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25.10.14

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

पर उपदेश कुशल बहुतेरे 

एक बाबाजी जँगल में कुटिया बना के रहते थे। समीप के गाँवों से भिक्षा अर्जन
करके पेट भर लेते थे। बाबाजी समीप के गाँवों में प्रसिद्ध थे। गाँव वालो के दुःख
दर्द सुनते और उचित उपचार और सलाह देते। उनकी कुटिया पर दिन भर कोई
ना कोई भक्त अपना दुःख दर्द लेकर आता रहता। कोई बच्चे के निरोगी होने की
कामना से,कोई पालतू जानवर के बीमार हो जाने पर,कोई बिगड़े काम को
सँवारने की आशा से।

एक दिन सुबह सवेरे बाबाजी गाँव की ओर गये और गाँव वालो को खुद की बीमार
गाय का हाल बताया और ठीक होने का उपाय पूछा। गाँव वालो ने दूसरे गाँव के
जानकार के पास भेजा ,दूसरे ने तीसरे गाँव वाले जानकार के पास। एक गाँव से
दूसरे गाँव घूमते-घूमते बाबाजी थक गए इतने में एक किसान उधर से गुजरा।
बाबाजी को प्रणाम कर उसकी भैंस को भभूत से ठीक कर देने के लिए आभार
जताया और बाबाजी को वहाँ होने का कारण पूछा।

बाबाजी ने अपनी बीमार गाय के बारे में सुबह से गाँव-गाँव बिमारी के बारे में
जानकारी रखने वाले की खोज में घूमने की बात कही। उनकी बात सुन किसान
बोला -बाबाजी,आपकी भभूत से मेरी भैंस ठीक हो गयी तो क्या आपकी गाय
ठीक नहीं हो सकती ?

बाबाजी बोले -वो तेरी भैंस थी बेटे,मगर यह मेरी गाय है।

हम अपनी पीड़ा के बोझ तले दब जाते हैं। दूसरे का दुःख छोटा और खुद का बड़ा
समझने की फितरत है इंसान में। आप कहेंगे यह तो हर कोई जानता है,इसमें
नया क्या ?दूसरों को उपदेश देना सहज,सरल है क्योंकि उसमें "मेरा"या "मेरापन"
नहीं है। जहाँ मेरापन झुड़ा हो,वहां क्या करे,कैसे करें ?

जब दुःख स्वयं से जुड़ जाता है तो उसको दूर करने के लिए हम निष्णात व्यक्ति
से,अपने हितेषी के निर्णय से और परमात्मा की न्याय व्यवस्था से जुड़ जाये।
खुद की बुद्धि का संकटकाल में अधिक उपयोग ना करेंक्योंकि चिंतित मन कभी
भी सही निर्णय समय पर नहीं करता है।       

