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1.11.15

आंध्र ने अमरावती नींव रख ली और हम गैरसैंण नहीं तय कर पा रहे हैं

पुरुषोत्तम असनोड़ा
उत्तर और दक्षिण में सचमुच अंतर है। न केवल जलवायु, भाषा और संस्कृति का बल्कि कार्य पद्धति का भी।  आर्य सभ्यता के वंशज द्रविणों को कितना ही हेय मानें लेकिन द्रविण सभ्यता के वंशज आज की वास्तविकता में हमसे कई गुना आगे हैं। नया सवाल आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती का है। ठीक विजय दशमी के दिन आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती का शिलान्यास हो गया। एक साल पहले तक जो लोग  राज्य के विभाजन  पर मरने मारने को उतारु थे उन्होंने न केवल राजधानी हैदराबाद पर दावा छोडते हुए अमरावती को राजधानी बनाने का निर्णय लिया बल्कि अमरावती को नये सिरे बनाने बसाने को कार्य रुप देना प्रारम्भ कर दिया।   दस साल तक हैदराबाद में संयुक्त राजधानी रहने तक वे भली प्रकार अमरावती को सजा-धजा राजधानी बना लेंगे।



15 साल पहले गठित उत्तराखण्ड के गठन को लेकर किसी को भी आपत्ति नही थी। उ प्र विधान सभा ने उत्तराखण्ड राज्य गठन के कम से कम तीन प्रस्ताव पारित कर केन्द्र को भेजे। राज्य गठन की मांग का उत्तराखण्ड में व्यापक आन्दोलन हुआ, 42 शहादतें हुई और संसद में भी बिना किसी विरोध के उप्र राज्य पुनर्गठन विधेयक 2000 पारित हो गया जिसके फलस्वरुप वैधानिक रुप से उत्तराखण्ड राज्य अस्तित्व में आया और 9 नवम्बर 2000 उसकी स्थापना तिथि बनी।ं इसे भी उत्तर भारतीय सत्ता चरित्र के रुप में देखा जाना चाहिए कि जिस मांग पर किसी को आपत्ति नहीं थी उसी मांग पर आन्दोलनकारियों को गोलियों से भूना गया,  शहादतें हुई  और मुजफ्फर नगर जैसा घिनौना कृत्य हुआ।

यह भी सत्ता चरित्र ही है कि राज्य पुनर्गठन विधेयक में सर्व सम्मति से स्वीकार्य राजधानी का उल्लेख छोड दिया गया और पहाडी राज्य की पहाडी राजधानी आन्दोलन का कारण बन गयी, बाबा मोहन उत्तराखण्डी को शहादत देनी पडी। 15 साल से हम अवैधानिक रुप से राज्य की राजधानी बनाये देहरादून को नर्क में तब्दील कर रहे हैं और आज भी दो राजधानियों का भौंडा प्रस्ताव परोस रहे हैं। हमारे राजनैतिक दलों के नेताओं में साहस नही है कि वे राज्य हित में कोई निर्णय ले सकें और उससे अपनी पार्टी और नेतृत्व को सहमत करा सकें। व्यक्तिगत रुप से संस्थागत बातों में माहिर ऐसे नेताओं और नेतृत्व ने 15 सालों में उत्तराख्ण्ड की फजीहत की है। तीन लाख से अधिक घरों पर ताले लग गये है। और तीन हजार से अधिक गांव वीरान हो गये हैं। हद तो यह है कि जिन साढे तीन से गांवों को प्राकृतिक आपदा के दौर से विस्थापित किया जाना है उसके लिए कोई रोडमैप नही है।

