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18.1.15

पीके

शहीद भगत सिंह ने कहा था ‘‘आप किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करके देखिए लोग आपको अहंकारी कहेंगे।’’ सच ही कहा है, प्रायः लोग अपनी ‘लकीर के फकीर’ मानसिकता की परिधि से बाहर आते घबराते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि वे आना नहीं चाहते बल्कि बाहर आने के पश्चात् उन्हें अन्य कोई आसरा नज़र नहीं आता या कोई अन्य मान्यता नहीं मिलती। वे स्वयं को असहाय-असहज महसूस करते हैं। और कदाचित् होते भी हैं। कारण- अज्ञानता, निर्भरता एवं भय। अज्ञानता के कारण वे निर्भर है और निर्भरता के कारण भयभीत। वे प्रायः अगुवाई करने से घबराते हैं और अगर कोई पथप्रदर्शक मिल जाए तो बीच राह में उसके अदृश्य हो, धोखा देने, जो कि मानवीय प्रवृति है, उन्हंे भयभीत कर देती है। वे ग़लत भी नहीं हैं। अक्सर ऐसी राहें जटिल तो होती ही हैं और उन पर दृढ़ रहना उससे भी अधिक कठिन होता है। बहरहाल यहाँ बात है आमिर खान की फिल्म पीके के बहिष्कार की। यह विरोध वास्तव में किसी लतीफे से कम नहीं है। बिलकुल ऐसा, मानो एक दृृृष्टिबाधित कह रहा हो कि सूरज लाल नहीं काला है। वास्तव में उसके लिए सूरज काला ही है और यह कहना उसकी विवशता। परन्तु जो लोग इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं वे तो विवश नहीं हैं! फिर ये कैसी मानसिकता है? वस्तुतः जिन मुद्दों का विरोध किया जा रहा है वे तो फिल्म का हिस्सा भी नहीं है। विरोध है कि फिल्म हिन्दु विरोधी है और हिन्दु देवी-देवताओं का अपमान करती है। जबकि फिल्म में प्रत्येक धर्म के ‘‘ठेकेदारों’’ का विरोध किया गया है, न कि किसी धर्म विशेष का। यह फिल्म अंधविश्वास और धर्म का धंधा करने वाले दलालों को केन्द्रित करके बनाई गई है फिर वे चाहे किसी भी धर्म के हों। सच तो यह है कि हम सभी इन ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बनते जा रहे हैं। इन्हें अपनी दुकान के रहस्य खुलते प्रतीत हुए तो नचा दिया जन-समूह को विरोध करने के लिए। ये पारंगत हैं मानसिक पराधीनता का दुरुपयोग करने में। क्या ऐसा नहीं है? इस बात का दावा किया जा सकता है कि जो लोग इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं उनमें से अधिकतर ने तो यह फिल्म देखी भी नहीं होगी। तो भला क्यों कर रहे हैं विरोध? क्योंकि यह फिल्म एक मुस्लिम व्यक्ति ने बनाई है! यह तो कोई मुख्य वजह नहीं हो सकती! बॉलीवुड में हिन्दी फिल्मों का निर्माण किया जाता है, टॉलीवुड में तमिल एवं इसी प्रकार अन्य। कहीं भी मुस्लिमवुड का अस्तित्व नहीं है और न ही इस प्रकार धर्मविशेष का अस्तित्व होना चाहिए। तो भला इस फिल्म को धर्म विशेष के लिए कैसे बना सकते थे? किसी भी विषय का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत किया जाना विषय के साथ न्याय करना है। एक ओर तो हम धर्म-निरपेक्षता की बात करते हैं। ‘‘हम सब भारतीय हैं’’, के नारे लगाते हैं। दूसरी ओर किसी भी अनावश्यक विषय को धर्म-जाति से जोड़ देते हैं। किसी भी निर्माण के पीछे छुपी धारणा के स्थान पर निर्माता के धर्म को अधिक महत्त्व कैसे