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14.7.14

बजट अच्छे हैं मगर आदर्श नहीं-ब्रज की दुनिया

14-07-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कहते हैं कि बजट को देखकर पता चलता है कि सरकार और देश की दशा और दिशा क्या है। जाहिर है कि 45 दिन पुरानी सरकार की दशा का अनुमान बजट से लगाना बेमानी होगा लेकिन दिशा का अनुमान तो हम लगा ही सकते हैं। चाहे मोदी सरकार का रेल बजट हो या आम बजट दोनों ही अच्छे हैं हालाँकि आदर्श नहीं हैं क्योंकि सरकार वोट बैंक को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। शायद इसलिए वित्त मंत्री बजट में जनता को कड़वी दवा तो नहीं ही दे पाए उल्टे मीठी दवा दे डाली।
मित्रों,जहाँ तक रेल बजट का सवाल है तो इसमें निश्चित रूप से रेलवे को भारत के विकास का ईंजन बनाने की क्षमता है। रेलवे के पास विशाल नेटवर्क और अधोसंरचना है और उसके आधुनिकीकरण पर अगर समुचित ध्यान दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी दुनिया की सबसे तीव्रतम यातायात सेवा उपलब्ध होगी। कौन नहीं चाहेगा कि पटना से दिल्ली एक ही दिन में चला भी जाए और अपना काम करके देर शाम तक घर वापस भी आ जाए? जो लोग गरीबों के लिए बुलेट ट्रेन के भाड़े को लेकर चिंता से मरे जा रहे हैं उनको यह तो पता होगा ही कि देश में बुलेट ट्रेन के आने के बावजूद भी सस्ते विकल्प मौजूद रहेंगे। रेलवे की सामान ढुलाई में भी सुधार हो बजट में इसका भी खास ख्याल रखा गया है और माल ट्रेनों के लिए अलग स्टेशन बनाने की परिकल्पना की गई है। इतना ही नहीं रेलवे का उपयोग सरकार महंगाई को कम करने के लिए भी करने जा रही है।

मित्रों,अगर आप आम रेल यात्री से पूछें कि वो रेलवे में कौन-से परिवर्तन चाहता है तो वह यही बताएगा कि ट्रेनों में भोजन की गुणवत्ता और ट्रेनों-स्टेशनों की साफ-सफाई का स्तर अच्छा होना चाहिए। यह बड़े ही सौभाग्य का विषय है कि इस बजट में इन समस्याओं के समाधान पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है। इसके साथ ही एक आम यात्री यह चाहता है कि ट्रेनों के विलंब से चलने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगनी चाहिए तो इसके लिए तो रेलवे का आधुनिकीकरण करना पड़ेगा और उसमें वक्त लगेगा। वैसे बुलेट ट्रेन और हाई स्पीड ट्रेनों को चलाने के लिए तो ट्रेन संचालन में आमूलचूल बदलाव तो करना पड़ेगा ही। यह हमारी अंग्रेजकालीन संचालन-प्रणाली का ही दोष है कि प्रत्येक साल सर्दी के दिनों में रेलगाड़ियों की गति को काठ मार जाता है और कई दर्जन महत्त्वपूर्ण गाड़ियों के संचालन को महीनों तक के लिए बंद कर देना पड़ता है जिससे यात्रियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
मित्रों,लेकिन फिर से वही सवाल उठ खड़ा होता है कि रेल बजट में जो प्रावधान किये गए हैं उनको धरातल पर उतारने के लिए पैसे आएंगे कहाँ से? जनता की जेब को तो पिछली सरकार ही लूट चुकी है इसलिए उसकी जेब से तो कुछ निकाल नहीं सकते तो क्या निजी कंपनियाँ सरकार की परियोजनाओं में अभिरूचि लेगी? अगर सरकार की नीति के साथ उसकी नीयत भी ठीक रही तो जरूर ऐसा संभव है इसलिए इस दिशा में पूरी तरह से निराश होने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।
मित्रों,जहाँ तक आम बजट का सवाल है तो इसमें भी रेल बजट की ही तरह पीपीपी पर ज्यादा जोर दिया गया है यानि पब्लिक पाइवेट पार्टनरशिप पर। आम बजट में सबसे ज्यादा जोर विनिर्माण क्षेत्र के विकास पर दिया गया है जिससे देश की जीडीपी तो बढ़े ही देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार भी मिले। देश का सबसे बड़ा क्षेत्र सेवा-क्षेत्र में विकास की रफ्तार एक तो संतृप्त हो चुका है और दूसरा यह कि उसमें रोजगार-सृजन की संभावना न के बराबर होती है। इसके लिए बीमा और रक्षा-क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दिया गया है। इसके साथ ही देश के कई क्षेत्रों में औद्योगिक गलियारों के निर्माण का भी प्रावधान किया गया है। 24 घंटे बिजली,नदियों को जोड़ने,कौशल विकास,सड़क-निर्माण,प्रधानमंत्री सिंचाई योजना,पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए कई सारी योजनाएँ,सीमावर्ती क्षेत्रों में रेल और सड़क निर्माण,महामना मालवीय के नाम पर नई शिक्षा योजना,गंगा सफाई और विकास योजना,सौ स्मार्ट सिटी निर्माण,मिट्टी हेल्थ कार्ड,2022 तक सबके लिए घर योजना,किसान टीवी चैनल की शुरुआत,हर राज्य में एम्स जैसी सुविधा देना,सबके लिए शौचालय,हर घर में बिजली पहुँचाने की योजना,किसानों को 7 प्रतिशत के ब्याज-दर पर ऋण,ई-वीजा प्रणाली,बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना,सुशासन के लिए धन का आवंटन आदि कई सारे ऐसे कदम बजट में प्रस्तावित किए गए हैं जो देश में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह भी है कि सरकार के हाथों में कुल जीडीपी का मात्र 2 प्रतिशत ही है इसलिए बिना निजी क्षेत्र और विदेशी निवेशकों की सहायता के बजट-लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहाँ मैं रेल और आम दोनों ही बजटों की बात कर रहा हूँ।

मित्रों,ऐसा होने के बावजूद भी मैं केंद्र सरकार की विनिवेश नीति से सहमत नहीं हूँ। मैं नहीं मानता कि सरकारी उपक्रमों को संचालन व्यावसायिक तरीके से नहीं किया जा सकता और उनमें सुधार लाकर उनको मुनाफे में नहीं लाया जा सकता फिर सरकारी हिस्सेदारी को बेचने या कम करने की क्या जरुरत है? आर्थिक सुधार का यह मतलब नहीं होता कि पूरे देश को राई से रत्ती तक को देसी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथों में दे दो बल्कि किसी भी लोक-कल्याणकारी देश में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में एक संतुलन बनाए रखना जरूरी है वरना लोक-कल्याणकारी राष्ट्र होने का क्या औचित्य है? निजी क्षेत्र तो हमेशा अपना मुनाफा देखता है और आगे भी देखेगा फिर वो क्यों लोक-कल्याण से क्यों कर वास्ता रखने लगा? देश को देशहित में प्राइवेट कंपनी की स्टाईल में चलाया तो जा सकता है लेकिन प्राइवेट कंपनियों को सौंपा नहीं जा सकता क्योंकि देश की जनता इस सच्चाई को कभी स्वीकार नहीं करेगी इस बात को केंद्र सरकार को अच्छी तरह से अपने जेहन में बैठा लेनी पड़ेगी।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

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