाने ही होंगे।  
ऐसे नहीं है कि महिलाओं के प्रति अपराधों  की रोकथाम के लिए सेक्स एजुकेशन ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि अपराधों की रोकथाम के सबसे पहली चीज किसी पीड़ित के अंदर ये विश्वास जगाना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि अगर वो अपना दर्द लेकर पुलिस के पास पहुंचती है तो वहां पर उसे अपमानजनक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा। उसका मजाक नहीं बनाया जाएगा बल्कि प्राथमिक्ता के आधार पर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का न सिर्फ भरोसा मिलेगा बल्कि दोषियों के खिलाफ कार्रवाई भी होगी।

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25.2.13

कृप्या यहां ज्ञान न बांटे...यहां सब ज्ञानी हैं..!


अपने कार्यकाल के दौरान दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भले ही जनता के लिए कुछ न कर पायी हों लेकिन चुनावी साल में शीला दीक्षित ने जनता के लिए सरकारी खजाना तो नहीं खोला लेकिन अपने ज्ञान का पिटारा जरूर खोल दिया है। शीला जी आजकल जहां जा रही हैं बस ज्ञान बांटती फिर रही हैं। दिल्ली में भूख से हो रही मौतों को रोकने में नाकाम रही शीला दीक्षित पहले अपना ज्ञान बघारते हुए कहती हैं कि 600 रूपए महीने में 5 लोगों के परिवार का पेट बड़ी आसानी से भर जाता है यानि कि बकौल शीला एक व्यक्ति 4 रूपए में भरपेट भोजन कर सकता है। लेकिन इसका जवाब उनके पास नहीं होता कि दिल्ली में भूख से हर हफ्ते एक व्यक्ति क्यों दम तोड़ देता है..? (पढ़ें- शीला जी दिल्ली में भूख से क्यों होती है मौत ?)
अब दिल्ली वालों को सस्ती बिजली उपलब्ध कराने में नाकाम शीला जी दिल्ली वालों से कह रही हैं कि ज्यादा बिजली का बिल नहीं भर सकते तो खपत कम करो...शीला जी यहीं नहीं रूकती वे ये भी कहती हैं कि बिल नहीं भर सकते तो कूलर क्यों चलाते हो...कूलर की जगह पंखे चलाओ..!
दिल्ली में 2011 में बिजली के दाम 22 फीसदी बढ़े तो बीते साल जुलाई में घरेलू उपभोक्ताओं के लिए बिजली के दाम 26 फीसदी बढ़ा दिए गए। दिल्‍ली में अभी 0-200 यूनिट पर 3 रुपये 70 पैसे प्रति यूनिट, 201- 400 यूनिट पर 5 रुपये 50 पैसे प्रति यूनिट देना पड़ते हैं,  जबकि 401 से ज्यादा यूनिट होने पर 6 रुपये 50 पैसे प्रति यूनिट की दर से बिल भरना पड़ता है। महंगी होती बिजली दिल्ली वालों को एक के बाद एक झटके दे रहे हैं लेकिन शीला जी के पास इसका कोई ईलाज नहीं है। लेकिन चुनावी साल है ईलाज नहीं कर सकते तो क्या सलाह तो दे ही सकते हैं...शीला दीक्षित ने भी ऐसा ही किया और दिल्लीवालों को खपत कम करके बिजली का बिल कम करने की सलाह दे डाली। अब शीला दीक्षित भले ही उनके बयान का गलत मतलब निकालने के लिए मीडिया के सिर इसका ठीकरा फोड़ कर सफाई देती फिर रही हों लेकिन कहते हैं न दिल की बात तो जुबां पर आ ही जाती है...शीला जी के जुबां पर भी आ गई तो इसमें उनका क्या दोष..?
गनीमत तो ये रही कि प्याज के आसमान चढ़ते दामों पर शीला दीक्षित ने कृषि मंत्री शरद पवार को सिर्फ पत्र लिखकर कीमतों पर नियंत्रण के लिए प्याज का निर्यात कम करने का अऩुरोध किया। दिल्ली वालों से ये नहीं कहा कि प्याज खरीदने की औकात नहीं है तो प्याज खाना छोड़ दो। (पढ़ें - एक प्याज की ताकत)।
शीला जी आप दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं...सरकार चला रही हैं, निश्चित तौर पर आप ज्ञानी होंगी लेकिन आपके लिए एक बिन मांगी सलाह है जो आपका सामान्य ज्ञान भी बढ़ा देगी..! बात ये है कि ये जो जनता है न ये भी बड़ी ज्ञानी है...वो भी दिल्ली की जनता सोचो कितनी ज्ञानी होगी...आपसे अनुरोध है कि आप सरकार की मुखिया होते हुए भूख से हो रही मौत नहीं रोक सकती..! दिल्ली वालों को सस्ती बिजली नहीं उपलब्ध करा सकती तो कृप्या करके अपना ज्ञान भी अपने पास ही रखें। कहीं ऐसा न हो कि चुनावी साल में जनता का अपने सामान्य ज्ञान से आपकी सरकार का गणित और भूगोल सब बिगाड़ दे।  

