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31.7.14

पत्थरों के शहर में जीते हैं सब
और जो हवा वो पीते हैं
उससे अब तक तो सबको जम जाना था
किन्तु ऐसा कभी भी नहीं हुआ
कि जीता-जीता अचानक कोई जम जाए
असल में नकली रिश्तों के बीच जीते हुए सबके
दिल ही ऐसे पत्थर हो जाया करते हैं कि फिर
देह का पत्थर हो जाना कोई मायने नहीं रखता
पत्थर कदम-कदम पर मिलते हैं
बाधाओं के रूप में और नफरत के रूप में 
जिन्दगी की इस बहती हुई नदी में
हमारा हर गलत कदम पत्थर ही होता है
किसी न किसी की राह में
यहाँ तक कि खुद हमारी ही राह में
अक्सर दिखाई देते हुए पत्थरों से
न दिखाई देने वाले पत्थर ज्यादा खतरनाक होते हैं
किन्तु उन्हीं पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता !!
और जब ध्यान जाता है,पत्थर बहुत बड़े हो चुके होते हैं
धरती पर के हमारे कुनबे की आपसी कलह और नफरत
और हवा-पानी आदि सब कुछ के विषैले हो जाने
हमारे बीच इन पत्थरों के चट्टान हो जाने की कहानी है
जिन पत्थरों से डरने-टूटने और भय की बातें करते हुए हम
उन्हीं पत्थरों की भयावह चट्टानों पर खड़े
अब न तब गहरी घाटियों में समा जाने वाले हैं हम
और आश्चर्य कि हम अब तक तो ये भी नहीं जानते !!??

.... स्वार्थी मित्र है या हितेषी ?

.... स्वार्थी मित्र है या हितेषी ?

आप जब कमजोर होते हैं तब स्वार्थी मित्र आपसे दूरियाँ बढ़ा लेते हैं और आपको
भूलने का या फिर अनुचित दबाब बढ़ाने का प्रयास करते हैं। अपने को ताकतवर
समझने वाले लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए या आपको नीचा दिखाने के लिए
आपके दुश्मन तथा विरोधी का सहयोग करते रहते हैं लेकिन जब आप ताकतवर
बन उभरते हैं तो स्वार्थी मित्र आपकी वाहवाही में लग जाते हैं,आपके दिए स्लोगन
या आपके द्वारा कही गई सामान्य बात पर भी तालियाँ पीटने लगते हैं। अपनी सीमा
से स्वार्थी लोग आपको इसलिए दूर रखते हैं ताकि उनका स्वार्थ सिद्ध होता रहे।
क्या ऐसे लोग कभी मित्र भी हो सकते हैं ?

ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाये ? हमारे नीति शास्त्र कभी भी ऐसे
तुच्छ लोगों से मित्रता करने की सलाह नहीं देते हैं और ना ही उन पर विश्वास
जताने की सलाह देते हैं जिस तरह शठ के लिए शठ नीति है उसी तरह स्वार्थी लोगों
से खुद का स्वार्थ पूरा करके उन्हेँ बरगलाये रखना अच्छा है। स्वार्थी लोग खुद को
अच्छी तरह से पहचानते हैं वे स्वार्थ पूरा करने के लिए जो मिठ्ठी बात करते हैं
या सहयोग करने का वादा करते हैं वास्तव में उसका मूल्य कौड़ी का होता है। यदि
हम उन चिकनी बातों पर विश्वास करते हैं तो हम ही फिसलते हैं और चोट खाते हैं.

विश्व के डरावने स्वार्थी मित्र जब आपको निमंत्रण देते हैं और आपके पैरों तले लाल
कालीन बिछाते हैं इसका मतलब यह नहीं मानना चाहिए कि ये आपकी सफलता की
कद्र कर रहे हैं। ये लोग अपना स्वार्थ और आर्थिक हित देखने आते हैं और हमें भोन्दु
समझ अपना काम निकालने की फिराक में रहते हैं। जो लोग स्वार्थी मित्र से बढ़िया
सम्बन्ध बनाने में ऊर्जा नष्ट करते हैं वास्तव में अपने सच्चे मित्रों की उस समय
अवहेलना करते हैं क्योंकि हम तब उन्हें सम्मान देने में लगे रहते हैं जिसकी पात्रता
नहीं है और उत्साह अतिरेक में सच्चे मित्रों को खुद से दूर कर लेते हैं।

"सबका साथ और सबका विकास "तो भारतीय दर्शन का  मूलमंत्र रहा है हमारे ग्रन्थ
वसुधैव कुटुम्बकम का मन्त्र हजारों साल से दे रहे हैं मगर स्वार्थी लोग उसकी कद्र
आज तक नहीं कर पाये हैं परन्तु अपना हित साधने के लिए अभी वो इस मन्त्र की
प्रशंसा करते नहीं थक रहे हैं ?क्या हम वास्तविकता को समझ रहे हैं ? हमारे सच्चे
मित्र छोटे हैं तो भी हमारे लिए उत्तम है क्योंकि इतिहास और पुराण गवाह है श्री राम
की विजय में सहयोग करने वाले निषाद,भील,वानर ,काक जैसे सहयोगियों के समर्पित
भाव का।

कोयला जलता हुआ होता है तो भी उसका सम्पर्क हाथ जला सकता है और बुझा हुआ
है तो हाथ काले कर देता है ,स्वार्थी त्याज है। स्वार्थी मित्र को दूर करना है तो मनुष्य को
शांति पूर्वक अपना बहुत बड़ा स्वार्थ पूरा करने की बात रख देनी चाहिए वह उलटे पाँव
खिसक जाता है।    

