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12.7.15

फर्जीवाडे के सहारे उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति तक का सफर


मध्यमा से लेकर स्नात्कोत्तर तक की अंकतालिकाओं व प्रमाण पत्रों में संदेह... उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलपति  प्रो महावीर अग्रवाल के शैक्षणिक अभिलेखों पर छाया कुहांसा सूचना अधिकार अधिनियम से प्राप्त अभिलेखों से छंटाता दिख रहा है। हालांकि राजभवन के कडे रुख के बाद ही अपीलकर्ता को उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलपति के सभी शैक्षणिक दस्तावेजों तो मिल गये हैं लेकिन उत्तराखंड क्रांतिदल , संस्कृत प्रशिक्षित बेरोजगार संघ व आरटीआई कार्यकर्ताओं की राज्यपाल से की गई शिकायत पर फिलवक्त तक कोई कार्रवाई अम्ल में नहीं हो पाई है। इसको लेकर जल्दी ही आंदोलन की रणनीति को अंजाम दिया जा सकता है। पूरे प्रकरण पर प्रमुख राजनीतिक दलों की खामोशी इन दलों की नीयत पर सवाल खडा कर रही है। संस्कृत शिक्षा मंत्री ने जरूर कार्रवाई का आश्वासन दिया है लेकिन उनकी कार्यशैली को देखते हुए इसकी उम्मीद कम ही है।



बताते चले कि इस संदर्भ में एक प्रतिनिधिमंडल ने  13 मई 2015 को सारे साक्ष्यों के साथ एक ज्ञापन प्रेषित किया था।  गौरतलब है कि उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो महावीर अग्रवाल की अंकतालिकाएं व प्रमाण पत्रों की छायाप्रति राजभवन के दवाब में अपीलकर्ता को दी गई लेकिन गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय हरिद्वार प्रशासन ने सूचना उपलब्ध नहीं कराई। महावीर अग्रवाल के शैक्षणिक दस्तावेज गुरूकुल कांगडी के सूचना अधिकारी ने इसलिए उपलब्ध नहीं कराये क्योंकि प्रो महावीर अग्रवाल ने उनके शैक्षक्षिक अभिलेख उपलब्ध न कराने का लिखित अनुरोध सूचना अधिकारी से किया था। हालांकि इसी तरह की सूचना जब राजभवन से मांगी गई तो राजभवन के सूचना अधिकारी ने संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलसचिव को सूचनाएं देने के निर्देश दिये थे लेकिन कुलसचिव ने शैक्षणिक अभिलेखों के वजाय कुलपति का जीवन वृत उपलब्ध कराया। प्रथम अपील की सुनवाई के बाद जब राजभवन सचिवालय ने कडा रूख अपनाया तो तब जाकर अपीलकर्ता को तीन माह बाद जानकारियां उपलब्ध कराई गई।

आरटीआई कार्यकर्ता श्याम लाल ने बताया कि सूचनाएं उपलब्ध न कराये जाने पर उनके द्वारा राजभवन के प्रथम अपीलीय अधिकारी के समक्ष अपना पक्ष दिनांक 11 मई 2015 को रखा। उन्होंने मांगी गई सभी सूचनाओं को उपलब्ध कराने का आग्रह किया। लेकिन राजभवन सचिवालय भी सूचनाएं नहीं दे पाया। सुनवाई के बाद राजभवन सचिवालय ने उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलसचिव को अबिलंव सूचनाएं उपलब्ध कराने के निर्देश दिये थे। प्रो महावीर अग्रवाल उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलपति होने के अलावा इस संस्था के अपीलीय अधिकारी भी हैं। ऐसे में उन्हें स्वयं पहल करते हुए अपने सभी दस्तावेज उपलब्ब्ध कराने चाहिए थे, लेकिन जिस प्रकार से सूचनाएं नहीं दी जा रही है उससे उनके शैक्षणिक अभिलेखों को लेकर संदेह पैदा हो रहा है।

उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार प्रो अग्रवाल ने सन 1966 में आर्ष महाविद्यालय, झज्जर , रोहतक , हरियाणा से मध्यमा यानि हाईस्कूल की परीक्षा पास की । इसके दो साल बाद ही इन्होंने 1968 में शास्त्री यानि बीए की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर दी। इतना ही नहीं इसके साल बाद 1969 में व्याकरणाचार्य की उपाधि भी हासिल कर ली। आचार्य उपाधि की अंकतालिका में प्रथम खंड के अंकों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। गौरकरने वाली बात यह है कि कुलपति ने आठ वर्षीय पाठ्यक्रम को महज चार सालों में पूरा कर लिया । जिस महाविद्यालय से कुलपति महावीर अग्रवाल ने प्रथमा से लेकर आचार्य पर्यनत शिक्षा ग्रहण की उसकी मान्यता को लेकर भी पेंच है। संस्था की नियमावली के अनुसार संस्था का पंजीकरण 5 सितम्बर 1968 को हुई थी। जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार श्रीमद् दयानन्द आर्ष विद्यापीठ को 30 अगस्त 1969 को गुरूकुल कांगडी विवि, हरिद्वार से संबद्धता मिली थी। मजेदार तथ्य यह भी है कि प्रो साहब ने बी.ए. से पहले ही एम.ए कर दिया था। सूचना के तहत उपलब्ध कराये गये दस्तावेजों में कुलपति ने संवत् 2021 में एम.ए यानि आचार्य व संवत् 2025 में शास्त्री परीक्षा पास की ।

इस प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि आचार्य उपाधि हासिल करने के बाद सन् 1972 में इन्होंने उपाधि महाविद्यालय पीलीभीत में प्रवक्ता पद पर नियमित नियुक्ति पाई। सबसे बडा सवाल यह है कि जब इनकी मध्यमा की अंकतालिका व प्रमाण पत्र सन् 1976 में निर्गत हुए तो कुलपति ने उपाधि महाविद्यालय में कौन से शैक्षणिक दस्तावेज दिखाकर नियुक्ति पाई। यदि राजभवन उच्च स्तरीय जांच कराये तो प्रो महावीर अग्रवाल के उत्तराखंड संस्कृत विवि के कुलपति तक के सफर के फर्जीबाडे का खुलाशा हो सकता है। गेंद राज्यपाल के पाले में है अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्यपाल इस मसले पर क्या रूख अपनाते हैं।

पाठ्यक्रम इस तरह है
श्रीमद् दयानन्द आर्ष विद्यापीठ, झज्जर, हरियाणा की पत्रिका में दी गई जनकारी के मुताबिक विद्यालय का पाठ्यक्रम महावीर अग्रवाल द्वारा उपलब्ध कराई गई अंकतालिकाओं व प्रमाणपत्रों से मेल नहीं खता है । नियमावली में मध्यमा , हायर सेकेंडरी तीन सालों का, शास्त्री पाठ्यक्रम तीन वर्षों का तथा आचार्य दो वर्षीय पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया है। कुलपति की शैक्षणिक योग्यताओं पर सवाल यहीं से खडा हो रहा है। असल में महावीर अग्रवाल पुत्र तारा चन्द्र ने मध्यमा की परीक्षा सन् 1966 में उत्तीर्ण की। इसके दो साल बाद 1968 में तीन साल की शास्त्री परीक्षा भी दो सालों में पास कर दी। आश्चर्यजनक तो यह है कि इसके एक साल बाद सन् 1969 में कुलपति ने आचार्य की उपाधि भी हासिल कर ली। यदि महाविद्यालय की नियमावली की माने तो आठ सालों में यानि 1971 में ये उपाधियां पूर्ण होनी थी।

गुरूकुल कांगडी विवि में भी सवालों से धिरे रहे प्रो महावीर अग्रवाल
केवल शैक्षिक योग्यता पर ही सवाल नहीं उठ रहा बल्कि उनकी कार्यशैली पर भी सवाल उठते रहे हैं। गुरूकुल कांगडी का कुलसचिव रहते हुए उन्होने न केवल अपने पुत्र को यांत्रिक विभाग में प्रवक्ता पर नियुक्ति दिलाई बल्कि कुलसचिव पद पर बैठने के तीन महीनों में ही प्रोफेसर पद पर अपनी पदोन्नति भी कर दी। प्रो महावीर ने गुरूकुल महाविद्यालय से जुडे भूमि विवाद में गढ़वाल कमीश्नर कोर्ट को भी अपनी कुलसचिव पद पर नियुक्ति से संबधित गलत जानकारी दी। गुरूकुल महाविद्यालय भूमि विवाद में इनके द्वारा गढवाल कोर्ट कमीश्नर को अपने स्पथ पत्र में यह लिखकर दिया कि उनकी नियुक्ति गुरूकुल कांगडी विवि के कुलसचिव पद पर 9 अप्रैल 2001 में हुई है, जबकि इनकी नियुक्ति 20 मई 2000 को हुई थी। कुलमिलाकर इन्होंने न्यायालय को भी अंधेरे में रखा। इतना ही नहीं कुलसचिव पद पर बैठने के बाद महावीर अग्रवाल ने यांत्रिक विभाग में प्रवक्ता पद पर अपने पुत्र रजत अग्रवाल को नियमित नियुक्ति दे दी। चौकाने वाली बात यह है कि इस पद के लिए विज्ञप्ति स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित नहीं कराई गई। इस संबध में सूचना अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में अपीलकर्ता को सही जानकारियां उपलब्ध नहीं कराई गई। सूचना में साक्षात्कार में शामिल विशेषज्ञों के नाम तक उपलब्ध नहीं कराये गये। विज्ञप्ति से संबधित जानकारी में बताया गया कि कानपुर के रोजगार समाचार में विज्ञप्ति प्रकाशित की गई थी। हालांकि अपीलकर्ता को अखबार की प्रति नहीं दी गई। बात इससे भी आगे है। गुरूकुल कांगडी की 198 वीघा भूमि बेचने से संबधित विवाद के दौरान कुलसचिव पद पर महावीर अग्रवाल ही थे। इससे संबधित जांच का क्या हुआ इसकी जानकारी गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय प्रशासन के पास नहीं है।  मिलीभगत के इस खेल की उच्च स्तरीय जांच कराई जाय तो कई चेहरे बेनकाव हो सकते हैं।