गैरसैंण को उतराखण्ड क्रान्ति दल ने सन् 1992 मंे उत्तराखण्ड की औपचारिक राजधानी घोषित कर दिया था। सन् 1994 में रमा शंकर कौशिक समिति ने उत्तराखण्ड राज्य के साथ गैरसैंण राजधानी की अनुशंसा की थी। यह भी उसी चरित्र का हिस्सा है कि रमाशंकर कौशिक समिति गठित करने वाले मुख्य मंत्री मुलायमसिंह की सरकार में ही गांधी जयन्ती 2 अक्टूबर सन् 1994 को कलंकित कर मुजफ्फरनगर का बर्बर घिनौना काण्ड किया और मुलायमसिंह ने उस पर खेद भी व्यक्त नही किया। उप्र, उत्तराखण्ड और केन्द्र की किसी भी सरकार ने दोषियों सजा देने के बजाय प्रोन्नति दी जो आन्दोलनकारियों के जख्म पर नमक छिंडकने सरीखा था। पिछले तीन साल से गैरसैंण फिर चर्चा में है गैरसैंण के एक भाग भराडी सैंण जहां सातवें दशक में पशुपालन की महत्वाकांक्षी परियोजना विदेशी पशु प्रजनन प्रक्षेत्र के के 100 हेक्अेयर क्षेत्र में विधान सभा, विधायक, मंत्री व अधिकारी हांस्टल बन रहे हैं, सचिवालय की स्वीकृति भी सरकार ने दी है। लेकिन इस विधान सभा, सचिवालय का स्टेटस क्या है इस पर सरकार और उसके मुखिया मौन हैं। 2 नवम्बर से विधान सभा सत्र आहूत हो रहा है। यह गैरसैंण में होने वाला दूसरा सत्र होगा। पहला गत वर्ष 9 जून से राइका मैदान में टेंट लगा कर सम्पन्न हुआ था। इस बार राजकीय पांलीटेक्निक में आहूत होगा और विधायकों आवास भी टेंट बजाय भराडीसैंण में बन रहे विधायक आवासों में ही होना है।

सवाल वही है, गैरसैंण में दो सत्र आयोजन के बाद भी यदि सवाल और स्थितियां वही हों तो  पूरी कवायद व्यर्थ ही है। यदि हम आज भी दो राजधानियों के कांसेप्ट में जी रहे हैं तो राज्य आन्दोलन के साथ धोखा कर रहे हैं। हम बाबा मोहन उत्तराखण्डी के गुनाहगार होंगे जिन्होंने 13 बार के आन्दोलन के साथ शहादत दे दी। हम उन मां-बहिनों के भी अपराधी होगे जिनकी अस्मिता उत्तराखण्ड की मांग के लिए खण्डित हुई और उस आन्दोलन की आत्मा गैरसैंण थी।

सवाल गैरसैंण में विधान सभा या सचिवालय बना देने तक का नही है। मध्य हिमालय का उत्तराखण्ड आपदा और सामरिक  दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। वहां अत्यधिक निर्माणों की इजाजत नहीें दी जा सकती। भराडीसैंण  दूधातोली के निकट है, दूधातोली गैर ग्लेश्यिरी 5 नदियों के उद्गम की पर्वत श्रंृखला है जिनमें पश्चिमी रामगंगा भी है और वह उत्तराखण्ड के साथ उप्र में भी जलापूर्ति करती है। पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र में बिना नियोजन के भारी निर्माण प्रकृति को कुपित करेंगे।

सरकार ने गैरसैंण अवस्थापना विकास परिषद की स्थापना तो की है लेकिन एक साल में बजट आवंटन से आगे उसका काम नहीं बढा है। नीति और नियोजन के मुद्दे पर वह सिफर है। गैरसैंण को कैसे बडे भार से मुक्ति के साथ उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी बनाया जा सकता है इसका सोच पक्ष-विपक्ष के पास नही है। आंध्र प्रदेश एक साल में राजधानी अमरावती की नींव रख देता है तो उत्तराखण्ड 15 साल में भी राजधानी पर सहमति नही बना सकता। पंजाब और हरियाणा का तो और बूरा हाल है दोनों अपनी स्थापना  से ही चंडीगढ डटे हुए हैं। उत्तर- दक्षिण में शायद यही बडा अंतर है।    


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