14.10.14

Indian AirForce Hidon 03

धार्मिक उत्सवों से समाप्त होती धर्मिकता ना केवल चिंता का विषय है वरन इसे पुर्नजीवित करने के प्रयास करना जरूरी है
आजकल यह देखने मे आ रहा है कि धार्मिक उत्सवों में से धार्मिकता विलुप्त होते जा रही है और ये सिर्फ उत्सव ही बच गये हैं।  सिवनी का दश्हरा ऐतिहासिक और पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध था लेकिन धीरे धीरे यह अपनी पहचान खोते जा रहा है। प्रशासन के लिये तो यह मुश्किल काम हो सकता है कि एक ही दिन में दो आयोजनों को कैसे संपन्न करायें? लेकिन क्या एक ही धर्म के दो कार्यक्रमों को एक साथ या कुछ आगे पीछे संपन्न नहीं करा सकते ? यदि ऐसा संभव हो जाये तो व्यायाम शालाओं में मुहुर्त में ही शस्त्र पूजन भी हो जायेगा और दशहरा भीं मुहूर्त में मन जायेगा तथा इसकी ऐतिहासिकता और प्रसिद्धि भी धीरे धीरे पुनः स्थापित हो जायेगी। महाराष्ट्र और हरियाणा के विस चुनावों में जिले के कुछ भाजपा नेताओं को भी अहम जिम्मेदारी दी गयी है। लेकिन कांग्रेस से टीम राहुल की हिना कांवरे ही गयीं हैं। इससे ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस अलाकमान की नजरों में जिले का राजनैतिक महत्व बहुत कम हो गया है। दीपावली के बाद नपा चुनावों को लेकर आचार संहिता लगने की संभावना है। इस बीच अध्यक्ष के लिये आरक्षण के लाट भी शायद डाल दिये जायेंगें और तब पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जावेगी।इसके बाद ही राजनैतिक दलों के साथ साथ सभी नेताओं की राजनैतिक सक्रियता भी दिखने लगेगी। 
धार्मिक उत्सवों में समाप्त होती धार्मिकता चिंता का विषय:-आजकल यह देखने मे आ रहा है कि धार्मिक उत्सवों में से धार्मिकता विलुप्त होते जा रही है और ये सिर्फ उत्सव ही बच गये हैं।  सिवनी का दश्हरा ऐतिहासिक और पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध था लेकिन धीरे धीरे यह अपनी पहचान खोते जा रहा है। पिछले कुछ सालों से यह देखने में आ रहा है कि जब पूरे देश में दशहरा मनाया जाता है तो उसके दूसरे दिन सिवनी में दशहरा मनाने का निर्णय ले लिया जाता है। इस साल भी कुछ ऐसा ही हुआ। इस कारण होता यह है कि गांव के लोग दशहरे के दिन आते हैं और निराश होकर लौट जाते हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं रहता कि शहर में आज नहीं ब्लकि कल मनाया जाने वाला हैं। ऐसे आयोजनों में यदि भटकाव आता है तो धर्म गुरु राह दिखाते हैं। कई साल पहले शहर में मां दुर्गा के मंड़पों में नौ दिनों तक ना केवल बेतुके फिल्मी गाने बजते थे ब्लकि कई स्थानों पर फूहड़ नृत्य भी हुआ करते थे। तब जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने यह कहा कि मां जगदम्बा के पंड़ालों में फिल्मी गीत नहीं बजना चाहिये औ फूहड़ नृत्य नहीं होना चाहिये ब्लकि जस और भजन बजना चाहिये ताकि धार्मिक वातावरण बने और दर्शक पूरे श्रृद्धा भाव से मां के दर्शन कर धर्म लाभ ले सकें। इसका यह असर हुआ कि आज शहर में ना तो कोई फूहड़ नृत्य होते है और ना ही फिल्मी गाने बजते है ब्लकि मां अम्बे के जस की गूंज पूरे शहर में भक्ति भाव का संचार करते हैं। इस साल भी पं. रविशंकर शास्त्री जी ने यह कहा था कि धर्मानुसार सभी पूजन पाठ मुहुर्त के हिसाब से होना चाहिये। लेकिन दशहरा एक दिन बाद मनाने का निर्णय ले लिया गया था। जानकार लोगों का दावा है कि ऐसा इसलिये होता है क्योंकि दुर्गा चौक के माता राज राजेश्वरी मंदिर के जवारे नवमी के दिन विसर्जन के लिये निकलते हैं। कई बार जब तिथियों के घटने के कारण दशहरा भी नवमी के दिन पड़ता है तो समस्या आती है। वैसे यदि देखा जाये तो सिर्फ सिंघानिया जी के मकान से स्व.महेश मालू के घर के सामने तक की कुछ मीटर की सड़क ही ऐसी कामन है जो दशहरे के जुलूस मार्ग और जवारे के मार्ग में शामिल रहती हैं। प्रशासन के लिये तो यह मुश्किल काम हो सकता है कि एक ही दिन में दो आयोजनों को कैसे संपन्न करायें? लेकिन क्या एक ही धर्म के दो कार्यक्रमों को एक साथ या कुछ आगे पीछे संपन्न नहीं करा सकते ? यदि ऐसा संभव हो जाये तो व्यायाम शालाओं में मुहुर्त में ही शस्त्र पूजन भी हो जायेगा और दशहरा भीं मुहूर्त में मन जायेगा तथा इसकी ऐतिहासिकता और प्रसिद्धि भी धीरे धीरे पुनः स्थापित हो जायेगी।
कांग्रेस में सिवनी का कम होता महत्व:-महाराष्ट्र और हरियाणा के विस चुनावों में जिले के कुछ भाजपा नेताओं को भी अहम जिम्मेदारी दी गयी है। जिले के भाजपा के के तीन पूर्व विधायकों डॉ. ढ़ालसिंह बिसेन और नरेश दिवाकर को महाराष्ट्र तथा नीता पटेरिया को हरियाणा में प्रभार दिया गया है। इसके अलावा नपा अध्यक्ष राजेश त्रिवेदी और पूर्व जिला भाजप अध्यक्ष सुजीत जैन भी महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार करने गये हैं। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद देश में विस के उप चुनावों में भाजपा को करारा झटका लगने के बाद ये चुनाव भाजपा के लिये प्रतिष्ठा  का प्रश्न बन गयें हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार है। इसी कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जरूरत से ज्यादा प्रचार को महत्व दे रहें हैं। जिसके कारण उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी है। ऐसे महत्वपूर्ण मिशन में जिले के भाजपा नेताओं को भी प्रभार मिलना काफी महत्वपूर्ण हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के लिये भी ये चुनाव महत्वपूर्ण हैं लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने जिले के किसी भी नेता को इन राज्यों में चुनाव में कोई जवाबदारी नहीं दी है।  और तो और टीम राहुल से भी सिर्फ बालाघाट लोस क्षेत्र की कांग्रेस उम्मीदवार रहीं विधायक हिना कांवरे कांग्रेस के प्रचार में महाराष्ट्र गयीं हैं। इससे ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस अलाकमान की नजरों में जिले का राजनैतिक महत्व बहुत कम हो गया है।
दिवाली के बाद लग सकती है नपा चुनाव के लिये आचार संहिताः-दीपावली के बाद नपा चुनावों को लेकर आचार संहिता लगने की संभावना है। इस बीच अध्यक्ष के लिये आरक्षण के लाट भी शायद डाल दिये जायेंगें और तब पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जावेगी।इसके बाद ही राजनैतिक दलों के साथ साथ सभी नेताओं की राजनैतिक सक्रियता भी दिखने लगेगी। वैसे तो वार्डों के आरक्षण के बाद से ही मोहल्लों में चुनावी रणवीरों ने अपने दांव पेंच दिखाने लगे है। हालांकि अभी किसी भी पार्टी ने अपने उम्मीदवार तय नहीं किये हैं लेकिन अपने अपने आकाओं के आश्वासन पर पार्षद बनने की उम्मीद रखने वाले नेताओं ने अपनी अपनी बिसात बिछाना चालू कर दी है। तब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भाजपा और कांग्रेस इस चुनाव में क्या रणनीति अपनाते है और किन मुद्दों को उठाया जाता है। इसके अलावा यह भी महत्वपूर्ण होगा कि सिवनी के निर्दलीय विधायक मुनमुन राय इस चुनाव में सीधे मैदान में उतरते हैं या फिर कोई और रणनीति बना कर किसी को लाभ पहुचाने और किसी को नुकसान करने करने की बिसात बिछाते है? राजनैतिक विश्लेषकों की इन्हीं सब पर पैनी नजर है जो चुनावों के परिणामों को प्रभावित करन वाली साबित होंगीं।“मुसाफिर” 
साप्ता. दर्पण झूठ ना बोले सिवनी
14 अक्टूबर 2014