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 ओजोन परत में छेद हो गया है. 


ओजोन परत में छेद हो गया है
मेरे अन्दर कहीं कुछ मर सा गया है ।
कहीं कुछ  ।
मर सा गया है ।
जो सवाल करता था अक्सर
ऐसा क्यों होता है ?
वैसा क्यों होता है ?
मैं उसे बार बार जिन्दाने की कोशिश करता हूँ
और वह बारम्बार दम तोड़ देता है ।
उसने देख लिया है सिद्धार्थ की तरह एक सच
कि  जब राज सत्ता खड़ी  होकर सिर नवाती है
और फिर छाती फुलाकर तन जाती है
सिर  में वही  अकड़  आ जाती है
तब फिर एक बूढा फ़कीर 
लाचार बेबस
अपनों के बीच , अपनों से दूर
हतप्रभ सा अपने आभा मंडल में
ओजोन परत में छेद देख लेता है
और उस छेद को भरने को करता है
नयी नयी कोशिश
कि  और और छेद होते चले जाते हैं
और अब वह उन छेदों को भरे
या राजसत्ता के छेदों पर सवाल करे,
मेरे अंतर्मन ने वह सब देख लिया है
मेरे अन्दर कहीं कुछ मर सा गया है ,
दूर कहीं ओजोन परत में छेद हो गया है । 

इंसाफ- मौत के बाद..!