29.7.14

जाँच पर जाँच,तारीख पर तारीख और अंत में इंसाफ को सजाये मौत-ब्रज की दुनिया

29-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हाल ही में मुझे कई बार टेलीवीजन पर अली बाबा और मरजीना फिल्म देखने का सुअवसर मिला। फिल्म क्या थी भारत के वर्तमान का सच्चा प्रतिबिम्ब थी। फिल्म में बगदाद में एक ऐसे अमीर का शासन है जो निहायत लालची है। वह अपने सारे फैसले और सारे न्याय इस आधार पर देता है कि किस पक्ष ने कितना सोना पेश किया है। वो हर बार कहता कि सबूत पेश किया जाए लेकिन सबूत के बदले पक्षकार सोने की अशर्फियाँ पेश करते हैं और तब वो कहता है कि इस पक्ष का सबूत उस पक्ष के सबूत (सोने की अशर्फी) से ज्यादा वजनदार है इसलिए फैसला इस पक्ष के पक्ष में सुनाया जाता है और उस पक्ष को सजा दी जाती है।
मित्रों,क्या आपको नहीं लगता कि इस समय भारत में भी ठीक यह स्थिति है? जिसके पास जितना ज्यादा पैसा और जितनी तगड़ी पैरवी होती है वह कानून के साथ बलात्कार करने के लिए उतना ही ज्यादा स्वतंत्र है। जाँच का नाटक किया जाता है फिर इंसाफ का ड्रामा खेला जाता है और अंत में इंसाफ को ही वजनदार सबूत के आधार पर सजाये मौत सुना दी जाती है। आखिर कब तक भारत में ऐसा चलता रहेगा,कब तक??
मित्रों,जैसा कि आप जानते हैं कि लखनऊ की निर्भया मामले की जाँच को यूपी की बाप-बेटे,बलात्कारियों और दंगाइयों की सरकार ने सीबीआई के हवाले कर दिया है। इससे पहले स्त्री-गौरव उप्र की एडीजी सुतापा सान्याल अपनी खराब किस्सागोई के कारण उप्र की सरकार की काफी फजीहत करवा चुकी हैं।
मित्रों,मैंने देखा है कि जो दलित-पिछड़ा-गरीब अधिकारी बन जाते थे वे दलित-पिछड़ा-गरीब नहीं रह जाते थे बल्कि वे सिर्फ और सिर्फ घूस खानेवाला अधिकारी रह जाता था लेकिन शायद यह पहली ऐसी महिला अधिकारी हैं जो अधिकारी बनने के बाद सिर्फ अधिकारी रह गई हैं। न तो इनके मन में महिलाओं के प्रति दर्द है और न ही करुणा इनके मन में तो सिर्फ जीहुजूरी है,अपने आका नेताओं को खुश रखने का उत्साह है,तत्परता है। मैं मानता हूँ कि अगर इस महिला को अपने महिला होने का थोड़ा-सा भी भान है तो उनको अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए क्योंकि उन्होंने महिला होते हुए भी एक बलात्कार-पीड़िता महिला के दर्द और संघर्ष की हँसी उड़ाने की धृष्टता की है।
मित्रों,आपको क्या लगता है कि अब जब सीबीआई इस मामले की जाँच करने जा रही है तो क्या पीड़िता को न्याय मिल जाएगा? मैं जानता हूँ कि आप भी इस संभावना को लेकर निश्चित नहीं हैं। मैं तो निश्चित हूँ कि और दुष्कर्मियों की तरह निश्चिंत भी कि सीबीआई अब उस रसूखदार को बचाने के लिए जिसको कि श्रीमती सान्याल बचा रही थीं काफी लंबे समय तक जाँच करने का नाटक करेगी और अंत में केस का क्लोजर रिपोर्ट लगा देगी। मामला खत्म इंसाफ खल्लास। दरअसल पिछले कुछ दशकों से सीबीआई का काम ही यही रह गया है कि बड़े और बहुत बड़े लोगों को कानून के पंजे से यानि सजा पाने से बचाना।
मित्रों,आपको याद होगा कि 90 के दशक के अंत में बिहार में गौतम सिंह और शिल्पी जैन नामक प्रेमी जोड़े की हत्या कर दी गई थी। तब शक के दायरे में थे लालू जी के साले यानि आधे घरवाले साधु यादव। यहां तक चर्चाएं रहीं कि साधु यादव और उनके तत्कालीन सहयोगी मंत्री ने मिलकर गौतम के सामने ही शिल्पी के साथ दुष्कर्म किया और फिर हत्या कर डाली। भाजपा के पुरजोर विरोध के बाद मामला सीबीआई के हवाले हुआ। पर साधु यादव ने पॉलीग्राफी टेस्ट और रक्त के नमूने देने से मना कर दिया। इसी बीच साधु जी केंद्र में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस में चले गए। यूपीए 2 के आखिर में सीबीआई ने कहा साधु वाकई साधु हैं इसलिए हम उनको निर्दोष मानते हुए मामले को बंद करने की अनुमति मांगते हैं। कोर्ट ने भी सीबीआई के इस साधु वाद को साधुवाद कहा और इस प्रकार इंसाफ के साथ-साथ गौतम-शिल्पी की भी दोबारा हत्या कर दी गई।
मित्रों, इसी प्रकार यूपीए 1 के दौरान वर्ष 2006 में अपनी लाख कोशिशों के बावजूद सीबीआई को कई-कई महान घोटालों के निर्माता और निर्देशक लालू प्रसाद यादव जी के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का कोई सबूत नहीं मिला और वे बरी करार दिये गए। इसी प्रकार सीबीआई को मुलायम सिंह यादव के पास भी आय से अधिक संपत्ति होने का कोई प्रमाण नहीं मिला और पिछले साल सितंबर में यूपीए 2 के समय वे भी दूध के धुले घोषित किए जा चुके हैं। कुछ इसी तरह की कोशिश यूपीए 2 के दौरान मायावती को भी आयानुसार सम्पत्ति निर्माण का प्रमाण-पत्र देकर सीबीआई कर चुकी है यानि यूपीए की सरकार के समय जिन-जिन भ्रष्टाचारियों-बलात्कारियों ने कांग्रेस की शरणागति स्वीकार कर ली सरकार ने सीबीआई के माध्यम से सबको अभयदान दे दिया कि करो और भ्रष्टाचार करो,और बलात्कार करो कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा क्योंकि देश में कानून का नहीं हमारा स्वेच्छाचारी शासन है। न जाने क्यों न तो आयकर विभाग को ही और न तो सीबीआई को ही नेताओं के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति मिल पाती है जबकि पटना के चोर बार-बार उसका पता लगा लेते हैं। इसी प्रकार मुजफ्फरपुर की नवरुणा का भी सीबीआई पिछले दो सालों में पता नहीं लगा पाई है क्योंकि उसके माता-पिता के पास इंसाफ पाने लायक सबूत (पैसा) नहीं है। यहाँ सवाल सिर्फ सीबीआई का नहीं है बल्कि पूरे तंत्र का है जो पैसों और पैरवी की बीन पर नाच रही है। राज्यों की जाँच एजेंसियाँ तो केंद्र की जाँच एजेंसियों से भी ज्यादा भ्रष्ट हैं। जिनके पास पैसा और पैरवी नहीं है वे वास्तविक लाभार्थी होते हुए भी बेहाल हैं और जिनके पास पैसा है,पैरवी है वे जेल में होने के बदले मलाई चाभ रहे हैं।
मित्रों,इस बार के लोकसभा चुनावों में जब हमने मतदान किया था तो हमारे मन में एक आशा इस बात को लेकर भी थी कि आनेवाली सरकार सही मायनों में भारत में कानून का शासन स्थापित करेगी। तब कानून के हाथ इतने लंबे और मोदी जी की मजबूत सरकार की तरह मजबूत होगी कि कोई भी अपराधी सजा पाने से बच नहीं पाएगा भले ही वो देश का राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। मगर हमारा यह सपना सच होगा क्या? क्या लखनऊ की निर्भया समेत भारत के हजारों पीड़ितों को जीवित रहते या मरने के बाद भी कभी इंसाफ मिल पाएगा?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

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मेरा सच्चा दोस्त वही हो सकता है जो नास्तिक हो...

मेरा सच्चा दोस्त वही हो सकता है जो नास्तिक हो... धर्मों में फंसे लोग अंततः कट्टरपन के दलदल में फंसेंगे ही, वो चाहे लिबरल कट्टरपन हो या कट्टर कट्टरपन हो. और कौन कहता है कि नास्तिक आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता... नास्तिकता के रास्ते आप सही मायने में अपने तरीके से देश दुनिया ब्रह्मांड मनुष्यता आदि को एनालाइज कर सकते हैं और खुद का एक नजरिया समझ सोच विकसित कर सकते हैं जो आपका खुद का आध्यात्मिक दर्शन बनेगा... मौलिक और आधुनिक दर्शन... तो भाइयों, पुराने विचारों को जानिए पढ़िए खूब लेकिन दिल दिमाग को मौलिक रखिए... नास्तिक बनिए...

यशवंत सिंह

27.7.14

सच में ,जीतना आसान है।

सच में ,जीतना आसान है।

कार्य का परिणाम क्या आना चाहिये इस बात पर गहन चिंतन और विचार विमर्श
तब तक होना चाहिए जब तक उस काम को करना शुरू नहीं किया है। पूर्ण चिंतन
के बाद करने योग्य काम में देरी करना हमारे कमजोर आत्मविश्वास को दर्शाता है।
काम को शुरू नहीं करना हमारे निठल्लेपन को दर्शाता है। हाथ में लिए काम को
भय वश बीच में छोड़ देना हमारी अयोग्यता को दर्शाता है। कार्य के पूरा ना होने
तक हार जीत की परवाह किये बिना पुरे मनोयोग से डटे रहना दैवीय सत्ता को
उचित परिणाम देने के लिए मजबूर करना दर्शाता है। इसलिए वेद कहते हैं कि
देव भी पुरुषार्थ के पीछे चलता है  ………

यदि सही में आप जीत चाहते हैं तो दुनियाँ की कोई ताकत आपको हरा नहीं सकती।
जीत के लिए खुद को पूर्ण रूप से तैयार तो कीजिये, आप ने अपने को हार की जंजीरो
से झकड रखा है!! एक बार आत्म विश्लेषण कीजिये ,खुद को जानिये। अगर आप खुद
को जान जायेंगे तो आप निश्चित रूप से अपने असफल होने के सही कारण को पकड़
पायेंगे। क्या आपने अपने प्रति हीन विचार बना रखे हैं ?क्या आप अपने पर शंका
करते रहते हैं ?क्या आप अपने मन को कार्य शुरू करने से पहले ही नकारात्मक
सन्देश देने लग जाते हैं ?क्या आप अपने मन में भय,चिन्ता,निराशा,असफलता ,
हानि और दुःस्वप्न को स्थान दे चुके हैं ? यदि हाँ तो फिर आप जीत के लिए बने ही
नहीं है। जीत से पहले मन में जीत के ,केवल जीत के विचार लाने पड़ते हैं और यह
काम दूसरा नहीं कर सकता सिर्फ आप ही कर सकते हैं  

आप सफलता के शिखर तक पहुँचना चाहते हैं इसलिए तो उस अनजान मार्ग की ओर
कदम बढ़ा चुके हैं ,मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ है ,इस मार्ग पर आपको जगह -जगह
निश्चित रूप से मार्गदर्शक पट्टिकाएँ मिलेगी जो आपका मार्ग दर्शन करेंगी। मैं चाहूँगा कि
आप उन साइनबोर्ड को पढ़कर वापिस नहीं लौटेंगे और नयी रह चुनते हुये आगे बढ़ते जायेंगे।
मार्ग में लिखे उन साइन बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा मिलेगा -"यह रास्ता सफलता की ओर
नहीं जाता " वास्तव में असफलता हमे नए मार्ग की तरफ बढ़ने को प्रोत्साहित करने के लिए
आती है हमारी सही मार्ग दर्शक बनकर,यह हमे हताश करने नहीं आती मगर हम इसे राह का
रोड़ा मानकर खुद के आत्मविश्वास को कमजोर कर लेते है ओर असफलता को नकारात्मक
रूप में लेकर कदम थाम लेते हैं या पीछे मुड़ जाते हैं  ...................     
  