एक बार फिर से वोट फॉर मोदी,वोट फॉर इंडिया-ब्रज की दुनिया

14 अक्तूबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। महाराष्ट्र और हरियाणा के मित्रों,एक बार फिर से गेंद आपके पाले में है,बाजी आपके हाथों में है। लोकसभा चुनावों के समय जिस तरह आपलोगों ने बाँकी देश के साथ मिलकर कदमताल किया उसके लिए हम आजीवन आपके आभारी रहेंगे। यह आपकी बुद्धिमानी का ही प्रतिफल है कि आज केंद्र में देश के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले व्यक्ति के नेतृत्व में सरकार सत्ता में है। केंद्र में आज मजबूर नहीं मजबूत सरकार है लेकिन यह सरकार अभी भी पूरी तरह से मजबूत नहीं है। वह इसलिए क्योंकि राज्यसभा में इसको बहुमत प्राप्त नहीं है और यह तो आप भी जानते हैं कि कोई भी विधेयक तभी कानून बनता है जब उसको राज्यसभा भी पारित कर दे।
मित्रों,हमारे संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है कि विधानसभा सदस्य ही राज्यसभा सदस्यों का चुनाव करते हैं। जाहिर है कि एनडीए को तभी राज्यसभा में बहुमत मिल सकेगा जब देश की सारी विधानसभाओं में उसका बहुमत हो। यह आप दो राज्यों के निवासियों का सौभाग्य है कि इस दिशा में पहला कदम उठाने का सुअवसर आपलोगों को मिला है। आपने लोकसभा में तो एऩडीए को मजबूत कर दिया आईए राज्यसभा में भी उसको मजबूती प्रदान करें जिससे कि वह सचमुच में मजबूत सरकार सिद्ध हो सके और उसको राज्यसभा में जया,ममता,माया और मुलायम जैसे भ्रष्टों और देशविरोधियों का मुँहतका न बनना पड़े। देश का भविष्य आपके हाथों में है। देश का भविष्य आपको पुकार रहा है। तो आईए दोस्तों,घर से निकलिए भारी-से-भारी संख्या में मतदान करिए-एक बार फिर से वोट फॉर मोदी,वोट फॉर इंडिया।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