हैदराबाद बम धमाकों की गूंज के बीच एक ख़बर ऐसी भी थी जो न तो मीडिया की सुर्खियां बन पाई और न ही इस पर बहुत ज्यादा चर्चा हुई लेकिन ये ख़बर देश की निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालतों में वर्षों से लंबित लाखों मामलों से संबंधित करोड़ों लोगों के साथ ही पश्चिम बंगाल के पार्थ सारथी सेन रॉय के परिजनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। हालांकि पार्थ सारथी सेन रॉय इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पार्थ सारथी सेन रॉय की 32 साल पहले 27 फरवरी 1981 को बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड से बर्खास्तगी को गलत ठहराते हुए रॉय के हक में फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कंपनी को रॉय की बर्खास्तगी से लेकर सेवानिवृति तक के वेतन का 60 फीसदी रॉय के वारिस को देना का आदेश दिया है। (पढ़ें- मौत के बाद मिला सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ)।
दरअसल पार्थ सारथी सेन रॉय मई 1975 में बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड में भर्ती हुए थे लेकिन कंपनी ने 27 फरवरी 1981 को रॉय को कंपनी से बर्खास्त कर दिया। रॉय ने अपनी बर्खास्तगी को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन कंपनी ने हाईकोर्ट में दलील दी कि वह सरकारी कंपनी नहीं है और हाईकोर्ट को इस मामले में सुनवाई का अधिकार नहीं है। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में केस आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाया का हाईकोर्ट ने इस मामले का मेरिट के आधार पर फैसला नहीं किया और कंपनी को सार्वजनिक उपक्रम मानते हुए रॉय के पक्ष में फैसला दिया।
लंबी कानूनी जंग के बीच रॉय ने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन मौत के बाद ही सही रॉय को इंसाफ जरूर मिला। रॉय इंसाफ की इस लड़ाई को अधूरा जरूर छोड़कर चले गए लेकिन रॉय का केस अपने आप में भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर कई सवाल खड़े करता है। जिसमें सबसे पहला सवाल सालों लंबी अदालती लड़ाई को लेकर है जो आम आदमी में न्याय व्यवस्था के प्रति एक अविश्वास पैदा करता है..!
हिंदुस्तान में आजादी के 65 साल बाद भी लोग सही होने के बाद भी कानूनी लड़ाई लड़ने से परहेज करते हैं। वजह साफ है- कानूनी लड़ाई का लंबा इतिहास। एक आम आदमी जो सुबह उठने के साथ ही अपनी दो वक्त की रोजी रोटी के जुगाड़ में जुट जाता है अगर किसी कारणवश ऐसी स्थिति में फंसता है कि उसे अदालत तक जाना पड़ सकता है तो वह अपने कदम पीछे खींच लेता है।
वो सालों तक चलने वाली कानूनी लड़ाई के लिए न तो मानसिक रूप से तैयार होता है और न ही आर्थिक रूप से। साथ ही अदालत के चक्कर काटने पर रोजी रोटी का जुगाड़ वो कैसे करेगा ये सवाल भी मुंह बांए उसके सामने हर वक्त खड़ा रहता है।
बात ये नहीं है कि अदालतों से न्याय नहीं मिलता...पार्थ सारथी सेन रॉय का ताजा केस सामने है...रॉय को इंसाफ मिला...रॉय के हक में फैसला हुआ लेकिन एक बहुत लंबी थका देना वाली कानूनी लड़ाई के बाद...ये लड़ाई इतनी लंबी थी कि रॉय ने इस बीच दुनिया को ही अलविदा कह दिया।   
एक और ऐसे ही केस का जिक्र करना चाहूंगा...मुंबई के एम यू किणी का जिन्हें 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इंसाफ मिला जब सीबीआई की विशेष अदालत ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी किणी पर लगाए सभी आरोपों को समाप्त कर उन्हें बरी कर दिया। किणी कहते हैं कि 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ थकाऊ थी बल्कि ये 24 साल उनके लिए किसी सजा से कम नहीं थे। (पढ़ें- 24 साल बाद एक बैंक अधिकारी को मिला इंसाफ)।
निचली अदालतों को छोड़कर अगर देश के सर्वोच्च अदालत की ही अगर बात करें तो एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या करीब 60 हजार के करीब है तो देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में वर्ष 2011 तक लंबित मामलों की संख्या करीब 43 लाख 22 हजार है यानि लगभग आधा करोड़। इससे देशभर की विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों की संख्या का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के 31 पदों में से 6 रिक्त हैं तो देशभर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 895 में से 281 पद खाली पड़े हैं जो कि न्यायालयों में लंबित मामलों की एक वजह है। (पढ़ें- चौटाला केस- भ्रष्टाचारियों के लिए सबक)।
अपने हक के लिए लड़ रहे एक आम आदमी को सालों तक चलने वाली लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ अंदर से तोड़ देती है बल्कि न्याय व्यवस्था पर लोगों के भरोसे को भी डिगाती है। उसे न्याय मिलता तो है लेकिन कई बार देर से मिला न्याय सजा के समान होता है या फिर इसे पाने के लिए वे अपना सब कुछ गंवा चुके होते हैं...और अधिकतर की स्थिति पार्थ सारथी सेन रॉय और एम यू किणी जैसी ही होती है...जो इस बात पर बार-बार सोचने पर मजबूर करती हैं कि ऐसा न्याय आखिर किस काम का..!