24.7.14

जीवन सूत्र

जीवन सूत्र 

जो जीतना चाहता है वह समस्या को सिरे से समझने पर ध्यान केंद्रित कर देता
है और हारने वाला समस्या को नजरअंदाज कर देता है

बेशक, झूठ बोलने से काफी काम बन जाते हैं मगर झूठ गढ़ने, झूठी योजना तैयार
करने, झूठे साक्ष्य बनाने, झूठ को पेश करने और जिंदगी भर हर झूठ पर दी गई
दलील को याद रखने में बहुत ऊर्जा और उम्र (समय) खर्च हो जाती है जबकि सच
बोलने में बहुत कम ऊर्जा और समय लगता है। उम्र छोटी होती है और फैसला स्वयं
को ही करना होता है कि किसको चुने - झूठ या सच  .......

यह सच है कि हम सबके पास अपने स्वर्णिम भविष्य की योजना है लेकिन यह भी
सच है कि हम में से अधिकांश असफल या गुमनाम हो जाते हैं इसका कारण यह है
कि हम अपने लिए अच्छी योजना आज "TODAY"बनाते हैं और उसे कल TOMORROW
से शुरू करना चाहते हैं।

परमात्मा ने जिस मनुष्य को जो कुछ दिया है उसको वह न्यूनतम लगता है तथा
और ज्यादा पाने की याचना करता है,मगर किसी मित्र,परिचित या रिश्तेदार को कुछ
देता है तो मनुष्य उसे बहुत ज्यादा मानता है और ईर्ष्या से सुलगता रहता है। मनुष्य
ने जो कुछ भी अर्जित किया है उसका श्रेय खुद को देता है और जिसे प्राप्त नहीं कर
सका उसका कारण भगवान में ढूंढता है। जो मनुष्य इससे परे है वह पूजनीय है  ....

इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है की एवरेस्ट की चोटी हजारों फीट की
ऊँचाई पर है परन्तु यह भी सच है कि कदम दर कदम चल कर इसके शिखर को
पैरों तले रौंदा जा सकता है। इरादा जब अटूट बन जाता है तो काँटे गुलाब की
मुस्कराहट को रोकने में कामयाब नहीं होते और कीचड़ भी कमल को खिलने से
रोक नहीं सकता।

पँछी अपने घोंसले से सुबह चहचहाता हुआ उड़ान भरता है और शाम को कलरव
करता लौट आता है,उसके लिए कोई भी दिन बुरा नहीं होता क्योंकि उसको अपनी
उड़ान पर भरोसा है ,भयंकर दुष्काल में भी वह जमीन के अन्दर पड़े दाने को खोज
निकालता है और एक तरफ विवेक और बुद्धि से सम्पन्न मनुष्य है जो हर समय
अच्छे वक्त के इन्तजार में बैठा रहता है,प्रतिकुल समय में आर्थिक मंदी का मातम
मनाता हुआ दीन हीन बन कर बैठ जाता है या सरकार के कंधे की सवारी कर वैतरणी
पार करना चाहता है,क्या हम रोना रोते बैठे रहने वालो की कतार में खड़े रहना चाहते
हैं या पुरुषार्थ के पँख लगाकर उड़ना चाहते हैं ?फैसला भगवान ने मनुष्य पर छोड़
रखा है कि उसे क्या मिलना चाहिये और क्या नहीं  ………।     

