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15.5.15

''परलोक में सैटेलाइट'' की समीक्षा

व्यंग्य उपन्यास ''परलोक में सैटेलाइट'' हास्य व्यंग्य का जीवंत नायक है। इसके जरिए लेखक ने समाज के हर वर्ग को संबोधित किया है। गहन विज्ञान और मनोविज्ञान का इस्तेमाल नजर आता है। कथानक की शुरुआत ही बुंदेलखंड के एक ऐसे पात्र से होती है, जो अपनी कुर्सी बचाने और उसे जस्टीफाई करने के लिए अपने मातहतों को तौलता रहता है। व्यंग्य सरकारी दफ्तरान में ''साहबवाद'' को भी एड्रेस करता है। सबसे मौजू और महत्वपूर्ण व्यंग्य के भीतर छुपा वह विचार है, जिसमें लेखक दुनियाभर की स्पेस एजेंसियों के अलग-अलग मिशनों पर कटाक्ष करता है। वह यहां सार्वभौमवाद जैसे अतिगंभीर टाॅपिक पर भी पाठक से वार्तालाप सा करता हुआ हास्य अंदाज में चर्चा करता है।
भूखे देश में अरबों रुपये विफल सैटेलाइट पर खर्चने के बाद स्पेस एजेंसी के डायरेक्टर की राजनैतिक खुरफातों का व्यंग्य में जीवंत चित्रण है। गंभीर से गंभीर बात बेहद सरल और हास्य के जरिए ऐसे कर दी गई  है, जैसे पाठक से आमने-सामने तादातम्य बिठाकर बात की जा रही हो।
सैटेलाइट का परलोक से दृश्य भेजना। पृथ्वी के मानव समाज की प्रतिक्रियात्मकता अद्भुत है। कई बातें ऐसी हैं, जिनकी बहुत ढंग से व्याख्या की जा सकती है। कई नये शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। मुद्दों पर विस्तृत राय है।
व्यंग्य दो कारणों से जरूर पढ़े। पहला तो एक संपूर्ण व्यंग्य, जहां कहीं भी आपको गंभीर होने की जरूरत नहीं और एक बार भी बचकाना या हल्कापन नहीं लगेगा। दूसरा कारण इसकी शैली है। पाठक को कहीं भी उलझना नहीं पड़ता। एक पैरा सवाल खड़ा करता तो दूसरा ही पैरा जवाब दे देता है।
व्यंग्य की दो खामियां भी हैं। पहली तो यह अश्लील गालियों से गुरेज नहीं करता दूसरी इसमें किसी तरह की व्यावसायिकता की परवाह नहीं की गई। इससे प्रकाशक खोजने में दिक्कत हुई। वहीं  इतनी स्पष्टवादिता बरती गई है, कि कोई भी सरकारी पुस्तकालय इस विस्फोटक को अपने यहां रखने से भी गुरेज कर रहा है।

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