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30.6.14

भक्त और भगवान

भक्त और भगवान 

भक्त -भक्त अपने आराध्य का गुणगान करता है और उसकी शरण लेना चाहता है।
       भक्त अपने आराध्य की कृपा से मनुष्यों के कष्ट दूर करने के प्रयास में लगा
       रहता है। भक्त भगवान को रिझाने में अपना जीवन समर्पण कर देता है। भक्त
       मानव कल्याण के लिए पुरुषार्थ करता है और अपने शक्ति स्त्रोत भगवान से
       प्रार्थना करता है। भक्त भगवान का पूजन -अर्चन करता है और अपने स्वामी
       की सेवा में प्रस्तुत रहता है। मगर मनुष्य अपने लौकिक स्वार्थ को पूरा करने
      के उद्देश्य को लेकर इन दोनों के समीप जाता है और धन या पदार्थ के बल से
      इनकी प्रसन्नता चाहता है और भक्ति मार्ग में यह कृत्य आडम्बर कहलाता है।

      भक्त अपने गुणगान,धन ,सम्मान या किसी पदार्थ को पाकर प्रसन्न नहीं होता
      वह तो उसके आराध्य को प्रसन्न करने के प्रयास करने वाले सच्चे मनुष्य से
      हमेशा खुश रहता है और भगवान से उसके कल्याण की दुआ करता है। भक्त
      भगवान की महिमा का गान सुन कर प्रसन्न हो जाता है ,स्व-प्रशंसा उसे खिन्न
     कर देती है। भक्त की चाह भगवान के चरण वंदन और दर्शन की रहती है वह तो
     अपने स्वामी के बराबर स्थान पर स्वप्न में भी बैठना नहीं चाहता है मगर मनुष्य
    अपनी अभीष्ट की प्राप्ति के लिये उसे भगवान मान लेता है,बहुत स्वार्थी है ना मनुष्य !

    भक्त भगवान की लीला का अनुकरण नहीं करता है यदि उसके कारण से मानव जाति
     का दू:ख दूर हो जाता है तो वह अपने स्वामी की कृपा मानता है मगर इंसान अपने
    लालच के कारण भक्त को महिमा मंडित करने में लग जाता है। क्या कोई भक्त खुद
    को भगवान कहलाने की इच्छा रखता है ?क्या कोई भक्त खुद को भगवान के स्थान
    पर विराजमान होते देखना चाहता है ? तो फिर भक्त की इच्छा क्या रहती है ?क्या
   भक्त खुद की मृत्यु के उपरांत उसकी याद में मंदिर,मूर्ति या प्रतिष्ठा चाहता है ?भक्त
    का जीवन या लौकिक शरीर भगवान को समर्पित होता है उसका रोम -रोम हर क्षण
    अपने आराध्य के नाम स्मरण में बीतता है यह तो मनुष्य का स्वार्थ है जिस कारण
    से भक्त को भगवान मान उसे महिमा मंडित करता है। हमारी आस्था और विश्वास
    का केंद्र  सर्व शक्तिमान भगवान है और भक्त का जीवन चरित्र  अनुकरण के योग्य
    होता है।

भगवान - भगवान को सबसे अधिक प्रिय उसका भक्त लगता है। भगवान अपने ह्रदय
      में भक्त को स्थान देता है। जो मनुष्य भगवान के भक्त की सेवा करता है भगवान
      उस पर प्रसन्न हो जाते हैं। भक्त का पूजन,सत्कार और आदर भगवान खुद चाहते
     हैं। भगवान खुद अपने भक्त की रक्षा में लगे रहते हैं ,उसके कष्टों को दूर करते हैं।
     भगवान तो खुद भक्त की गाथा में तल्लीन रहते हैं परन्तु भगवान यह नहीं कहते
    हैं कि भक्त सम्पूर्ण सत्य स्वरूप है। भगवान तो उसे अपना अंश मानते हैं। भक्त
    भगवान में समा जाये यही भक्ति की पराकाष्ठा है।

मनुष्य भगवान की माया में उलझ कर रह जाता है। उसे अपने स्वार्थ के अनुकूल जो
अच्छा लगता है उसके कीर्तन में लग जाता है उसे भक्त या भगवान से खास लेना -देना
नहीं है। मनुष्य तो ठगना चाहता है चाहे वह भक्त हो या भगवान मगर सच्चाई यह है कि
मनुष्य से ना भक्त ठगा गया है और ना ही भगवान।        
     

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