23.7.14

गवर्नेंट विथ डिफरेंस कहाँ तक डिफरेंट?-ब्रज की दुनिया

22-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक जंगल था जहाँ अचानक लोकतंत्र की हवा चलने लगी। चुनाव हुए तो चूँकि वहाँ बंदरों,हिरणों और खरगोशों की संख्या ज्यादा थी इसलिए एक बंदर को राजा चुन लिया गया। कुछ ही दिन बाद एक दिन जंगल के पुराने राजा सिंह ने एक हिरण के बच्चे को दबोच लिया। हिरणी बेचारी हाँफती हुई नए राजा बंदर के यहाँ पहुँची और उससे अपने पुत्र की रक्षा करने की गुहार लगाई। बंदर पेड़ों की डालों पर उछलता-कूदता हुआ भागा-भागा वहाँ पहुँचा जहाँ सिंह ने हिरणी के बच्चे को बंधक बना रखा था। बंदर ने सिंह को हिरणी के बच्चे को नहीं खाने और छोड़ देने का आदेश दिया लेकिन सिंह के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। बंदर चिल्लाता रहा और चिल्लाता-चिल्लाता लगातार पेड़ों की इस डाल से उस डाल पर कूदता रहा और उधर सिंह हिरणी के बच्चे को खा गया।
मित्रों,तब बच्चे की मौत से दुःखी हिरणी ने बंदर पर नाराज होते हुए कहा कि तुम बेकार राजा हो क्योंकि तुम सिंह से मेरे बच्चे की रक्षा नहीं कर सके। जवाब में बंदर ने कहा कि भले ही मैं तेरे बच्चे को नहीं बचा सका लेकिन मेरी कोशिश में तो कमी नहीं थी।
मित्रों,केंद्र में मोदी सरकार को गठित हुए 2 महीने हो चुके हैं और मोदी सरकार भी लगातार उस बंदर की तरह कोशिश ही करती हुई दिख रही है। महंगाई को कम करने की कोशिश,चीन-पाकिस्तान को समझाने की कोशिश,रोजाना 30 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने की कोशिश,भ्रष्टाचार मिटाने की कोशिश,मुलायम-अखिलेश को समझाने की कोशिश,कांग्रेसी काल के राज्यपालों को इस्तीफे के लिए मनाने की कोशिश वगैरह-वगैरह। ठगा-सा देश और ठगी-सी देश की जनता ने क्या सिर्फ इसी बंदरकूद के लिए देश ने नरेंद्र मोदी को भारी बहुमत-से चुनाव जिताया था?
मित्रों,चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में कुशासन के खिलाफ लगातार बोल रहे थे मगर आज जब यूपी में कानून-व्यवस्था नाम की चीज नहीं रह गई है तब वे अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों को दरकिनार करते हुए ठीक उसी तरह सपा-बसपा को साधने की जुगत भिड़ा रहे हैं जिस तरह कि कभी सोनिया-मनमोहन ने भिड़ाया था। तो क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि अब उत्तर प्रदेश की लाचार जनता को मार्च 2017 तक मोदी कथित बाप-बेटे की सरकार को झेलना पड़ेगा? इसी प्रकार नरेंद्र मोदी सरकार चीन-पाकिस्तान और कांग्रेसी काल के राज्यपालों के आगे भी गिड़गिड़ाती हुई दिखाई दे रही है। चीन की घुसपैठ और पाकिस्तान की गोलीबारी में मोदी सरकार के गठन के बाद तेजी ही आई है लेकिन मोदी सरकार ने इनको ऐसा करने से रोकने के लिए अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे कि ऐसा लगे कि यह सरकार मोदी कथित वेंटिलेटर पर चल रही मनमोहन सरकार से किसी भी मायने में अलग है।
मित्रों,इसी प्रकार नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार में कई ऐसे लोगों को शामिल किया है जिनको बेदाग नहीं कहा जा सकता। इनमें से जिन लोगों पर बलात्कार के आरोप हैं या दंगों के आरोप हैं उनको तो मैं नहीं जानता लेकिन मैं हाजीपुर के सांसद और भारत के उपभोक्ता एवं खाद्य आपूर्ति मंत्रालय रामविलास जी पासवान (मोदी जी और राजनाथ सिंह जी शायद उनको ऐसे ही पुकारते होंगे) को जरूर अच्छी तरह से जानता हूँ। ये वही रामविलास जी पासवान हैं जिनके रेल मंत्री रहते कभी अजमेर रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन और इनके प्रिय समता कॉलेज,जन्दाहा के तत्कालीन प्रिंसिपल श्री कैलाश प्रसाद जी को एक उम्मीदवार से घूस लेते हुए सीबीआई ने पकड़ लिया था। बाद में अटल जी की उस सरकार ने न जाने क्यों मामले को दबा दिया था जिसमें स्वयं रामविलास जी पासवान भी शामिल थे। अभी लोकसभा चुनाव प्रचार के समय 22 फरवरी,2014 तत्कालीन मनमोहन सरकार ने यह खुलासा किया था (कृपया पूरा समाचार पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें) कि रामविलास पासवान ने यूपीए 1 में केंद्रीय इस्पात और रसायन मंत्री रहते हुए बोकारो इस्पात कारखाने में कई ऐसी बहालियाँ की थीं जिनमें पैसे लेकर गड़बड़ी की गई थी लेकिन न तो मनमोहन सरकार ने और न ही अब मोदी सरकार ने इस मामले में जाँच को आगे बढ़ाया है। इसका सीधा मतलब देश की जनता यह क्यों न लगाए कि मोदी सरकार भी रामविलास जी पासवान के खिलाफ किसी तरह की सीबीआई जाँच नहीं करवाने जा रही है यानि मामला रफा-दफा?
मित्रों,क्या आपको भी ऐसा लगता है कि ऐसे दागी लोगों को सरकार में रखकर मोदी बेदाग शासन दे सकते हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता क्योंकि ठीक ऐसी ही स्थिति सोनिया-मनमोहन की सरकार में भी थी। तब भी दाग अच्छे हैं वेद वाक्य था और आज भी है फिर यह सरकार कैसे गवर्नेंस विथ डिफरेंस हुई। तब भी तब की सरकार ने राष्ट्रमंडल घोटाले में आरोपी शीला दीक्षित को राज्यपाल बनाया था और बनाए रखा था और आज की सरकार भी शीला दीक्षित को हटा नहीं रही है बल्कि मोदी जी उनके साथ गुपचुप मुलाकात कर रहे हैं। क्या श्री श्री मोदी जी बताएंगे कि उनके और शीला आंटी के बीत क्या-क्या बातचीत हुई? क्या नरेंद्र मोदी ने शीला दीक्षित को अभयदान दे दिया है? अगर हाँ तो क्या वे बताएंगे कि ऐसा उन्होंने किन शर्तों पर किया है? प्रचंड बहुमत से बनी यह कैसी मजबूत सरकार है जो अपने भ्रष्ट राज्यपालों को हटा भी नहीं सकती फिर चीन-पाकिस्तान के साथ यह सरकार कैसे आँखों में आँखें डालकर बात करेगी। एक राज्यपाल हैं उत्तराखंड के राज्यपाल कुरैशी जी जो राज्यपाल के पद को पिकनिक मनाने जैसा समझ रहे हैं और रोजाना बिरयानी के जलवे लूट रहे हैं और बेहद संवेहनहीन होकर बलात्कार को स्वाभाविक परिघटना बता रहे हैं। रोजाना सीमा पर पाकिस्तानी गोलीबारी में हमारे सैनिक मारे जा रहे हैं और मोदी सरकार सार्क उपग्रह की परिकल्पना करने में खोयी हुई है। क्या इसको कहते हैं आँखों में आँखें डालकर बात करना? हेमराज पहले भी सीमा पर मारे जा रहे थे और आज भी मारे जा रहे हैं। पहले भी तोगड़िया,ओबैसी,शिवसेना वगैरह बेलगाम थे और आज भी बेलगाम हैं। मोदी सरकार के मंत्री जीतेन्द्र सिंह जिन्होंने सरकार गठन के तत्काल बाद संविधान के अनुच्छेद 370 पर प्रश्नचिन्ह लगाया था अब संसद में ऐसा क्यों कह रहे हैं कि सरकार के पास अनुच्छेद 370 में किसी तरह की तब्दीली का कोई प्रस्ताव नहीं है? क्यों मोदी सरकार ने अभी तक दिन-प्रतिदिन गति पकड़ रहे उस पिंक रिव्यूलेशन को रोकने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है जिसको बढ़ाने के आरोप उन्होंने अपने चुनावी भाषण में लगातार लगाए थे? क्या अभी भी गोवंश के मांस के निर्यात पर केंद्र सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी जारी नहीं है?
मित्रों,कुल मिलाकर अबतक नरेंद्र मोदी सरकार वही सब कर रही है और वैसे ही कर रही है जैसे कि मनमोहन सरकार चुनावों से पहले कर रही थी फिर कैसे समझा जाए कि यह सरकार उससे अलग हटकर है? माना कि मोदी सरकार ने महँगाई को काफी हद तक नियंत्रण में रखा है लेकिन क्या भारत की जनता ने सिर्फ 25 रुपये किलो का प्याज और 20 रुपये किलो का आलू खाने के लिए मोदी को भारी बहुमत दिया था? और अगर वही सब होना है जो अब तक होता आया है अथवा अगर मोदी सरकार को आगे भी वैसे ही और वही काम करना है जो उसने पिछले दो महीनों में किया है तो फिर अच्छे दिन तो आने से रहे अलबत्ता पहले से भी ज्यादा बुरे दिन जरूर आनेवाले हैं देश की जनता के लिए भी और मोदी सरकार के लिए भी। जनता को सिर्फ बंदरकूद जैसा प्रयत्न नहीं परिणाम चाहिए।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

21.7.14

नई गरीबी रेखा पर चुप क्यों है मोदी सरकार?-ब्रज की दुनिया

21-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,15 दिन हुए जब रंजराजन समिति ने गरीबी को मापने के लिए नए पैमानेवाली रिपोर्ट मोदी सरकार को सौंपी थी। हमें उम्मीद थी थी कि आदत के मुताबिक नरेंद्र मोदी इस रिपोर्ट पर तीव्र और तीखी प्रतिक्रिया देंगे और सिरे से रिपोर्ट को नकार देंगे। आखिर सवाल गरीबों की ईज्जत का था। याद करिए चुनाव प्रचार जब नरेंद्र मोदी पानी पी-पीकर मनमोहन सरकार पर शहरों के लिए 33 रुपए प्रतिदिन और गांवों के लिए 27 रुपये प्रतिदिन व्यय का पैमाना देकर भारत के गरीबों का अपमान करने और मजाक उड़ाने के आरोप लगा रहे थे। प्रश्न उठता है कि क्या अब शहरों के लिए 47 रुपए प्रतिदिन और गांवों के लिए 32 रुपए प्रतिदिन व्यय का सरकारी पैमाना गरीबों का अपमान नहीं कर रहा है या उनका मजाक नहीं उड़ा रहा है?

मित्रों,अगर श्री नरेंद्र मोदी भी इसे अपमान या मजाक मानते हैं तो फिर रिपोर्ट की सुपुर्दगी के बाद एक पखवाड़ा बीत जाने के बाद भी उन्होंने या उनकी सरकार ने इसको क्यों नहीं नकारा है? क्या उनकी चुप्पी से जनता यह मतलब निकाले कि मनमोहन और मोदी में सिर्फ 32 और 47 का फर्क है यानि नरेंद्र मोदी ने इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है? गरीबों का मजाक मनमोहन ने भी उड़ाया था और अब मोदी भी उड़ा रहे हैं। हमें यह भी देखना होगा कि मुद्रास्फीति की दर को देखते हुए अगर तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट सही भी थी तो 47 रुपए की गरीबी-सीमा काफी कम है। मोदी चुनाव प्रचार के समय और प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार यह दोहराते आ रहे हैं कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार होगी। तो क्या गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाकर वे देश में गरीबों की सरकार स्थापित कर रहे हैं?

