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8.7.14

… और कंगाल होता गया देश ?

… और कंगाल होता गया देश ?    

एक परिवार का मुखिया अच्छा कमा रहा था। परिवार में सबकी जरूरतें पूरी हो रही थी।
धीरे -धीरेबिन जरुरी आवश्यकताएं भी पैदा होने लगी,परिवार का मुखिया भविष्य में
अच्छा कमा लेने कीआशा में चुपचाप खर्चे बढ़ाता गया ,अब उस घर में अनिवार्य
आवश्यकताओं की जगह विलासिता ने ले ली ,सब सदस्य गुलछर्रे उड़ाने लगे।
संचित धन भी ज्यादा समय तक साथ नहीं दे पाया तबआवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
उधार लेना पड़ा ,लोग आसानी से उधार दे दें इसके लिए दिखावे के खर्चे और बढ़ा लिये ,
देखते ही देखते कर्ज बढता गया। मुखिया अपने परिवार को वास्तविकतानहीं बता पाया
और ना ही कमाई के साधन बढ़ा पाया ,अब उसका समय नए साहूकार से कर्ज पाने के
तरीके ढूढ़ने में बीतने लगा ,काम सारा चौपट होने लगा। परिवार वालों की आवश्यकता
पूर्ति समय पर नहीं होने लगी तो सब उसे ताने देने लगे ,आखिर उसने एक उपाय ढूंढा
जिससे की सारी निष्फलता का ठीकरा उस पर नहीं फूटे। उसने सभी सदस्यों को बुलाया
और अपने बुढ़ापे का वास्ता देकर यह परिवार ज्येष्ठ पुत्र को सँभालने को कहा।
अगले दिन ज्येष्ठ पुत्र काम पर गया एक ही दिन में सभी मांगने वालों का तकादा हुआ।
परिवार की यथास्थिति समझ उसने उसी रात घर के सभी सदस्यों को फरमान सुना
दिया कि सभी अनावश्यक खर्चे अभी से बन्द कर दिए जायेंगे जो पुरुष काम नहीं करेगा
उसका खर्चा वह खुद उठायेगा। उसका यह फरमान सबको गलत लगा और सब मुखिया
के राज की तारीफ करने लगे।
   अगले दिन सभी ने मुखिया को फिर से व्यवस्था सँभालने को कहा ,मुखिया ने हामी भर
दी और सबको पूर्ववत सुविधाएँ देनी शुरू कर दी। कर्ज चुकाने के लिए खेत की जमीन को
अनुपयोगी बताकर बेच दी ,कुछ पैसे ब्याज के चूका दिए और कुछ से विलासिता बढ़ा ली ,
यह खेल वर्षो तक चलता रहा ,बाप दादा की बपोती बिकती रही मगर थोथे खर्चे बंद नही
हुए।
      इसी तरह के  दुष्चक्र में यह देश भी फंसा है।गरीब के नाम पर धन बाँटने की योजना
बनती है और धन लुटेरों की जेब में चला जाता है बस कुछ सिक्के जरूर उछाल दिए जाते
हैं जिसका अहसान वह हर पाँच साल में चुकाता रहा है। विगत साठ सालों में देश की
जनता का दिवाला निकलता गया ,गरीबी रफ़्तार से बढ़ती रही ,गरीब बढ़ते गये और
गरीबी हटाने वाले मालदार और रुतबे वाले बनते गये।
         

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