दिया जा सकता है? निर्माता द्वारा परोसी गई अश्लीलता दर्शकों एवं फिल्म की माँग के नाम पर सरलता से स्वीकार कर ली जाती है परन्तु वास्तविक एवं उपयोगी तथ्यों का विरोध मात्र इस आधार पर किया जाता है कि वे किसी धर्म से जुड़े हैं। निश्चित रूप से यह भावी पीढ़ी को भ्रमित करने का घृणित प्रयास है तथा सामाजिक दृष्टि से घातक भी है। इस फिल्म का एक बहुत सुंदर दृृश्य हमारी संकुचित मानसिकता एवं कुतर्कों पर कटाक्ष करता है। पीके पर आरोप था कि वह ईश्वर को नहीं मानता। उससे पूछा गया कि तुम ईश्वर को नहीं मानते? उसने कहा मानता हूँ। बिलकुल मानता हूँ। मगर उस ईश्वर को मानता हँू जिसने हम सबको बनाया न कि जिसे आपने बनाया। सही ही तो कहा पीके ने। मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे-चर्च इत्यादि में हमने अपने-अपने स्वार्थानुसार ईश्वर बनाए और अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार उन्हें पूजते हैं। हममें से ज़्यादातर लोग तो ईश्वर को इसलिए पूजते हैं क्योंकि उनके पूर्वज उनकी पूजा करते आ रहे हैं। यदि उनसे पूछा जाए कि उनके ईश्वर का इतिहास क्या है या उनके माता-पिता कौन थे तो वे इससे अनभिज्ञ है, पूर्णतः निरुत्तर हैं। आज की युवा पीढ़ी तो इतनी आधुनिक हो गई है कि उन्हें होली-दिवाली जैसे मुख्य त्योहारों को मनाने के कारणांे तक का ज्ञान नहीं है। हाँ! लेकिन वे मंदिर अवश्य जाते हैं क्योंकि उनके भगवान जो वहाँ हैं। हम सभी जानते हैं कि मंदिरों में बैठकर किस प्रकार की चर्चाएँ की जाती हैं और प्रत्येक व्यक्ति इस बात की आलोचना भी बहुत ऊँची आवाज़ में करता है परन्तु वे सभी अवसर पाते ही स्वयं भी यही सब करते हैं। सही कहा जाता है कि भाषण दूसरों को देने के लिए ही होते हैं। ख़ैर बात यह है कि क्या यह सच्ची श्रद्धा है? या मात्र दिखावा या आत्मसंतुष्टि? यहाँ पुन शहीद भगत सिंह की बात प्रासांगिक लगती है कि प्रचलन का विरोध सरलता से स्वीकार्य नहीं होता। परन्तु यह भी सत्य है कि प्रचलित कितनी ही प्रथाएँ अपनी निरंकुशता के कारण ही समाप्त होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी। सती प्रथा हो या विधवा विवाह प्रत्येक प्रथा के प्रति होने वाले विरोध के भी विरोध में लोग मान्यताओें और धार्मिक भावनाओं के आहत होने का राग अलापते आए हैं परन्तु अन्ततः उन्हें समाप्त होना ही पड़ा। आज समाज के बुद्धिजीवी इन विषयों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चर्चा का विषय बना रहे हैं। उनका आम आदमी को इन भ्रमजालों से मुक्त करने का प्रयास सरहानीय है। वास्तव में आम आदमी स्वयं भी कहीं न कहीं इन समस्त पाखंडों से उकता गया है। वह स्वयं भी इन निरर्थक बंधनों से मुक्त होना चाहता है परन्तु साहस नहीं कर पाता। 1947 में भारत स्वतंत्र भले ही हो गया हो परन्तु मानसिक स्वतंत्रता से अभी भी वह कोसों दूर है। इस पराधीनता के अधीन रहकर उन्नति संभव नहीं और यह भौतिक परतंत्रता से कहीं अधिक घातक भी है। एक सशक्त राष्ट्र के रूप में विश्वपटल स्वयं को स्थापित करने के लिए भारत को एक स्वतंत्र चिंतक होना अति आवश्यक है।

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