मित्रों,मैं यह नहीं कहता कि सरकार को गरीबों को मुफ्तखोर बना देना चाहिए लेकिन सरकार गरीबी को स्वीकार तो करे। संयुक्त राष्ट्र संघ कह रहा है कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों की एक तिहाई आबादी भारत में है। भारत सरकार को भी आय-वर्ग के आधार पर तीन श्रेणियों का निर्माण करना चाहिए। एक वे जो वास्तव में अमीर हैं,दूसरे वे जो अभावों में जी रहे हैं लेकिन हालत उतनी खराब नहीं है और तीसरे में वे लोग हों जो बेहद गरीब हैं। हमारे हिसाब से रंजराजन समिति ने जो व्यय-सीमा अपनी रिपोर्ट में दी है उसके अनुसार जीनेवाले लोग बेहद गरीब की श्रेणी में ही आ सकते हैं गरीब की श्रेणी में नहीं।

मित्रों,गरीबों को सब्सिडी पर तो मीडिया लगातार सवाल उठाती रहती है लेकिन उससे कई गुना ज्यादा जो सब्सिडी सरकार अमीरों को दे रही है उस पर चुप्पी साध जाती है। सब्सिडी निश्चित रूप से बुरी चीज है और सबसे बुरी चीज है उस सब्सिडी का गरीबों तक न पहुँच पाना यानि बीच में ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाना। अच्छा हो कि सरकार गरीबी को मापने के लिए तर्कसंगत पैमाना बनाए,सब्सिडी को गरीबों तक पहुँचाने की दिशा में आ रही रूकावटों को दूर करे और गरीबों को खैरात बाँटने के बदले रोजगार दे और इस काम को पहली प्राथमिकता दे तब न तो उसको गरीबों की संख्या को जबरन कम करके दिखाना पड़ेगा और न ही देश के गरीबों को पागलपनभरी,बेसिर पैर की  सरकारी आंकड़ेबाजी से खुद को अपमानित ही महसूस करना पड़ेगा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

20.7.14

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-----------झूठ का अंदाज़ ऐसा सच गच्चा खा गया
                                                                                                       ---------                                                                                                    अरविंद पथिक
आजकल चायवाले गर्व से भरे पर डरे हुये हैं।उनका डर वाज़िब भी है ।इतिहास बताता है कि हम ने जैसे ही गर्व किया मान किया हमारा मानभंग हो गया।यों भी जो कामनेता करने लगता है तो वह काम अछूत हो जाता है।जैसे टोपी लगाया हुआ नेता देखते ही लगता है बचो भाई  गया टोपी पहनाने वाला।कमल के फूल खिले तालाबढकवाने की नौबत  जाती है ।मेरी पडोसी ने तो घर में झाडू लगानी बंद कर दी।घुटनों के जोड जाम होने लगे तो हमारे डाक्टर ने कहा आप साइकिल चलाया करिये।मुझे क्या पता था कि डाक्टर की यह सलाह मुझे किसी पार्टी से जोड देगी।शाम को मुहल्ले के आठ दस संभ्रात लोगों ने दरवाजा खटखटाया और बहुत अदब के साथ मुझेनमस्ते कर दो मिनट बात करने की इज़ाज़त मांगी ।मैं हैरान कि इतनी इज़्ज़त तो मेरी वैध अपनी पत्नी ने भी मुझे तब नहीं दी थी जब मै वह मुझे कुछ भी समर्पितकरने से पहले 'त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेव समर्पयामिकहा करती थी। अतः सम्मान के बोझ से टूट जाने की अवस्था तक पहुंच चुके मैने लगभग हकलाते हुये क्क्यों नहीं क्यों नहीं कहते हुये सब को घर के भीतर स्थान ग्रहण करने को रास्ता दिया तो ऐसा लगा हर कोई सामीप्य को लालायित था और एक झटके में सोफे औरदीवान पर सभी विराजमान हो गये। मेरी आंखें बात करने की अनुमति मांगने वाले सज्जन के मुख मंडल पर टिक गयीं।उन्होने भूमिका बनाते हुये बोलना शुरू किया---"देखिये पथिक जी हम आपको बता नहीं सकते कि हमें आज कितनी प्रसन्नता है यह जानकर कर कि आप अपने आदमी हैं ।अब हमारी बडी मुश्किल आसान होगई।"मैं भौचक्का सा उनका मुंह देखे जा रहा था।तभी दूसरा धीरे से राज़दार अंदाज़ में बोला --देखो अब साफ साफ कहने मे कोई बुराई नहीं हम तो आपको खाकी निक्करवाला समझ रहे थे पर कल ही उन्होनें 'चाय स्टाल ' लगाया और आज ही आप 'साइकिलपर सवार नज़र आये तो मैं समझ गया कि आप लेखक हो कवि होप्रतीकात्मक ढंग से अपना विरोध दर्ज करा रहे हो।इसे कहते हैं बुद्धिजीवी।मैं बात का सिरा पकड पाता उससे पहले ही वे सज्जन फिर बोल पडे--" नेताजी ने आप जैसेलोगों को जोडने की बात की है और हम पार्टी लाइन पर चलते हुये यह चाहते हैं कि इन सांप्रदायिक शक्तियों को जड से ऊखाड फेंकने में आप हमारी मदद करें।आपलेखक है और हमारे अपने हैं तो चार छः धांसू नारे लिख दें।"मैने पीछा छुडाने की गरज़ से जी ज़रूर कह कर ज़रूरी काम से कहीं जाना है का बहाना बना कर किसी तरहसब को विदा कर राहत की सांस ली।टीवी आन किया तो देखा -पप्पू भैया कह रहे हैं----"पार्टी लाइन से हट कर नही बोलना है ।चाय वाले की पोल खोलना है पर इस तरहनही कि कल हर चाय वाला पार्टी कार्यालय मे ज़गह मांगने लगे।जैसे आप लोगों के वचन और प्रवचन हैं मुझे लगता है कि इलेक्शन के बाद मुझे भी 'पप्पू टी स्टालकेलिये ज़गह तलाशनी होगी।तुम लोग मेरा फटूरे खराब करने पर तुले हो।वो भाषण लिखने वाले पंडित जी बहक गये कहने लगे आरक्षण हटाओ 'यूजलेसहै तो उधरअय्यर अंकल के पास खुद जूते पालिश करने का ठीया नहीं पार्टी कार्यालय में निककर वाले का 'टी स्टाल ' खुलवा रहे हैं।मुझे पप्पू पर दया आयी ।जो बात लोग 'आफ रिकार्ड ' कहते हैं वह बात ये लडका स्वीकार कर लेता है पर किसी ने ठीक ही कहा है कि भलमनसाहत काम ज़माना ही नही। हर ज़गह 'फेंकूहैं। 'घर में भुंजी भांगनही"हमारे यहां  गये लोहा मांगने।'स्टैच्यु आफ लिबर्टीदेखने का वीजा नहीं मिला तो लगे 'स्टैच्यू आफ यूनिटी ' बनाने।ज़रूर बनाओ भैया पर आम आदमी के लोहे केदम पर नहीं अपनी दम पर अपनी तो कमर भी ४० इंच की है 'फेंकनेमें क्या जाता है ? नापेगा कौन कि छाती ५६ इंच की है या 'छप्पन छुरीकी।ये साला आदमी यहां भीघुस आया बहुत नाक में दम कर रखा है इसने। मीडिया को ऐसा हाईजैक किया है कि अलकायदा वाले भी ट्रेनिंग के लिये 'मिसकालसे रज़िस्ट्रेशन करा रहे हैं।कुलमिलाकर ये पालिटिक्स है बडी कुत्ती चीज़ किसी को 'मान्यवरकहो तो 'बहन जीके आदमी।किसी को सम्मान के साथ 'आपकहकर बुलाओ केज़रीवाल के आदमी।'राम राम ' करो तो भाज़पाई और हाथ हिलाओ तो कांग्रेस (आई)अब हम करें तो करें क्या?हर ज़गह झूठ की जयतभी तो मैं कहता हूं--
झूठ का अंदाज़ ऐसा सच गच्चा खा गया,कई बुढ्ढों का करियर एक बच्चा खा गया।

लखनऊ की निर्भया की पाती देशवासियों के नाम-ब्रज की दुनिया

20-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। प्यारे देशवासियों,मैं एक और निर्भया जो अपनों की ही हवश से खुद को बचा नहीं सकी आपलोगों के नाम यह खत लिख रही हूँ। मैं कहीं बाहर से नहीं बल्कि आपलोगों की अंतरात्मा,अंतर्मन से ही आपलोगों को यह संदेश दे रही हूँ। मुझे जिन्दगी से बहुत-कुछ नहीं मिला लेकिन फिर भी मैंने अपने कर्त्तव्यों से कभी मुँह नहीं मोड़ा। विवाह के तत्काल बाद ही मेरे पति के गुर्दे खराब हो गए लेकिन मैंने हार नहीं मानी और उनको अपना एक गुर्दा देकर बचा लेना चाहा। मगर मेरा यह महान त्याग भी उनकी प्राण-रक्षा नहीं कर पाया और उन्होंने अंततः मेरे विवाह के कुछ ही साल बाद दम तोड़ दिया। वे पीजीआई,लखनऊ में काम करते थे और न जाने कितनों की जान अपनी सेवा के द्वारा बचाई थी लेकिन वे अपनी ही जान नहीं बचा सके।