संस्कृत विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में अधिकांश पदों पर सेटिंग
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार में प्रोफेसरों,एसोसिएट प्रोफेसरों व एसिस्टेंट प्रोफेसरों के 40 पदों पर होने वाली नियुक्ति में अंदर खाने सेंटिग होने की चर्चाएं जोरों पर हैं। सूत्रों पर भरोसा करें तो अधिकांश पदों पर अपने चेहतों को बैठाने की कवायद को अंतिम रूप दे दिया गया है। हाल यह है कि आरक्षित पदों को भी सामान्य करने का जोखिम उठाने में भी देरी नहीं की गई। संस्कृत साहित्य का पद आरक्षित था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना विज्ञप्ति प्रकाशित किये ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस पद को 22 अप्रैल को जारी विज्ञप्ति में सामान्य कर दिया है। इस संदर्भ में आवश्यक दस्तावेजों के साथ पूर्व उच्च सेवा कर्मी बृजमोहन शाह ने राज्यपाल को लिखित शिकायत कर उचित कार्रवाई करने की मांग की है। 18 मई 2009, को प्रकाशित विज्ञप्ति में साहित्य एवं नव व्याकरण विषय में एसिस्टेंट प्रोफेसरों के केवल एक ही पद थे, लेकिन शासन से अनुमति के बाद शासनादेश सं 73/गगपअ.4/2010 -6(5) 2010 दिनांक 6 अप्रैल 2010 द्वारा साहित्य विभाग हेतु दो पद एवं नवव्याकरण हेतु दो पद स्थानांतरित किए जाने की स्वीकृति मिली थी। इस प्रकार पूर्व सृजित पद सहित कुल तीन तीन पद कुल 6 पद दोनों विषयों में हुए। इसमें से दो पद  आरक्षित थे। सामान्य 4 पदों पर नियुक्ति 2010 में की जा चुकी है। लेकिन आरक्षित दो पदों पर नियुक्ति नहीं की गई। हाल में प्रकाशित विज्ञप्ति में आश्चर्यजनक ढंग से आरक्षित साहित्य विषय के पद को सामान्य कर दिया गया।
केवल इतना ही नहीं है। अपनों को ऐडजेस्ट करने के लिए 22 अप्रैल 2015 को प्रकाशित विज्ञप्ति में भी संशोधन कराया गया। 29 अप्रैल को शुद्विपत्र प्रकाशित किया गया। यह संशोधन हरिद्वार में पिछले आठ सालों से जमें आई.ए.एस अधिकारी की पत्नी को एडजेस्ट करने के लिए किया गया। अति महत्वपूर्ण निर्देश के बिन्दु संख्या 8 में आंशिक संशोधन किया गया है। इसमें हाईस्कूल व इंटर में उत्तम शैक्षणिक अभिलेख में 45 प्रतिशत की वाध्यता को खत्म कर दिया गया। ये संशोधन एक महिला अभ्यार्थी को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया। सूचना मे मिली जानकारी में इस महिला अतिथि व्याख्याता के इंटर में मात्र 43 प्रतिशत हैं।
भाषा विज्ञान विषय में तो पूर्व प्रकाशित विज्ञप्ति के मानकों को ही पूरी तरह सो बदल दिया गया। यह हैरत करने वाली बात है कि संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत व्याकरण की अनिवार्यता को ही समाप्त कर दिया गया। 9 दिसम्बर 2011 को संस्कृत विश्वविद्यालय प्रशासन ने जो विज्ञप्ति प्रकाशित की थी उसमें भाषा विज्ञान विषय के लिए संस्कृत व्याकरण की अनिवार्यता रखी गई थी, लेकिन 22 अप्रैल को प्रकाशित विज्ञप्ति में संस्कृत व्याकरण के स्थान पर हिन्दी व अंग्रेजी में एम.ए. अनिवार्य किया गया। जाहिर सी बात है कि यह सब अपने  खास को अंदर करने के लिए किया गया है। बताया जा रहा है कि देहरादून के एक बडे केन्द्रीय संस्थान में कार्यरत एक अधिकारी के लिए इस तरह की नियमावली बनाई गई। पत्रकारिता विभाग में भी एसोसिएट व एसिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर सेटिंग हो रखी है। पहले से ही विश्वविद्यालय में कार्यरत एक शिक्षक का चयन लगभग तय है। हरिद्वार के ही एक बडे समाचार पत्र के पत्रकार का भी चयन तय माना जा रहा है। इसके अलावा प्राचीन व्याकरण के प्रोफेसर पद के लिए दिल्ली के सरकारी संस्थान में कार्यरत सचिव भी सेटिंग गेटिंग में लाभ की स्थिति में हैं। लाइब्रेरी संाइस में भी हरिद्वार स्थित एक डीम्ड विवि के शिक्षक का चयन होने में संशय नहीं है। इसके अलावा कई अन्य पदों पर साक्षात्कार व स्केनिंग महज औपचाकरताएं हैं। सूत्रों पर भरोसा करें तो कई पदों पर विधिमान्य ढंग से शासन से अनुमोदन तक नहीं लिया गया है। कुलमिलाकर संस्कृत विवि एक बार फिर नियुक्तियों के मामले में अपने पुरोन अतिहास को दोहराने जा रहा है। हालांकि राजभवन में कडक राज्यपाल के आने के बाद शायद अपनी नियुक्ति के प्रति आश्स्त कुछ लोगों को धक्का लग सकता है।