13.10.14

कैसे कहूँ हैप्पी बर्थ डे वैशाली जिला?-ब्रज की दुनिया

13-10-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक जमाना था जब वर्तमान वैशाली जिला क्षेत्र में रहनेवाले लोगों को किसी भी काम के लिए हाजीपुर से 55 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर जाना पड़ता था। लोग सत्तू-चूड़ा-ठेकुआ लेकर निकलते और 15-15 दिन के बाद घर आते। कई लोग तो पैदल ही मुजफ्फरपुर का रास्ता नाप देते थे। रास्ते में अगर रिश्तेदारों का घर स्थित हो तो सोने पर सुहागा। दो दिन बुआ के घर ठहर लिया तो दो दिन दीदी के घर। इसी तरह कभी गोविन्दपुर सिंघाड़ा से मुकदमा लड़ने मुजफ्फरपुर का बार-बार चक्कर लगानेवाला एक युवक बार-बार के आने-जाने से इतना परेशान हो गया कि उसने मुजफ्फरपुर में अपना घर ही बसा लिया और उसका वही घर आज एक गांव बन गया है-कन्हौली का राजपूत टोला।
मित्रों,लोग लंबे समय तक मांग करते रहे कि उनको अलग जिला बना दिया जाए। आंदोलन हुए,धरना-प्रदर्शन हुआ और अंततः वह दिन आया 1972 में 12 अक्तूबर के दिन जब वैशाली को मुजफ्फरपुर जिला से अलग कर दिया गया और हाजीपुर को बनाया गया जिला मुख्यालय। अब लोगों को बार-बार मुजफ्फरपुर नहीं जाना पड़ता था। एक ट्रेन से आए अपना काम किया और फिर शाम की दूसरी ट्रेन से घर वापस हो गए। जिस इलाके में ट्रेन नहीं जाती वहाँ के लिए भी उसी कालखंड में बसें चलनी शुरू हो गईं। तब हाजीपुर एक कस्बा था आज महानगर बनने की ओर अग्रसर है। आज हाजीपुर में क्या नहीं है? आईआईएमएच है,नाईपर है,सीपेट है,कई उद्योग-धंधे हैं,महाविद्यालय हैं,कोचिंग हैं,आईटीआई हैं,ट्रेनिंग कॉलेज हैं और सबसे बढ़कर है पूर्व मध्य रेल का मुख्यालय। इनमें से अधिकतर हाजीपुर के हमारे सांसद रामविलास पासवान के प्रयासों का नतीजा हैं।
मित्रों,फिर भी कुछ तो ऐसा है जिसकी हमें कमी लग रही है और लगता है कि जैसे वही समय अच्छा था जब मुजफ्फरपुर हमारा भी जिला मुख्यालय हुआ करता था। हमारा आज का प्रशासन बेहद संवेदनहीन हो गया है। हाजीपुर में कई तरह के प्रशासनिक कार्यालय तो खुल गए हैं लेकिन वहाँ अब आम और निरीह जनता की सुनी नहीं जाती। वहाँ शरीफों को जलील किया जाता और चोरों की आरती उतारी जाती है। जो सड़कें पहले निर्माण के 10-10 साल बाद तक जस-की-तस रहती थीं आज साल-दो-साल में ही इतनी जर्जर हो जा रही हैं कि उन पर पैदल तक नहीं चला जा सकता। स्कूलों की बिल्डिंगों में अब पाँच साल में ही दरार पड़ने लगती है। पूरे जिले में कहीं भी पेय जलापूर्ति की समुचित व्यवस्था नहीं है,लगभग सारे-के-सारे सरकारी नलकूप बंद हैं,संत परेशान हैं और हर जगह चोरों का राज है। पुलिस का तो हाल ही नहीं पूछिए आज चोरी-डकैती होती है तो एक महीने बाद भी थानेदार आपका हाल पूछने आ जाएँ तो इसको उसकी मेहरबानी ही समझिए। पुलिसिया अनुसंधान का हाल ऐसा है कि ठीक नए साल के दिन थानेदार की थाने में घुसकर अपराधी हत्या कर देती है और पुलिस न तो हत्या में प्रयुक्त हथियार ही बरामद कर पाती है और न ही सहअभियुक्तों को गिरफ्तार ही कर पाता है और अंत में होता वही है जो इस अवस्था में होना चाहिए। मुख्य अभियुक्त शान से हाईकोर्ट से जमानत लेकर गांव लौटता है हाथी पर सवार होकर।
मित्रों,आज हमारे जिले की जो हालत है उसमें निश्चित रूप से दिन-ब-दिन भ्रष्ट से भ्रष्टतर और भ्रष्टतम होते जा रहे प्रशासन का भी काफी अहम योगदान है। आज पूरे वैशाली जिले में जिधर देखिए उधर अपराधियों का बोलबाला है। कभी हम गर्व करते थे कि हमारा जिला बहुत शांत जिला है। तब हमारे जिले में न तो लूट-मार थी और नक्सलवाद का तो कहीं नामोनिशान भी नहीं था। लेकिन क्या इस हालत के लिए सचमुच सिर्फ प्रशासन ही दोषी हैं? क्या हमारा अंतर्मन उतना ही शुद्ध है जितना कि हमारे उन पूर्वजों का था जिन्होंने इस जिले में एक-एक कर एक-एक गांव और एक-एक कस्बे को बसाया? कदापि नहीं। फिर जबकि सामाजिक,मानवीय और प्रशासनिक हालात दिन-ब-दिन बिगड़ते ही जा रहे हों तो आप ही बताईए कि मैं किस मुँह से कहूँ कि हैप्पी बर्थ डे माई डियर वैशाली डिस्ट्रिक्ट,मुझे तुम पर गर्व है?