प्यारे भाइयों और बहनों,फिर मैंने पीजीआई में ही नर्स की नौकरी कर ली और पति ने जो जनसेवा का काम अधूरा छोड़ा था उसे भरे मन से सारे भावों को छिपाते हुए मुस्कान के साथ पूरा करने में लग गई। 16 जुलाई तक मेरे ऊपर मेरे पति की निशानी 13 साल की बिटिया और 3 साल के बेटे की शिक्षा-दीक्षा और पालन-पोषण का भी भार था। 16 जुलाई को मुझे मेरी जान-पहचान के चार लड़के इमरजेंसी कहकर बुलाने आए। रात गहरा चुकी थी लेकिन मेरी करुणा ने मुझे रुकने नहीं दिया और मैं घर में अपने बेटे-बेटियों को जल्दी आ जाऊंगी कहकर निकल पड़ी। कार जब तहजीबों के शहर लखनऊ के सबसे बड़े अस्पताल पीजीआई से आगे बढ़ने लगी तब मैंने समझा कि मेरे साथ धोखा हुआ है। ठीक उसी तरह का धोखा जैसा धोखा कभी डाकू खड़क सिंह ने बाबा भारती के साथ किया था। मैंने उनसे कार रोकने को कहा तो उन्होंने मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी। इस बीच उनकी कार कई बार शहर के विभिन्न थानों से होकर गुजरी।

दोस्तों,मैं अब डरने लगी थी। मुझे लगने लगा था कि मेरे साथ ये लोग काफी बुरा करनेवाले हैं। मुझे लखनऊ के ... मुहल्ले के एक बंद स्कूल में ले जाया गया। स्कूल का दरवाजा बंद था इसलिए वे लोग मुझे टूटी हुई चारदिवारी से उठाकर भीतर ले गए। वहाँ सीमेंट से बने बेंच पर मेरे साथ उन्होंने वह सब किया जिसकी मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। वे मेरे अपने थे,मेरे परिचित थे और मुझे सिस्टर कहकर बुलाते थे फिर आप ही बताईए कि कोई अपनी सिस्टर यानि बहन के साथ बलात्कार करता है क्या? मैंने लगातार उनका विरोध किया जिससे नाराज होकर उन्होंने लाठी-डंडों से मेरी जमकर पिटाई की। डंडे से मेरे गुप्तांग को भी क्षतिग्रस्त कर दिया। मेरा सिर भी दो फाँक कर दिया जिससे मेरे गुप्तांग के साथ-साथ सिर से भी तेज रक्तस्राव होने लगा। मैं लगातार चिल्लाती रही लेकिन मुझे बचाने कोई नहीं आया। या तो मानव-समाज तक मेरी चित्कार पहुँची ही नहीं या फिर आपलोगों ने उसे सुनकर अनसुना कर दिया क्योंकि मैं आपके परिवार की नहीं थी। वे मुझे वहीं घायल अवस्था में छोड़कर भाग गए। दर्द और लगातार खून बहने से मुझे तेज प्यास लग रही थी मैं स्कूल के मैदान में स्थित चापाकल तक घिसटकर पहुँची क्योंकि अब मेरे भीतर खड़ा होने की ताकत नहीं बची थी। बाँकी सरकारी स्कूलों के चापाकलों की तरह वह चापाकल भी खराब था इसलिए मैं पानी नहीं पी सकी। फिर भी मैंने हार नहीं मानी और घुप्प अंधेरे में भी मैं कुल मिलाकर 80 मीटर तक घिसटती रही इस उम्मीद में कि मैं नजदीकी बस्ती तक पहुँच जाऊंगी और किसी तरह मेरे बच्चे पूरी तरह से अनाथ होने से बच जाएंगे। मैंने अस्पताल में अपनी सेवा से न जाने कितने बच्चों को अनाथ होने से बचाया था लेकिन आज मेरे बच्चे ही अनाथ होने जा रहे थे। अंततः मैं बेहोश होने लगी तब मुझे लगा कि मैं पूरी तरह से नंगी कर दी गई हूँ। मेरे कपड़े तो काफी दूर रह गए थे इसलिए मैं अपनी लाज को ढंकने के लिए जमीन की तरफ मुँह करके लेट गई और प्राण-त्याग दिया। तब शायद रात के दो बज रहे थे।

मेरे प्यारे देशवासियों,जो मेरे साथ हुआ आप ही बताईए कि उसके बाद कोई भी महिला क्या दूसरी महिला की इमरजेंसी में मदद करने की सोंचेगी भी? क्या ऐसे में देश की लाखों बहनों की जान पर खतरा नहीं बढ़ जाएगा? 16 दिसंबर से 16 जुलाई तक भारत में न जाने कितनी निर्भयाओं को बलात्कार के दर्द से गुजरना पड़ा और न जाने कितनी निर्भयाओं को सबूत छिपाने के लिए जान से मार दिया गया। मगर मेरा बलात्कार तो समाज द्वारा मेरी मृत्यु के बाद भी होता रहा। मैं दिन निकलने के बाद तीन घंटे तक नंग-धड़ंग पड़ी रही। पुलिसवाला हाथ में कपड़ा लिए खड़ा रहा,समाज मेरे नंगे मृत शरीर से नयनसुख प्राप्त करता रहा लेकिन किसी ने भी मुझ पर कपड़ा डालने की कोशिश नहीं की। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही देश है जहाँ पर दुर्गा और काली की पूजा की जाती है। मेरा अपराध क्या था? सिर्फ यही न कि मैं एक महिला थी। पुरुषप्रधान समाज ने हमें कभी भी आदर नहीं दिया। मूर्ति के रूप में हमारी पूजा की लेकिन वास्तव में हमें सिर्फ एक वस्तु समझा। मैं नहीं जानती कि मुझे मारने के बाद यह समाज मेरे बच्चों के साथ कैसा सलूक करेगा। क्या मेरी बेटी के साथ भी भविष्य में वही होनेवाला है जो 16 जुलाई को मेरे साथ हुआ?

मेरे प्यारे देशवासियों,हमारे देश के मर्दों को हो क्या गया है? उनमें क्यों पशुता ने प्रवेश कर लिया है? क्या कथित आधुनिकता और नंगेपन की वैश्विक आंधी हम नारियों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देगा? क्या फिर से मध्यकाल की तरह जाकी कन्या सुन्दर देखी ता सिर जाई धरि तलवार वाला युग आ गया है? फिर तो हम महिलाओं को जन्म लेते ही लड़कियों को मार देना होगा क्योंकि वह मौत मेरी मौत से तो कम कष्टकारी होगा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

18.7.14

काव्य गोष्ठी का लाईव रिकार्ड वीडियो |

साहित्य रसिक आदरणीय प्रिय दोस्तों,

मेरी नयी किताब, `मैं और मेरी कहानियां` के विमोचन कार्यक्रम के उपलक्ष्य में साहित्यालोक अहमदाबाद-गुजरात की ओर से कई नामी गीतकार-गज़लकार महानुभाव की उपस्थिति में आयोजित काव्य गोष्ठी का लाईव रिकार्ड वीडियो यहाँ उपलब्ध है । आप सभी की शुभकामना और आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ  पेश कर रहा हूँ । आशा है, आप इसका आनंद अवश्य उठाएंगे ।

https://www.youtube.com/watch?v=vnwUOdNEWLM&feature=youtu.be

 http://mktvfilms.blogspot.in/2014/07/mai-aur-meri-kahaniya-launch-function.html

धन्यवाद ।

मार्कण्ड दवे ।




16.7.14

`Mai aur Meri kahaniya` Launch function by Sahityalok Hindi Parishad



 Dear Friends,

My new Story-Book in Hindi, `Mai aur Meri kahaniya` Launch function by Sahityalok Hindi Parishad (Ahmedabad) 
At M. K. Audio-Video Recording Studio. 
Ahmedabad-Gujarat-India. 
On Dt:06 July 2014.

Markand Dave.

mdave42@gmail.com

http://mktvfilms.blogspot.in/2014/07/mai-aur-meri-kahaniya-launch-function.html

A disclaimer: The views expressed here are solely those of the author-Poet in his private capacity and do not in any way represent the views of the Video creator.