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24.2.13

अलसी पर सेमीनार भारतीय योग संस्थान कोटा द्वारा आयोजित

जब लाठीचार्ज पर प्रधानमंत्री ने दिया इस्तीफा


देश की राजधानी दिल्ली में चलती बस में सरेराह एक लड़की का गैंगरेप होता है...गैंगरेप करने वाले दरिंदगी की सारी हदें पार कर जाते हैं। पीड़ित लड़की के लिए इंसाफ की मांग करने और आरोपियों की सजा दिलाने की मांग को लेकर राजपाथ पर देश का गुस्सा दिखाई देता है तो उन पर लाठियां भांजी जाती हैं...पानी की बौछार की जाती है। न ही राष्ट्रपतिन ही प्रधानमंत्री और न ही सरकार में शामिल कोई जिम्मेदार शख्स इस आक्रोश का शांत करने की कोशिश करता है। कोशिश करती है दिल्ली पुलिस लाठियां भांज कर, पानी की बौछार कर। ये सब क्यों हुआ इसकी जिम्मेदारी कोई भी जिम्मेदार शख्स नहीं लेता है..!
देशभर में समय – समय पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के कई फैसलों के खिलाफ देश के अलग- अलग हिस्सों में लोगों का गुस्सा फूटता है...अपने हक की मांग को लेकर लोग सड़कों पर उतर कर अपना विरोध जताते हैं...लेकिन यहां भी लोगों को मिलती हैं पुलिस की लाठियां..! यहां भी कोई जिम्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आता..! (पढ़ें- दिल्ली गैंगरेप- ठीक हैलोग इसे भी भूल जाएंगे !)
इसी बीच देश के किसी हिस्से से रेल दुर्घटना की ख़बर आती है...सैंकड़ों यात्रियों का सफर उनका आखिरी सफर साबित होता है...मुआवजे का मरहम लगाकर जख्मों को भरने का काम शुरु हो जाता है लेकिन जिम्मेदारी कोई नहीं लेता..! सरकार चाहे किसी भी दल की हो लेकिन हर कोई सिर्फ सत्ता सुख में डूबे रहना चाहता है। फिर चाहे देश की किसी बेटी के साथ गैंगरेप हो...पुलिस प्रदर्शनकारियों पर लाठियां भांजे या फिर किसी रेल दुर्घटना में सैंकड़ों यात्री मारे जाएं लेकिन आगे आकर जिम्मेदारी लेकर कुर्सी छोड़ने का साहस किसी में नहीं है।
21 फरवरी को आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में एक के बाद एक दो धमाके होते हैं...असमय ही 16 लोग मारे जाते हैं सैंकड़ों लोग घायल हो जाते हैं लेकिन इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता। (पढ़ें- सरकार गरजती है आतंकी बरसते हैं..!)
खास बात तो ये है कि देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे धमाके के बाद खुद कहते हैं कि सरकार के पास सूचना थी कि धमाके हो सकते हैं लेकिन इसके बाद भी धमाके हो जाते हैं...लेकिन कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच एक दूसरे के पाले में जिम्मेदारी लेने की गेंद फेंकने का काम शुरु हो जाता है।
नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले राजनीतिक दलों की नैतिकता उस वक्त गायब हो जाती है जब बारी किसी घटना की जिम्मेदारी लेने की आती है। उस वक्त ये नैतिकता भूल अपनी – अपनी कुर्सी बचाने के जुगत में लग जाते हैं।(पढ़ें- आम आदमी जाए भाड़ में..!)। ये कहानी है 121 करोड़ की आबादी वाले देश भारत की जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है।
एक और कहानी है करीब साढ़े सात करोड़ की आबादी वाले यूरोपीय संघ के सबसे गरीब देश बुल्गारिया की...इस कहानी की जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ये कहानी हैदराबाद धमाके से एक दिन पहले की है और ये कहानी दूसरों को नैतिकता का पाठ पढाने वाले हमारे देश के नेताओं के लिए एक सबक है। हैदराबाद धमाके से एक दिन पहले बुल्गारिया के प्रधानमंत्री बोयके बोरिसोव ने सिर्फ इसलिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया क्योंकि बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में वहां की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया था। बोरिसोव का कहना था कि जिस देश में प्रदर्शनकारियों को पुलिस पीटती हो वहां की सरकार का मुखिया मैं नहीं रह सकता। दरअसल वहां के लोग बिजली की बढ़ी हुई बिजली की दरों के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे...इस लाठीचार्ज में 14 लोग घायल हो गए थे।(पढ़ें- पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को पीटने पर...)
ये फर्क है सोच का...नैतिकता की बात करने और वक्त आने पर नैतिकता दिखाने का...लेकिन अफसोस इस सब का हमारे देश में नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता...उन्हें फर्क पड़ता है तो कुर्सी जाने पर इसलिए वे कुर्सी बचाने के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं हटते।

deepaktiwari555@gmail.com

यह देश चलता कैसे है


यह देश चलता कैसे है


सीधे-सुलझे रिश्ते भी,वो उलझाते कुछ ऐसे हैं 
नहीं जानता राम-रहीम,यह देश चलता कैसे है 