(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

10.10.14

२६ इंच का हुआ  सीना
बात अधिक पुरानी नहीं हे अभी कुछ माह पहले जब लोकसभा के चुनाव नहीं हुए थे  बीजेपी और खासकर नरेंद्र मोदी जिस तरह से भाषण में   मनमोहन सरकार को पंगु और पाकिस्तान और चीन  को जनाब मुहतोड़ जवाब देने की बात कर रहे थे. चुनाव हुए जनता ने सिरमौर बनाया और मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा   दिया..सार्क देशो के राष्ट्राध्यक्ष को   अपने  राजतिलक में बुलाकर दुनिया में दमदारी का मेसेज देने   कोशिश की यह काफी हद तक कामयाब भी हुई. अभी सरकार और मोदी अपने हनीमून पीरियड में ही थे की पाकिस्तान ने वही पुरानी  चाले चलना शुरू कर दी. सीमा पर गोलीबारी भी बढ़ा दी.  सीमा से सटे गावों में लोग दहशत में आ गए ४ लोगो की जान भी चली गयी. इश्कि अब निंदा हुई तो मोदी शब ने जवाब दिया की सीमा पर जवाब बंदूके देती हे. और सब ठीक हो जाने की बात  कर रहे हे. चुनाव् से पहले जो मोदी  दहाड़े मर रहे थे पाकिस्तान और को करारा जबाव देने २६ की बात कर रहे थे अब  उन्हें साप क्यों सूंघ गाय. उनका ५६ इंच का सीना २६ का कैसे रह गया मोदी जी वादा करते हुए ये तारे तोड़ने जैसे कई वादे  चुके हे. ये वादे बे सपनो में ही कर सकते हे ऐसे में  उनके गले की फांस बने हुए हे. अगर चुनाव के समय  थोड़ा  होते तो  नहीं आती