एफआईआर दर्ज करा के पछता रहा है पारस-ब्रज की दुनिया

16-07-2013,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,यूँ तो पूरे भारत की पुलिस के काम करने का अंदाज निराला है लेकिन हमारी हाजीपुर की पुलिस की तो कोई हद ही नहीं है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। इसी शुक्रवार को जब मैं हाजीपुर नगर थाना के बैंक मेन्स कॉलोनी स्थित अपने मकान पर मौजूद नहीं था तभी देर रात को मेरे पड़ोस में स्थित किराने की दुकान गुंजन किराना स्टोर में चोरी हो गई। चोर दुकान का ताला तोड़कर करीब 20 हजार रुपये की नकदी और सामान ले गए। मेरी दुकानदार से अच्छी बनती है इसलिए जब परसों सोमवार को मैं घर आया तो हालचाल लेने चला गया। दुकानदार पारस कुमार जायसवाल ने बताया कि उसने शनिवार 12 जुलाई को ही नगर थाने में आवेदन दे दिया था,सोमवार के हिन्दुस्तान में समाचार प्रकाशित भी हुआ लेकिन अभी तक नगर थाने की पुलिस का कहीं अता-पता नहीं है।

मित्रों,कल अहले सुबह पारस मेरे घर पर आया और बताया कि संभावित चोर नत्थू साह पिता-श्री दशरथ साह उसको एफआईआर वापस लेने की अन्यथा परिवार सहित हत्या कर देने की धमकी दे गया है वो भी अकेले में नहीं मुहल्ला के दस आदमी के सामने। बेचारे का डर के मारे बुरा हाल था। उसने बताया कि जबसे वह धमकी देकर गया है दुकान खोलने की हिम्मत ही नहीं हो रही। मैं गरीब आदमी दुकान न खोलूँ तो कैसे खर्च चले और कैसे जीऊँ? मैंने तत्काल नगर थाने में फोन किया तो उधर से जवाब आया कि देखते हैं। फिर सवा दस बजे के करीब वैशाली जिले के पुलिस अधीक्षक सुरेश प्रसाद चौधरी जी से शिकायत की कि सुस्ती की भी एक सीमा होती है चोरी हुए चार दिन बीत गए मगर पुलिस तो क्या उसकी परछाई तक का कहीं अता-पता नहीं है। उन्होंने भी कहा देखते हैं। फिर दिन ढला और शाम हो गई। चार बजे फिर से चौधरी जी को फोन लगाया तो उन्होंने केस नं. मांगा जो मैंने दे दिया-केस नं.-575/14 डेटेड-13-07-2014।

मित्रों,अब आज बुधवार दिनांक 16 जुलाई,2014 के डेढ़ बज रहे हैं लेकिन अभी भी हाजीपुर नगर थाने की पुलिस छानबीन करने नहीं आई है। दोस्तों,मैं पहले भी अर्ज कर चुका हूँ कि हमारी पुलिस रक्षक नहीं भक्षक है,शोषक है फिर ऐसी पुलिस किस काम की? हम क्यों उठा रहे हैं या उठाएँ ऐसे पुलिस-तंत्र का खर्च? दरअसल हमारी बिहार पुलिस तब तक टस-से-मस नहीं होती जब तक कि उसकी जेब गर्म न कर दी जाए। वह पीड़ित से भी रिश्वत लेती है और पीड़क से भी इसलिए हमने दारोगा का फुल फॉर्म दो रोकर या गाकर कर दिया है। यही कारण है,यकीनन यही कारण है कि कोई भी पीड़ित व्यक्ति या महिला चाहे मामला बलात्कार का ही क्यों न हो एफआईआर दर्ज करवाने से हिचकते हैं। जब चोरी की घटना के तत्काल बाद ही एफआईआर कर देने के बाद 5 दिन बाद तक पुलिस घटनास्थल पर नहीं पहुँचती है तो इससे तो अच्छा है कि नुकसान को चुपचाप सह लिया जाए। अगर कल पारस की संभावित चोर हत्या कर देता तो इसके लिए दोषी कौन होगा? क्या अब 5 दिन बाद पुलिस अगर आती भी है तो चोरी का सामान बरामद होगा? क्या पुलिस ने चोर को चोरी के सामान को ठिकाने धराने के लिए पर्याप्त समय नहीं दे दिया है? क्या पुलिस का यह भ्रष्ट और लचर रवैय्या नत्थू जैसे अपराधियों का मनोबल नहीं बढ़ा रहा है? सवाल बहुत हैं मगर उत्तर किसी का भी नहीं है। कौन देगा और कहाँ से मिलेगा जवाब?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

15.7.14

बेवजह की आक्रामकता कर सकती है खुद कांग्रेस का नुकसान-ब्रज की दुनिया

14-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अंग्रेजी में एक कहावत है कि आक्रमण ही रक्षण का सर्वश्रेष्ठ तरीका है परन्तु यह कहावत सिर्फ चुनावों के समय के लिए ही सत्य हो सकती है। लगता है कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानती। शायद उनका यह मानना है कि चाहे संघर्ष का समय हो या निर्माण का आक्रमण ही एकमात्र विकल्प हो सकता है। तभी तो जब यूपीए की सरकार सत्ता में थी तब भी देश का शुद्ध अंतर्मन से भारत-निर्माण करने के बदले कांग्रेस हमेशा इसी प्रयास में लगी रही कि कैसे विपक्ष के दामन को दागदार बना दिया जाए या दागदार साबित कर दिया जाए।
मित्रों,मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन से पूरी तरह से सहमत हूँ कि आप अपने बल पर सरकार तो चला सकते हैं लेकिन देश का निर्माण नहीं कर सकते। सोनिया गांधी इसी बात को समझ नहीं पाई या फिर समझ कर भी समझना नहीं चाहा इसलिए उनका भारत निर्माण का नारा महज नारा बनकर रह गया। कभी द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की जीत सुनिश्चित करवाने वाले चर्चिल को ब्रिटेन की जनता ने यह देखकर सत्ता से बाहर कर दिया था कि विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भी उनका मिजाज सेनानायकों वाला ही था शायद यही हाल वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों के समय से ही सोनिया गांधी का है। मेरी समझ से सोनिया जी की सबसे बड़ी परेशानी उनके पुत्र हैं जो वर्षों में भी कुछ भी सीख पाए। कदाचित् उनमें नेतृत्व क्षमता है ही नहीं और नेतृत्व क्षमता तो जियाले माँ के गर्भ से ही लेकर पैदा होते हैं उसे किसी के भीतर इंजेक्ट नहीं किया जा सकता। सोनिया जी को किसी दूसरे योग्य व्यक्ति को आगे लाना चाहिए और केंद्र सरकार के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार करना चाहिए अन्यथा क्या पता अगले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस दोहरे अंकों में भी नहीं पहुँच सके क्योंकि देश की जनता समझ चुकी है कि राहुल गांधी अयोग्य हैं और भविष्य में अगर देश के विकास की राह में मोदी सरकार के मार्ग में कांग्रेस किसी भी तरह से बाधक बनती है तो इसका दंड भी वही अकेली भुगतेगी।
मित्रों,कांग्रेस जब केंद्र में सत्ता में थी तब उसका फुलटाईम वर्क क्या था इसके बारे में हम पहले पाराग्राफ में बात कर चुके हैं। सत्ता से हटने के बाद भी उसके दुर्भाग्य से उसका रवैय्या वही है। सबसे पहले उसने बेवजह स्मृति ईरानी की पढ़ाई को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास किया फिर उस एक केंद्रीय मंत्री को बलात्कार के आरोप में लपेटना चाहा जिसको उसी की पार्टी की प्रदेश सरकार उसी मामले में कभी निर्दोष ठहरा चुकी है और अब पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के मामले में बिना किसी तथ्य के हो-हल्ला मचा रही है। शायद उसको लगता है कि इन बेतुके हमलों से जनता को विश्वास हो जाएगा कि इस सरकार और उसकी अपदस्थ हो चुकी सरकार में कोई फर्क नहीं है। हम जानते हैं कि वेद प्रताप वैदिक कभी नरेंद्र मोदी के नजदीकी नहीं रहे और लोकसभा चुनावों के दौरान तो उन्होंने कई बार उनका विरोध भी किया। यहाँ तक कि वे उनकी नजदीकी माकपा नेता सीताराम येचुरी और आप नेता अरविन्द केजरीवाल के साथ भी रही है फिर कांग्रेस क्यों वैदिक की रामदेव बाबा के साथ निकटता को लेकर हंगामा खड़ा कर रही है?
मित्रों,पत्रकार तो रोज सैंकड़ों लोगों से मिलता है। उसमें से कई अच्छे लोग होते हैं तो कई निहायत बुरे तो इसका यह मतलब नहीं हो जाता कि वह पत्रकार उसके गिरोह में शामिल हो गया। इतिहास गवाह है कि कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी जी के पति राजीव गांधी ने भी उस एलटीटीई प्रमुख प्रभाकरण के साथ मुलाकात की थी जिन पर बाद में उनकी ही हत्या करवाने का आरोप लगा तो क्या कांग्रेस बताएगी कि राजीव क्यों प्रभाकरण से मिले थे? क्या वे उनके यहाँ अपने बच्चों के लिए वर-वधु की तलाश कर रहे थे? फिर राजीव जी तो पत्रकार भी नहीं थे जबकि वेद प्रताप वैदिक देश के वरिष्ठ पत्रकार है। अगर कांग्रेस पार्टी यह समझती है कि वैदिक को कटघरे में खड़ा करने का मतलब है मोदी को कटघरे में खड़ा करना तो यह उसकी निरी मूर्खता है। देश की जनता अब इतनी बेवकूफ नहीं रह गई है कि कांग्रेस के चोर बोले जोर से की नीति को समझ नहीं पाए इसलिए कांग्रेस और सोनिया परिवार के हित में यही अच्छा होगा कि वह मोदी सरकार के काम-काज में बाधा डालने के बदले उसके साथ सहयोग करे,मुद्दों के आधार पर विरोध करे न कि विरोध के लिए विरोध करे और बेवजह की आक्रामकता से बचे। बिना बात के गाली-गलौज को भारत में शिष्टता नहीं अशिष्टता माना जाता है। एक बात और कि जब शीशे के घर में रहनेवाला व्यक्ति दूसरे के घरों पर पत्थर फेंकता है तो अंततः वह अपने ही हाथों खुद का ही नुकसान करता है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