समस्या से समस्या का,वो गुणाकार ही करते हैं 
इसकी टोपी उसके सिर पर,खेल खेलते रहते हैं
चोर-चोर मोसेरे भाई, ये चेहरे मिलते जुलते हैं
नहीं जानता राम-रहीम,यह देश चलता कैसे है

भूखे बेबस लोगों को भी,वो पल में धनी बनाते हैं
चुपके-चुपके प्रेम जताते ,सभा भवन में लड़ते हैं
भारत का नक्शा कागज पर लगता सुंदर ऐसे है
नहीं जानता राम-रहीम, यह देश चलता कैसे है

क्लर्क किरोड़ीमल,अफसर लक्ष्मी पुत्र से लगते हैं
नेता हैं कुबेर मित्र, लोग निर्धन बेहाल बिलखते हैं
काले धन की भरी तिजौरी,स्विस  बेंक  में  पैसे हैं
नहीं जानता राम रहीम, यह  देश चलता  कैसे है

दशहत में जीती है जनता,वो जेड सुरक्षा रखते हैं
होते रहते बम्ब धमाके वो पैसे मुर्दों पर बरसाते हैं
संवेदन बातों की मरहम,फिर सबकुछ जैसे वैसे हैं
नहीं जानता राम-रहीम, यह  देश चलता कैसे है 
    

