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23.7.15

जनसेवा में पगार क्यों?

डॉ. शशि तिवारी

जो घर फूंक आपना चले हमारे संग कबीर की तरह फक्कड़ बनना होगा यदि सही मायने में समाज सेवा का जुनुन है तो वर्ना धन्धे के तो अनेक रूप हैं। आज राजनीति समाज सेवा न रहकर केवल धन्धे का माध्यम भर रह गई है। कल तक फटे हाल घूमने वाला नेता चुनाव जीतते ही चंद महीनों में ही अपने को धनाढ्यों में आगे खड़ा कर लेता है। इस चमत्कार से जनता भी दांतों तले अपनी अंगुलियां न केवल दबा लेते है बल्कि चबाते भी रहते हैं। आज राजनीति में भी कार्पोरेट कल्चर आ गया है अर्थात् चुनाव में टिकिट बांटने/बेचने से लेकर सुनियोजित प्रबंधन के तहत चन्दा उगाई, अवैध खनन/कारोबार से अपने को मालामाल बनाने का गोरखधन्धा पूरी राजनीति बिरादरी में अमरबेल की तरह फल-फूल रहा हैं।



आज चुनाव लड़ना भी गरीबों/ईमानदार लोगों के बूते के बाहर है। राजनीति में धनबल के साथ बाहुबल प्रमुख योग्यता बन गया है। फिर बात चाहे पंचायतों, नगरीय निकाय, विधानसभा एवं संगठन के जनप्रतिनिधियों की हों।  समाज सेवा आज नौकरी में बदल गई और कर्मचारियों/अधिकारियों की तरह हर बार सैलरी बढाओ आम बात में जुट गए ये हैरानी वाली बात ही तो है। सांसदों की देखा-देखी विधायक नगरीय निकाय एवं पंचायत जनप्रतिनिधि की सैलरी की मांग में जुट गए है।

सांसदों का वेतनमान हमेशा न केवल सुर्खियों में रहा बल्कि मुल्क की जनता के पैसों पर ऐश, फ्री, सुविधा कहीं न कहीं जनमानस में विद्रोह को जन्म दे रही है।  वैसे सैलरीज एवं अलाउंसेस आफ मिनिटर्स एक्ट 1952 के तहत् सांसदों के वेतन एवं भत्तों का निर्धारण होता है।  सन् 1954 से 2000 अर्थात् 46 सालों में सांसदों का मूल वेतन 167 फीसदी बढ़ा वही 2000 से 2010 के बीच बढोत्तरी अर्थात् 1150 फीसदी बढ़ा। इन सबमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि वे स्वयं ही मनमाने ढंग से न केवल बढोत्तरी कर लेते है बल्कि सुविधाओं को भी बढ़ा लेते हैं जो कि तानाशाही/मालिक बनने से कम नहीं है।

यहां यक्ष प्रश्न उठता है जब वेतन भत्ते ही लेना है तो क्यों नहीं स्वतंत्र वेतन आयोग की मांग करते? क्यों नहीं कर्मचारी/अधिकारियों की तरह कोड ऑफ कंडक्ट की मांग करते? क्यों नहीं चुनाव लड़ने के पहले पुलिस वेरीफिकेशन की मांग करते? कर्मचारी/अधिकारी सरकार के सेवक है और जनप्रतिनिधि जनता के सेवक दोनों को ही सरकार के खजाने से तनख्वाह मिलती है तो नियमों/कोड ऑफ कंडक्ट के बंधन में क्यों नहीं बंधना चाहते?

आज अधिकांश सांसद करोड़पतिसे लेकर अरबपति है फिर गरीब के पैसे का वेतन क्यों? फ्री सब्सिडी जैसी सुविधा क्यों? पेंशन क्यों,  जब एक सरकरी कर्मचारी/अधिकारी को 20-30 साल की सेवा के बाद पेंशन की पात्रता बनती है तो इनके शपथ लेते ही पेंशन क्यों? राजनीति में पेंशन की अवधारणा ही गलत है। समाजसेवा स्वेच्छा से करने आये है, नौकरी करने नहीं? इनके ठाठ बांट देखों तो लगता ही नहीं है ये गरीब जनता के जनप्रतिनिधि है। ये राजसी ठाठ-बांठ सुख सुविधा ने इनको न केवल जनता से दूर कर दिया बल्कि अहंकार को भी जन्म दिया है।  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से तो गैस सब्सिडी न लेने के लिए प्रेरित करते है अच्छी बात है लेकिन क्यों नही ये अपील अपनी पार्टी के सभी सक्षम नेताओं/जनप्रतिनिधियों से करते? करोड़पति/अरबपति, सांसद/विधायक क्यों नही पगार लेने से मना करते है, क्यों नहीं प्रधानमंत्री फण्ड में अधिकाधिक दान देने को  प्रेरित नहीं करते? सांसद विधान सभाएं जब पूरी चलती ही नहीं तो फिर पगार क्यों?

क्यों नहीं सदा जीवन, उच्च विचार की अवधारणा को अपनाते? क्यों नहीं भ्रष्ट/अपराधियों को राजनीति में आने से रोकते? यदि ऐसा ऐसा करते तो जनप्रतिनिधि/सांसद, विधायक, नगरीय निकाय/पंचायत सभी के लिए जनता खुद आगे बढ़ अच्छी पगार की मांग करेगी जिस दिन यह दिन आयेगा समझ लीजिए राम राज आ गया, गांधी-दीनदयाल उपाध्याय जीवित हो गए।

शशि फीचर.ओ.आर.जी.
लेखिका सूचना मंत्र पत्रिका की संपादक हैं.
मो. 9425677352

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