14.7.14

बजट अच्छे हैं मगर आदर्श नहीं-ब्रज की दुनिया

14-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कहते हैं कि बजट को देखकर पता चलता है कि सरकार और देश की दशा और दिशा क्या है। जाहिर है कि 45 दिन पुरानी सरकार की दशा का अनुमान बजट से लगाना बेमानी होगा लेकिन दिशा का अनुमान तो हम लगा ही सकते हैं। चाहे मोदी सरकार का रेल बजट हो या आम बजट दोनों ही अच्छे हैं हालाँकि आदर्श नहीं हैं क्योंकि सरकार वोट बैंक को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। शायद इसलिए वित्त मंत्री बजट में जनता को कड़वी दवा तो नहीं ही दे पाए उल्टे मीठी दवा दे डाली।
मित्रों,जहाँ तक रेल बजट का सवाल है तो इसमें निश्चित रूप से रेलवे को भारत के विकास का ईंजन बनाने की क्षमता है। रेलवे के पास विशाल नेटवर्क और अधोसंरचना है और उसके आधुनिकीकरण पर अगर समुचित ध्यान दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी दुनिया की सबसे तीव्रतम यातायात सेवा उपलब्ध होगी। कौन नहीं चाहेगा कि पटना से दिल्ली एक ही दिन में चला भी जाए और अपना काम करके देर शाम तक घर वापस भी आ जाए? जो लोग गरीबों के लिए बुलेट ट्रेन के भाड़े को लेकर चिंता से मरे जा रहे हैं उनको यह तो पता होगा ही कि देश में बुलेट ट्रेन के आने के बावजूद भी सस्ते विकल्प मौजूद रहेंगे। रेलवे की सामान ढुलाई में भी सुधार हो बजट में इसका भी खास ख्याल रखा गया है और माल ट्रेनों के लिए अलग स्टेशन बनाने की परिकल्पना की गई है। इतना ही नहीं रेलवे का उपयोग सरकार महंगाई को कम करने के लिए भी करने जा रही है।

मित्रों,अगर आप आम रेल यात्री से पूछें कि वो रेलवे में कौन-से परिवर्तन चाहता है तो वह यही बताएगा कि ट्रेनों में भोजन की गुणवत्ता और ट्रेनों-स्टेशनों की साफ-सफाई का स्तर अच्छा होना चाहिए। यह बड़े ही सौभाग्य का विषय है कि इस बजट में इन समस्याओं के समाधान पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है। इसके साथ ही एक आम यात्री यह चाहता है कि ट्रेनों के विलंब से चलने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगनी चाहिए तो इसके लिए तो रेलवे का आधुनिकीकरण करना पड़ेगा और उसमें वक्त लगेगा। वैसे बुलेट ट्रेन और हाई स्पीड ट्रेनों को चलाने के लिए तो ट्रेन संचालन में आमूलचूल बदलाव तो करना पड़ेगा ही। यह हमारी अंग्रेजकालीन संचालन-प्रणाली का ही दोष है कि प्रत्येक साल सर्दी के दिनों में रेलगाड़ियों की गति को काठ मार जाता है और कई दर्जन महत्त्वपूर्ण गाड़ियों के संचालन को महीनों तक के लिए बंद कर देना पड़ता है जिससे यात्रियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
मित्रों,लेकिन फिर से वही सवाल उठ खड़ा होता है कि रेल बजट में जो प्रावधान किये गए हैं उनको धरातल पर उतारने के लिए पैसे आएंगे कहाँ से? जनता की जेब को तो पिछली सरकार ही लूट चुकी है इसलिए उसकी जेब से तो कुछ निकाल नहीं सकते तो क्या निजी कंपनियाँ सरकार की परियोजनाओं में अभिरूचि लेगी? अगर सरकार की नीति के साथ उसकी नीयत भी ठीक रही तो जरूर ऐसा संभव है इसलिए इस दिशा में पूरी तरह से निराश होने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।
मित्रों,जहाँ तक आम बजट का सवाल है तो इसमें भी रेल बजट की ही तरह पीपीपी पर ज्यादा जोर दिया गया है यानि पब्लिक पाइवेट पार्टनरशिप पर। आम बजट में सबसे ज्यादा जोर विनिर्माण क्षेत्र के विकास पर दिया गया है जिससे देश की जीडीपी तो बढ़े ही देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार भी मिले। देश का सबसे बड़ा क्षेत्र सेवा-क्षेत्र में विकास की रफ्तार एक तो संतृप्त हो चुका है और दूसरा यह कि उसमें रोजगार-सृजन की संभावना न के बराबर होती है। इसके लिए बीमा और रक्षा-क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दिया गया है। इसके साथ ही देश के कई क्षेत्रों में औद्योगिक गलियारों के निर्माण का भी प्रावधान किया गया है। 24 घंटे बिजली,नदियों को जोड़ने,कौशल विकास,सड़क-निर्माण,प्रधानमंत्री सिंचाई योजना,पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए कई सारी योजनाएँ,सीमावर्ती क्षेत्रों में रेल और सड़क निर्माण,महामना मालवीय के नाम पर नई शिक्षा योजना,गंगा सफाई और विकास योजना,सौ स्मार्ट सिटी निर्माण,मिट्टी हेल्थ कार्ड,2022 तक सबके लिए घर योजना,किसान टीवी चैनल की शुरुआत,हर राज्य में एम्स जैसी सुविधा देना,सबके लिए शौचालय,हर घर में बिजली पहुँचाने की योजना,किसानों को 7 प्रतिशत के ब्याज-दर पर ऋण,ई-वीजा प्रणाली,बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना,सुशासन के लिए धन का आवंटन आदि कई सारे ऐसे कदम बजट में प्रस्तावित किए गए हैं जो देश में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह भी है कि सरकार के हाथों में कुल जीडीपी का मात्र 2 प्रतिशत ही है इसलिए बिना निजी क्षेत्र और विदेशी निवेशकों की सहायता के बजट-लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहाँ मैं रेल और आम दोनों ही बजटों की बात कर रहा हूँ।

मित्रों,ऐसा होने के बावजूद भी मैं केंद्र सरकार की विनिवेश नीति से सहमत नहीं हूँ। मैं नहीं मानता कि सरकारी उपक्रमों को संचालन व्यावसायिक तरीके से नहीं किया जा सकता और उनमें सुधार लाकर उनको मुनाफे में नहीं लाया जा सकता फिर सरकारी हिस्सेदारी को बेचने या कम करने की क्या जरुरत है? आर्थिक सुधार का यह मतलब नहीं होता कि पूरे देश को राई से रत्ती तक को देसी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथों में दे दो बल्कि किसी भी लोक-कल्याणकारी देश में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में एक संतुलन बनाए रखना जरूरी है वरना लोक-कल्याणकारी राष्ट्र होने का क्या औचित्य है? निजी क्षेत्र तो हमेशा अपना मुनाफा देखता है और आगे भी देखेगा फिर वो क्यों लोक-कल्याण से क्यों कर वास्ता रखने लगा? देश को देशहित में प्राइवेट कंपनी की स्टाईल में चलाया तो जा सकता है लेकिन प्राइवेट कंपनियों को सौंपा नहीं जा सकता क्योंकि देश की जनता इस सच्चाई को कभी स्वीकार नहीं करेगी इस बात को केंद्र सरकार को अच्छी तरह से अपने जेहन में बैठा लेनी पड़ेगी।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)