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3.7.14

लघु कथा

वो निरभागे लोग

हरिलाल ने सारी उम्र मेहनत करने में ही काट दी। दो बच्चों को बड़ा आदमी बनाने और अपने आसियाना बनाने के सपने के सामने उसने अपने सारे शौक कुर्बान कर दिये। पचास के आसपास पहुंचा तो बेटी की शादी कर दी। बेटा इंजीनियर बन गया तो हरिलाल ने जीवन भर की कमाई से शहर के अंदर थोड़ी से जगह खरीद कर तीन कमरों का मकान खड़ा कर दिया। मकान छोटा ही सही लेकिन हरिलाल के लिए तो ताजमहल से कम न था। बेटे की नौकरी लगी तो उसकी भी शादी कर दी गई। बहू बेटा दूसरे शहर में रहते थे, सो घर में बूढ़ा हरिलाल और उसकी बीवी ही बची। इसलिए एक कमरा किराए पर दे दिया गया। इस उम्र में भी हरिलाल को अपना और बीवी की पेट भरने के लिए दिन भर मेहनत करनी पड़ रही थी। एक दिन बाजार से आते समय उसके किसी वाहन ने ऐसी टक्कर मारी कि हरिलाल फिर कभी नहीं उठ सका। लाश घर पहुंचा दी गई, लेकिन बेटे के देर रात पहुंचने के कारण शव का अंतिम संस्कार अगली सुबह करने का फैसला हुआ। मकान में जगह न होने के कारण हरिलाल के शव को पूरी रात घर के बाहर सड़क के किनारे रखा गया। जिस बेटे को बड़ा आदमी बनाने और ताजमहल खड़ा करने के लिए हरिलाल ने उम्र खपा दी, आखिरी रात उसकी लाश को उसी बेटे का न तो साथ ही मिला और न ही मकान की छत का साया।

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