8.10.14

रिश्ते के बीच एक श  श  श  होता है । आजकल बीजेपी ने शिवसेना के खिलाफ यही श अपना रखा है । पी एम मोदी कह रहे हैं वे शिव सेना के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे । शिव सेना के लोग बीजेपी के खिलाफ बोलते हुए झिझक तो रहे हैं लेकिन बोल कर रो भी रहे होंगे । दस सीट्स की ही तो बात थी । अब यदि मोदी लहर ने अपना असर दिखा दिया  तो क्या होगा ? लेकिन श के दोनों तरफ जो अक्षर बचे हैं वे रिते  या कह लें रीते से लगने लगे  हैं विशेषकर इन दोनों के सम्बन्ध में । आडवाणी जी को लगा कुछ तो बोला जाए वैसे भी मोदी सरकार में उन्हें वह पद दे दिया गया है जिसमे भ्रष्टाचार के मामले में वे जिस भी सांसद के खिलाफ कुछ करेंगे वही  उनके खिलाफ हो जाएगा और यदि कार्यवाही नहीं करेंगे तो मोदी जी को क्या जवाब देंगे ? उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि  मोदी का यह मायाजाल किसी मकड़जाल से कम  तो नहीं ही होगा । खैर , इधर अब समझ आने लगा है कि  शिवसेना भी क्यों मोदी के नाम का पी एम के लिए समर्थन करने से बचती थी । खैर , अब तो जो हो गया उसे भुगतना ही है । यह अफजल कौन है ? अब जो अफजल है तो फिर औरंगजेब कौन है ? मोदी क्या हैं शिवसेना की नजर में ? अफजल या औरंगजेब ? चुनाव क्योंकि बी जे पी लड़ रही है तो अफजल तो मोदी  हुए और यदि ऐसा तो क्या अमित शाह औरंगजेब हैं क्योंकि बी जे पी के औरंगजेब तो अमित शाह हैं । खैर , लेकिन यदि मोदी औरंगजेब हैं तो अमित शाह अफजल हैं ? तो शिवाजी को ज्यादा परेशानी अफजल से थी या औरंगजेब से ? निश्चित ही औरंगजेब से । तो फिर शिवसेना को ज्यादा परेशानी किस से है ? मोदी से या अमित शाह से ? तय कर लीजिये । दूसरे  का तो पता स्वतः चल जाएगा । एक अफजल वह भी था जिसके नाम पर बी जे पी को बेचारे  मनमोहन सिंह जी में भी औरंगजेब दिखाई देता रहा होगा  । लेकिन सोच रहा हूँ , यदि भाजपा के लोग अफजल या औरंगजेब हो गए तो ध्रुवीकरण की जरूरत बी जे पी अब भी समझेगी ? 

