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12.6.14

कुछ अपनी ,कुछ उनकी

ललित -२
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संस्कारों के भूत
कनॉट प्लेस के जनपथ पर भारतीय जीवन बीमा निगम की भव्य ईमारत के नीचे लगे जनपथ बाजार की रंगीनियाँ निहार रहा था। क्या कुछ नहीं था वहां ! एक से एक फैशनेबल युवतियां , विदेशी रति-मदनो की टोलियां , तरह तरह के पाश्चात्य परिधानों की नुमाइश और सेल और बीच बीच में चटपटे आलू -मूंग दाल की चाट के खोमचे। ये जगह हर देल्हियाइट की फेवरेट स्थली है और आई-टॉनिक लेने का सुन्दर स्थान भी। मेरे साथ बीना (म.प्र) का एक साथी नीरज था , जिसने कुछ ही दिन पहले हमारी फर्म ज्वाइन की थी। मध्यप्रदेश का होने के नाते दो ही दिन में हमारी दोस्ती प्रगाढ़ हो गयी थी। मैं उन दिनों एक निजी कनॉट प्लेस बेस्ड फर्म में लेखापाल था और वो जूनियर लेखापाल के रूप में पदस्थ हुआ था। इसलिए भी शायद उसके लिए मैं फ्रेंड -फिलॉसफर -गाइड का रोल अदा करने लगा था।उससे रूम भी शेयर कर लिया … तो नीरज और मैं काफी देर तक विंडो शॉपिंग करते रहे। आखिर जब कुछ भूख बढ़ने लगी तो मैं उसे सीधे एक खोमचे पर ले गया। वहां खीरे -मूली के कटे हुए टुकड़े नीबू -चाट मसाला लगाकर मिल रहे थे। अच्छी -भली धनाढ्य (और थुल-थुल) महिलाये भी वहीँ खोमचे के सामने डेरा जमाये -भैया देंणा एक खीरा होर की टेर लगाती सी-सी कर पत्तल चाटती दिख रही थी। मैंने भी झट दो पत्तल खीरे के लिए और एक नीरज को थमा दिया। फिर खाते -खाते हम बुक शॉप में किताबे देखने लगे। थोड़ी देर बाद मेरा नीरज की ओर ध्यान गया तो मैंने पाया वो खीरे का पत्तल वैसे ही थामे था। ''ओ बई ,खात्ता क्यों नहीं ? तुझे तो भूक लग री सी न ? '' मैं भरसक कोशिश करते हुए पंजाब्बी लहजे में बोला। ये मेरा दिल्ली वालों जैसा दिखने का अपना फंडा था। नीरज के चेहरे पर अजीब संकोच का भाव उमड़ आया - भैयाजी ,हमे बाजार में खड़े होकर खाने की आदत नहीं है। बड़ा अजीब सा लगता है। पिताजी घर पर ही हर चीज लेकर आते थे ,चाहे फल हों या चाट। और फिर किसी ने ऐसे मुझे देख लिया तो क्या सोचेंगे।
मुझे जोर की हंसी आ गयी और चिढ भी छूटी-''ओ यार माइयवे (ये गाली होती है ,ये मैं जानता था और ये भी की खुद को पंजाबी मुंडा सिद्ध करने के लिए इसे बीच -बीच में बोलना जरुरी है )तेरे को कौन देखेगा यहाँ। अबे मजे कर। और जो इत्ता सोचा न तो मर जायेगा बच्चू !'' पर मेरे समझाने का उस पर घंटा कोई असर नहीं हुआ। हम फिर रूम पर आ गए। दो -एक चीज और भी खरीदी थी हमने खाने के लिए। पर इस ग्राम्य-संस्कृति के ध्वजा वाहक के साथ होते हुए अब मुझसे भी कुछ ना खाया गया। आखिर हम अपने रूम पर आ गए। उसने हाथ -मुह धोया तो मुझे भी वही सब करना पड़ा। फिर वो दो थालियां ले आया और सारी खाने की चीजे प्लेट में करीने से जमा दी। भैयाजी ! अब खाते हैं। खुद को ''गॉडफादर ''समझ रहा था मैं ,पर नीरज ने धम्म से मेरी औकात बता दी। … उस दिन मुझे शायद पहली बार ऐसे लगा जैसे मैं सपरिवार हूँ और अपने भाई-बहनो के साथ नाश्ता कर रहा हूँ। सच है ! महानगर में दो पैसे कमाने की जद्दोजेहद में मैंने अपने घर के तमाम संस्कार ताक पर धर दिए थे। लेकिन नीरज ने अनजाने में जैसे उन भूतों को बोतल से बाहर कर दिया। उस दिन तो बहुत बुरा लगा था उसके इस ''पिछड़ेपन '' का , पर अब लगता है कि वो नहीं , मै पिछड़ रहा था। उसने तो मुझे सही समय पर जगा दिया।
इन भूतों से मिलना सचमुच विरल अनुभव रहता है। खास कर तब जब आप अपनी मिटटी ,अपने वतन से दूर हों।

-विवेक मृदुल

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