मंत्री प्रसाद भी हुए सेट, पहले रोकी नियुक्ति अब कहते हैं नियुक्ति करो!
संस्कृत शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी की सेटिंग संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो महावीर अग्रवाल से पूरी तरह से बैठ गई है। पहले उत्तराख्ंाड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो महावीर अग्रवाल को संस्कृत शिक्षा मंत्री ने अपने करीब फटकने भी नहीं दिया था। मुलाकात के लिए भी कुलपति को कई जगहों से सिफारिश लगानी पडी थी। यहां तक कि एक सामाजिक कार्यकर्ता की लिखित शिकायत पर उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों व एसिस्टेंट प्रोफेसरों की निुयकित पर 9 अक्तूबर 2014 को तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों में अनाचक दोनों के बीच ऐसी खिचडी पकी कि मंत्री ने न केवल नियुक्ति पर लगी रोक के अपने निर्णय पर रोल बैक किया बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन के हर छोटे बडे फैसलों पर भी सहमति जता रहे हैं। कुलपति से संबधित सभी दस्तावेज छह महीने पहले ही उपलब्ध करा दिये गये थे लेकिन इस पर कार्रवाई करने के वजाय मंत्री जी नियुक्ति का राप अलापने लगे। शायद कुर्सी फिसलने से पहले कुछ हाथ लगने का मामला तो नहीं।  मंत्री के कुलपति के प्रति बदले तेवरों के पीछे जानकार नियुक्ति की सेटिंग गेटिंग के फार्मूले में अपनों को भी सेट करने पर बनी सहमति को मान रहे हैं। खुद को बेराजगारों का पैराकार मानने वाले व टिहरी में बेरोजगारों के लिए आत्मदाह की कोशिश करने वाले मंत्री आखिर अब अपने सिद्धांतों से क्यों डोल गये। वैसे चर्चाए हैं कि मंत्रीजी के समधी ही असल में संस्कृत विश्वविद्यालय से जुडे मामलों को हेंडिल करते हैं।

कुलपति के बचाव में छासंघ
संस्कृत विवि के कुलपति ने अपने शैक्षणिक अभिलेखों के मीडिया में खुलासे के बाद अपने वचाव में छात्र कल्याण परिषद के पदाधिकारियों को खडा कर दिया है। छात्र कल्याण परिषद के पदाधिकारी कुलपति के अंकपत्रों व प्रमाण पत्रों को सही बता रहे है। लेकिन इनमें एक ने भी उनकी न तो अंकतालिकाएं देखी और नहीं प्रमाण पत्र। छात्र कल्याण परिषद के पदाधिकारियों को चाहिए कि वो कुलपति की छाल बनने के वजाय कुलपति से ये निवेदन करें कि वे सही तथ्य जनता के सामने रखें या खुद राज्यपाल से आपे दस्तावेजों की जांच का आग्रह करें।

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