जबर्दस्ती की यौन-कुंठा-ब्रज की दुनिया

मित्रों,कई साल हुए उन दिनों मैं पटना,हिन्दुस्तान में कार्यरत था। बड़े मस्ती भरे दिन थे। उन दिनों मुझ पर हर पल बड़े-बड़े पत्रकारों से परिचय करने का जुनून सवार रहता था। उन्हीं दिनों मैं एक दिन दैनिक ****, पटना गया था एक पांडेजी से मिलने। पांडेजी उस अखबार में वरिष्ठ पद पर थे। बड़ी ही गर्मजोशी से उन्होंने मेरा स्वागत किया। उस समय वे चार-पाँच सहकर्मियों के साथ बैठे थे जिनमें से मैं किसी को भी नहीं पहचानता था। मैंने उनसे पत्रकारिता जगत की दशा और दिशा पर चर्चा छेड़ी लेकिन वे लगे नॉन स्टॉप नॉन भेज चुटकुले सुनाने। मैं पूर्णतया भेजीटेरियन हूँ भोजन से भी और बातों से भी परन्तु उनका तो प्रत्येक वाक्य शिश्न से शुरू होता था और योनि पर समाप्त। वे बार-बार न जाने क्यों अपनी नौकरानी की देहयष्टि का अश्लील वर्णन करते। उनका तो यहाँ तक दावा था कि वे उसके साथ संभोग भी करते हैं। मैं स्तब्ध था और अपने-आपको फँसा हुआ पा रहा था। कोई एक घंटा किसी तरह काटकर मैं वहाँ से भागा और फिर कभी उनसे मिलने की गुस्ताखी नहीं की। बाद में पता चला कि पांडेजी को अपने लिं* के आकार पर बड़ा अभिमान है और इसलिए उनके सहकर्मी उनकी अनुपस्थिति में उनको *डाधिपति कहकर बुलाते हैं। पांडेजी अधेड़ थे यही कोई 50-55 साल के और राम जी की देनी से शादी-शुदा और बाल-बच्चेदार भी थे परन्तु पटना में रहते थे अकेले ही।
                         मित्रों,उनसे मिलने के बाद मैं कई दिनों तक यही सोंचता रहा कि कोई व्यक्ति इस तरह का क्यों हो जाता है? पांडेजी पढ़े-लिखे थे और अपना भला-बुरा भलीभाँति समझते थे फिर भी वे लंपट थे। फिर शुरुआत हुई नवभारत टाइम्स पर ब्लॉगिंग की। मैंने भी लिखना शुरू किया और कई लेखकों की लेखनी से भी परिचित होने का अवसर भी मुझे यहाँ मिला। इन्हीं सुप्रसिद्ध लेखकों में से एक हैं नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के संपादक श्री नीरेंद्र नागर जी। जाहिर है इतने बड़े समाचार-पत्र के ऑनलाईन संपादक हैं तो योग्य और विद्वान तो होंगे ही लेकिन न जाने क्यों वे अन्य या समसामयिक मुद्दों पर कम लिखते हैं और सेक्स पर खूब लिखते हैं। उनके ऐसे आलेखों के शीर्षक भी काफी सेक्सी होते हैं जैसे-यदि प्रज्ञा ठाकुर की यो* में पत्थर डाले गए होते?, उसने पाया कई 'पत्नियों' का प्यार..., सेक्स से वंचित क्यों रहें अनब्याही लड़कियां?, तृप्ता, क्या तुम अपने मन का कर पाई?, हुसेन की 'सरस्वती' पेंटिंग अश्लील थी, और ये?, काश कि इस देश में ऐसे करोड़ों दोगले होते..., मैं भी वेश्या, तू भी वेश्या..., न वे वेश्याएं हैं, न सेक्स की भूखी हैं..., 10 मिनट का सेक्स और 24 घंटों का प्यार, गे सेक्स अननैचरल है तो ब्रह्मचर्य क्या है?, तेरे लिए मज़ा था वह उसके लिए सज़ा बन गई, वह बोली, तुम तो बहुत गिरे हुए निकले...आदि। मेरी समझ में यह नहीं आता कि कोई स्वस्थ दिमागवाला व्यक्ति कैसे लगभग इतना ज्यादा और इस भाषा में सेक्स के बारे में लिख सकता है। मनोविज्ञान तो यही बताता है कि जो व्यक्ति लगभग हरदम सेक्स के बारे में ही सोंचता होगा वही ऐसा कर सकता है। तो क्या नीरेन्द्र नागर जी भी पटनावाले पांडेजी की तरह लगभग हमेशा सेक्स के बारे में ही सोंचते हैं? क्या उनके दिमाग में भी लगभग हमेशा सेक्स ही भरा होता है? जहाँ तक मैं समझता हूँ यौन-कुंठा का शिकार वैसे लोगों को होना चाहिए जिनकी ढलती उम्र तक शादी नहीं हुई है या जिनको सेक्स का अवसर नहीं मिला है। हमलोग जब माखनलाल में पढ़ते थे तब हमलोगों के बीच एक मुहावरा खूब लोकप्रिय हुआ करता था जिसका इस्तेमाल हम उन मित्रों के लिए करते थे जो अपनी बातों में बार-बार पुरूष जननांग का उल्लेख किया करते थे। हम उनके मुँह की उपमा अण्डरवीयर से देते और कहते कि उसका मुँह नहीं है अण्डरवीयर है जब भी खुलता है ** ही निकलता है। जाहिर है कि इनमें से लगभग सारे-के-सारे 30 साल से ज्यादा की आयु के थे और तब तक कुँआरे थे। परन्तु कोई भी ऐसा व्यक्ति जो रामजी की देनी से कई-कई बच्चों का पिता हो वो कैसे यौन कुंठित हो सकता है? क्या लालू प्रसाद जी यौन कुंठित हो सकते हैं? यह तो वही बात हो गई कि कोई व्यक्ति 100-50 रसगुल्ले खाने के बाद यह कहे कि उसे तो खाने में स्वाद ही नहीं मिला,मजा ही नहीं आया। तो फिर जनाब इतना दबा कैसे गए?