6.10.14

क्या बिहार नीतीश कुमार की निजी जमींदारी है?-ब्रज की दुनिया

6-10-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पिछले कुछ समय में बिहार की राजनीति ने जिस तरह से यू-टर्न लिया है आज से दो साल पहले कोई उसकी कल्पना तक नहीं कर सकता था। जो व्यक्ति कभी हमेशा दिन-रात मूल्यों और सिद्धांतों का राग अलापा करता था वही सबसे बड़ा अवसरवादी निकला। राम निकला तो था रावण से लड़ने के लिए लेकिन युद्धभूमि में जाकर उसने पाला बदल लिया और सीता (बिहार) अपने उद्धार की बाट ही जोहती रह गई। पहले उसने अपने उस गठबंधन सहयोगी को सरकार से निकाल बाहर कर दिया जिसके साथ मिलकर उसने 2010 का विधानसभा चुनाव लड़ा था। उसकी पार्टी को जो भी मत मिले थे वे अकेले उसकी पार्टी के नहीं थे बल्कि जनता ने दोनों पार्टियों को एक मानकर उसकी गठबंधन सरकार को बंपर बहुमत दिया था। फिर उस नीतीश कुमार को किसने यह अधिकार दे दिया कि वे अकेले की सरकार चलाएँ? जनता ने तो उनको गठबंधन सरकार चलाने के लिए मत दिया था। क्या बिहार नीतीश कुमार जी की निजी जमींदारी थी और है? अगर नहीं तो नैतिकता का तकाजा तो यह था कि वे गठबंधन तोड़ने के तत्काल बाद ही विधानसभा को भंग करके आम चुनाव करवाते।
मित्रों,नीतीश कुमार जी की बिहार और बिहार की जनता के साथ खिलवाड़ यहीं पर नहीं रुका। भाजपा को सरकार और गठबंधन से निकालबाहर करने के बाद नीतीश जी ने लगभग एक साल तक मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं किया और एक साथ उन सभी  विभागों सहित जो भाजपा के पास थे 18 विभागों के मंत्री बने रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि पूरे बिहार में अराजकता व्याप्त हो गई। सारे नियम-कानून की माँ-बहन होने लगी जिसका परिणाम यह हुआ कि नीतीश जी की पार्टी को बिहार में जीत के लाले पड़ गए। अगर नीतीश जी में थोड़ी-सी भी नैतिकता होती उनको लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद ही विधानसभा चुनाव करवाने चाहिए थे। लेकिन नीतीश जी ने एक बार फिर से बिहार को अपनी निजी जमींदारी समझते हुए मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और खुलकर जातीयता का गंदा खेल खेलते हुए एक निहायत अयोग्य महादलित को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया। इस तरह बिहार के साथ जानलेवा प्रयोग-पर-प्रयोग करने का अधिकार नीतीश कुमार जी को किसने दिया है? चिड़िया की जान जाए बच्चों का खिलौना?
मित्रों,जबसे बिहार में जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया है तबसे बिहार के शासन-प्रशासन ने जो थोड़ी चुस्ती थी वह भी जाती रही। अब आप बिहार पुलिस को घटना के समय या घटना के बाद लाख फोन करते रहें वह तत्काल घटनास्थल पर नहीं आती है जबकि वर्ष 2005 में जब जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार नई-नई आई थी तब पुलिस सूचना मिलते ही घटनास्थल पर हाजिर हो जाती थी और समुचित कार्रवाई भी करती थी। अब अगर आप बिहार में रहते हैं तो अपने जान व माल सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी-पूरी आपकी है। बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी में वह योग्यता है ही नहीं कि वे प्रशासनिक अराजकता को दूर कर सकें। वे तो बस विवादित बयान देते रहते हैं और इस बात का रोना रोते रहते हैं कि उनका जन्म छोटी जाति में हुआ है इसलिए लोग उनका मजाक उड़ाते हैं। पिछले कुछ समय में श्री मांझी ने इतने मूर्खतापूर्ण बयान दिए हैं कि इस मामले में उनके आगे बेनी प्रसाद वर्मा का कद भी बौना हो गया है।
मित्रों,यह तो आप भी मानेंगे कि इस प्रकार के अतिमूर्खतापूर्ण बयान वही व्यक्ति दे सकता है जो महामूर्ख हो। पुत्र-विवाहेतर संबंध विवाद,विद्यालय उपस्थिति विवाद,...... और अब पटना गांधी मैदान भगदड़ पर उटपटांग बयान कि इसमें गलती भीड़ की भी हो सकती है,.....। श्री मांझी किस तरह के मुख्यमंत्री हैं कि इतनी हृदयविदारक घटना के घंटों बाद तक घटना से पूरी तरह से बेखबर रहते हैं? और जब मुँह खोलते भी हैं तो मृतकों के परिजनों के जख्मों पर मरहम लगाने के बदले यह बोलकर कि गलती भीड़ की भी हो सकती है नमक छिड़कने का काम करते हैं। क्या श्री मांझी बताएंगे कि गलती किसकी थी उन दो दर्जन मासूम बच्चों की जिनके जीवन को खिलने से पहले ही पैरों तले कुचल दिया गया? उन बेचारों को तो अभी पता भी नहीं होगा कि गलती की कैसे जाती है या गलती शब्द का मतलब क्या होता है। क्या सिर्फ महादलित होने से ही किसी व्यक्ति में मुख्यमंत्री बनने की पात्रता आ जाती है?
मित्रों,बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के प्रयोगवादी पागलपन जीतनराम मांझी को बहुत बर्दाश्त किया मगर अब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा है। जो व्यक्ति एक ट्राफिक हवलदार तक बनने के काबिल नहीं था उसको नीतीश कुमार ने बिहार को दिशा देने का काम सौंप दिया? जब 1 ग्राम भी बुद्धि है ही नहीं तो श्री मांझी शासन कैसे चलाएंगे और इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे उठाएंगे? जाहिर है कि ऐसा कर पाना उनके बूते की बात नहीं है। हाजीपुर टाईम्स ने तब भी जब मांझी को बिहार के सीएम की कुर्सी दी गई थी अपनी सामाजिक व राजनैतिक जिम्मेदारी को निभाते हुए नीतीश जी को चेताया था लेकिन तब नीतीश जी ने जो कि एक वैद्य के बेटे हैं एक मरणासन्न रोगी की तरह हमारे रामवाण नुस्खे को नहीं माना था।
मित्रों,हमारा स्पष्ट रूप से यह मानना है कि नीतीश कुमार जी को देर आए मगर दुरुस्त आए पर संजीदगी से अमल करते हुए तत्काल बिहार में विधानसभा चुनाव करवा कर फिर से जनादेश प्राप्त करना चाहिए। बिहार की जनता को अगर उनके महाअवसरवादी महागठबंधन में विश्वास होगा तो वे दोबारा मुख्यमंत्री बन जाएंगे और अगर नहीं होगा तो विपक्ष की शोभा बढ़ाएंगे लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में बिहार को एक पागल,बुद्धिहीन के शासन से तो मुक्ति मिलेगी। इसके विपरीत अगर नीतीश जी श्री मांझी को हटाकर किसी दूसरे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो यह एक बार फिर से उनकी अनाधिकार चेष्टा होगी। जनता ने 2010 में उनको इसलिए बहुमत नहीं दिया था कि वे बिहार को चूँ-चूँ का मुरब्बा बनाकर रख दें बल्कि उनको बिहार के समग्र विकास के लिए वोट दिया था। वैसे भी लोकसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर वे बिहार के विकासपुरुष की अपनी जिम्मेदारियों से भाग चुके हैं लेकिन वे एक बिहारी होने की जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकते हैं। इसलिए बिहार का एक शुभचिंतक होने के नाते,एक बिहारी होने के नाते उनको अपने सारे प्रयोगों को विराम देते हुए बिहार में तत्काल विधानसभा चुनाव करवाना चाहिए वरना उनके 8 साल के सुशासन से पहले बिहार जहाँ से चला था अगले एक साल में उससे भी पीछे चला जाएगा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

2.10.14

स्वच्छता से पवित्रता की ओर

स्वच्छता से पवित्रता की ओर 

मानव या पशु हर कोई स्वच्छता पसन्द होता है भले ही पवित्रता पसन्द ना भी
करता हो। यह सत्य सार्वभौमिक है। फिर क्या कारण रहा कि जो आर्य पवित्रता
का संदेशवाहक था वह पवित्रता तो भुला ही मगर स्वच्छता भी भूलता चला गया।
आज हम लापरवाह और बेजबाबदार हो चुके हैं हमारी स्वच्छता खुद के शरीर तक
खुद के कमरे या मकान तक सिमित हो गयी है ,सार्वजनिक स्थान की हर जबाबदारी
चाहे वह रखरखाव की हो या स्वच्छता की,हम उसमे अपना कर्तव्य नहीं देखते ;
उसको प्रशासन का कर्त्तव्य मानते हैं।
    हम अपने घर का कूड़ा कचरा बाहर सड़क पर इसलिए भी बेहिचक फैंक
देते हैं कि सफाई कर्मचारी को काम मिलता रहे !!हमारी इस सोच के कारण सफाई
कर्मचारी भी कुण्ठित हो अपने काम के प्रति उदासीन हो जाता है क्योंकि वह जानता
है हर दिन ऐसे ही होना है।
    हम हवा,जल और पृथ्वी तीनों ही सम्पदा का दुरूपयोग करने में लगे हैं। बड़े पैसे
वाले जमकर प्रदुषण करते हैं जिसका कुफल निचे से मध्यम वर्ग पर सबसे ज्यादा
पड़ता है और हमारा पर्यावरण विभाग कुम्भकर्ण की नींद में रहता है या कभी कभार
खानापूर्ति करके चुप हो जाता है या अपनी जेब में सिक्के का वजन देख अनदेखी
करता रहता है।
    हम वर्षो से स्वच्छता पर राष्ट्र के धन को खर्च करके भी आज तक शून्य ही हासिल
कर पाये हैं ,क्यों ? यह प्रशासनिक अव्यवस्था है जो कटु सत्य है इसे मानकर दुरस्त
करने के लिए हमें जबाबदेही तय करनी पड़ेगी,कार्य के प्रति प्रतिबद्धता रखनी पड़ेगी।
    सड़को को टॉयलेट आम आदमी क्या चाह करके बनाता है ?नहीं ना। इसके पीछे
का कारण है सार्वजनिक जगहों पर टॉयलेट का अभाव। यह काम किसको करना था ?
क्या उस आम आदमी को जिसके पास पेट भरने तक का साधन नहीं है ?हम फैलती
जा रही गन्दगी के लिए उसे तब तक जिम्मेदार नहीं मान सकते जब तक हम हर
नागरिक की पहुँच तक टॉयलेट ना बनवा दे।
    हमारे पास कूड़ा निष्पादन की आधुनिक तकनीक का अभाव है। प्रशासन शहर का
कूड़ा या तो शहर की सीमा पर या समीप के गाँव के पास ढेर लगा देता है। क्या इसे
समाधान कहा जा सकता है ?
    स्वच्छता के लिए जरुरी है पवित्रता। पवित्रता मानसिक और आत्मिक विचारों में
भी झलकनी चाहिए और बाहर वातावरण में भी दिखनी चाहिये। कूड़ा -कचरा बाहर
फैलाने या पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने से पहले हमें खुद से प्रश्न करना चाहिए कि
क्या मुझे ऐसा करना चाहिये ? जब हम इस प्रक्रिया को शुरू करेंगे तो परिणाम भी
पायेंगे। आइये- हम केवल स्वच्छ ही नहीं पवित्र भारत के निर्माण के लिए स्वयं की
गन्दी आदतों को अभी से बदले और राष्ट्र निर्माण में सहयोगी बनें।