                मित्रों,आदरणीय नागर जी कभी समाज के सभी व्यक्तियों को वेश्या साबित करते हैं तो कभी आप उनको समलैंगिकता का सबसे बड़ा पैरोकार बनते देख सकते हैं। इतना ही नहीं कभी उनको साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की योनि की चिंता सताने लगती है तो कभी विवाह से वंचित लड़कियों को सेक्स का आनंद उपलब्ध करवाने की। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह की जो यौन-कुंठा होती है वो जबर्दस्ती की यौन-कुंठा होती है और इसे मानसिक बीमारी की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। मैं मानता हूँ कि सेक्स मानव के लिए जरूरी होता है लेकिन एक सीमा तक ही। सेक्स जीवन के लिए जरूरी जरूर होता है लेकिन सेक्स जीवन तो नहीं हो सकता। यह मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य तो नहीं हो सकता। आयुर्वेद के अनुसार मानव को स्वस्थ जीवन के लिए संतुलित मात्रा में निद्रा,मैथुन और आहार का सेवन करना चाहिए। इसलिए मेरी समझ में न तो इनका पूर्ण परित्याग ही उचित है और न तो सिर्फ इनके लिए ही जीना अथवा इनको अपने जीवन का पर्याय बना लेना। मैं समझता हूँ कि जीवन जीने के लिए मध्यम मार्ग सर्वोत्तम मार्ग था और है। कहा भी गया है कि-अति रूपेण हृते सीता,अति गर्वेणहतः रावणः,अति दानात्बद्ध्यो बलि,अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति चाहे किसी भी चीज की हो कभी अच्छी नहीं होती।
                    मित्रों,हमारे समाज में हमारे पूर्वजों द्वारा हर चीज का एक वक्त निर्धारित है,व्यक्ति निर्धारित है और स्थान निर्धारित है। प्रत्येक काम तभी अच्छा लगता है जब उसका समय उचित हो,उसके लिए व्यक्ति नीतिसम्मत हो और उस काम को सही स्थान पर अंजाम दिया जाए। सेक्स से संबंधित बातें करने के लिए और सेक्स करने के लिए जब भगवान ने आपको जीवन साथी दिया ही है तो फिर आप समाज में क्यों गंध फैला रहे हैं? हर चीज की,हर संबंध की एक मर्यादा होती है। मैं नहीं जानता कि पटनावाले पांडे जी से श्री नीरेंद्र नागर जी का चरित्र कहाँ तक मिलता है लेकिन इतना तो निश्चित है कि नागर जी भी कुछ-न-कुछ उसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं जिससे कि पांडेजी ग्रस्त थे।
                        मित्रों,आचार्य चाणक्य ने कहा है कि काम (सेक्स) से बड़ी कोई बीमारी नहीं होती। अन्य बीमारियाँ तो जीवित व्यक्तियों को मारती हैं परन्तु यह रोग तो मरे को भी मारता है। चूँकि यह एक मानसिक बीमारी है इसलिए इस जबर्दस्ती की यौन-कुंठा का ईलाज भी मनोवैज्ञानिक ही हो सकता है। इस रोग के रोगियों को चाहिए कि वे अपने मन पर नियंत्रण पाने का कठोर अभ्यास करें। मन तो रस्सी में बंधे जानवर की तरह होता है इसलिए इसके लिए रस्सी (नियंत्रण) भी मजबूत चाहिए अन्यथा वह कभी भी रस्सी को तोड़ डालेगा और दूसरों के खेतों में घुस जाएगा। फिर क्या परिणाम हो सकता है यह आपलोग भी जानते हैं। मन पर नियंत्रण के लिए वे चाहें तो जैन ग्रंथों का गहरा अध्ययन कर सकते हैं या फिर किसी योग्य जैन मुनि से संपर्क कर उनके निर्देशन में मन को साधने का अभ्यास भी कर सकते हैं। अगर फिर भी काम वश में न आए तो आप किसी मनोचिकित्सक से भी परामर्श ले सकते हैं। हाँ,वे यह सब तभी करें जब उनमें मन को साधने की दृढ़ ईच्छा हो,सच्ची लगन हो अन्यथा मैंने कई शराबियों को कई-कई महीने पुनर्वास-गृहों में रहने पर भी शराब को नहीं छोड़ते भी देखा है।